युवाओं के मुद्दे / मोहनदास पाई

व्याख्यान

राजीव मल्होत्रा: मेरे साथ आज एक महत्वपूर्ण अतिथि हैं,  बेंगलुरु से सार्वजनिक बौद्धिक, मोहनदास पाई | नमस्ते मोहनदास जी !

मोहनदास पाई: नमस्ते !

राजीव मल्होत्रा: आपका यहाँ होना हर्ष की बात है !

मोहनदास पाई: धन्यवाद !

राजीव मल्होत्रा: आपके साथ विचारों पर चर्चा करना बहुत अच्छा लगता है | मोहन एक सफल कॉर्पोरेट व्यक्तित्व रहे हैं | वे कई विषयों पर निर्भीक, मौलिक और साहसी विचारों वाले एक परोपकारी और सार्वजनिक बौद्धिक भी हैं | जैसे संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, भारतीयता, अर्थव्यवस्था, राजनीति आदि पर | यह एक बहुत ही जीवंत और रोचक चर्चा होने वाली है | मोहन ने कहा है कि उनसे कुछ भी पूछा जा सकता है और वे उसका उत्तर देंगे | वे बहुत फुर्तीले हैं |

एक बात जिसपर हम भारत में बहुत गर्व करते हैं, वो है तथाकथित जनसांख्यिकीय लाभांश | पर यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम युवा लोगों को कैसे शिक्षित करते हैं | कई लोग किंडरगार्टन से 12 तक की स्कूली शिक्षा प्रणाली की आलोचना करते हैं | यहां तक कि उच्च शिक्षा में भी हम दुनिया के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में से एक नहीं हैं | आपको क्या लगता है कि इसके पीछे का कारण क्या है ?

मोहनदास पाई: राजीव मुझे पहले जानकारी देने दें | बहुत से लोग भारतीय शिक्षा प्रणाली की आलोचना करते हैं, परन्तु उन्होंने उस व्यापकता को नहीं सम्हाला है जो हम सम्हालते हैं | हमारे पास 26.5 करोड़ स्कूली बच्चे हैं, जितने चीन सहित किसी देश में नहीं है | अमेरिका और यूरोप में इतने नहीं हैं |

राजीव मल्होत्रा: यूरोप में इतने सारे लोग नहीं हैं |

मोहनदास पाई: हाँ | हमारे यहाँ 800 विश्वविद्यालय, 51,000 महाविद्यालय, 3.5 करोड़ कॉलेज के विद्यार्थी हैं | सकल नामांकन दर 24 है यानी 18-23 वर्ष के 24% लोग कॉलेज जाते हैं | विकास दर 3.5% है और यह 7 करोड़ तक चला जायेगा | 3.5 करोड़ के साथ हम संभवतः विश्व का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय तंत्र हैं और हम चीन को पछाड़ देंगे यदि अभी तक नहीं पछाड़ा है तो | प्रत्येक वर्ष 80 लाख युवा स्नातक होते हैं | कोई देश इस पैमाने पर नहीं करता है |

राजीव मल्होत्रा: 80 लाख स्नातक

मोहनदास पाई: भारत से हर साल 80 लाख स्नातक

राजीव मल्होत्रा: बहुत प्रभावशाली

मोहनदास पाई: और भारी वृद्धि के साथ | यह सब हमें समझना चाहिए | जब तक कि कोई भारत जैसे विशाल तंत्र का प्रबंधन नहीं करता और परिणाम नहीं देता है, तब तक हमें उनकी आलोचना से चिंतित नहीं होना चाहिए | पर हमें गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा | सबको शिक्षित करने के क्रम में व्यापकता पर ध्यान केन्द्रित करने के कारण गुणवत्ता पीछे छूट गयी है | विश्व रैंकिंग प्रणाली में, शीर्ष 100 या 200 विश्वविद्यालय मुख्य रूप से यूरोप, अमेरिका या चीन से हैं | रैंकिंग पद्धति अनुसंधान को सबसे अधिक महत्व देता है जिसके बाद बाह्य-संपर्क है | अनुसंधान आधारित विश्वविद्यालयों का वित्तपोषण सार्वजनिक स्रोतों या निजी अनुदानों द्वारा किया जाता है | परन्तु भारत की शिक्षा प्रणाली एक शिक्षण आधारित शिक्षा प्रणाली है, जो शोध पर केंद्रित नहीं है | हमारे पास वित्तपोषण के बड़े सार्वजनिक स्रोत नहीं हैं | संभवतः 50-60 संस्थान अनुसंधान करते हैं |

स्वतंत्रता के बाद नेहरु ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ी भूल की | विश्वविद्यालयों से पृथक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) एवं वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) बनाकर | काफी सारा धन रक्षा व प्रायौगिक अनुसन्धान में व्यय होता है | इन दो संस्थानों में लगभग 15 हजार करोड़ प्रति वर्ष | शोध विश्वविद्यालय प्रणाली तक नहीं पहुंचता है | ये पृथक-पृथक हैं, उनके पास फैलोशिप (छात्रवृत्ति) नहीं है या छात्रों को अनुसंधान के लिए आने की अनुमति नहीं है | अभी भी, जब सीएसआईआर ने प्रति वर्ष 1000 पीएचडी लेना आरम्भ कर दिया है और अपने आप में विश्वविद्यालय बनने की चेष्टा कर रहा है | जब तक कि अनुसंधान के लिए सार्वजनिक धन उपलब्ध नहीं होगा और ये प्रयोगशालाएं विश्वविद्यालयों से पंक्तिबद्ध नहीं होंगी, हम शीर्ष 100 या 200 में नहीं होंगे |

अगला विषय यह है कि लोगों ने अनुदान देना आरम्भ नहीं किया है क्योंकि अधिकाँश सरकारी विश्वविद्यालय हैं, फिर भी हाल के वर्षों में कुछ निजी विश्वविद्यालय उभरकर आये हैं | सरकारी विश्वविद्यालय निजी क्षेत्र से भागीदारी नहीं करते हैं | उनकी विपणन (मार्केटिंग) क्षमता तुच्छ है और वे सरकारी अनुदान पर आश्रित हैं | उन्हें मनोदृष्टि की समस्या है | वे अपने पूर्वक्षात्रों को नहीं जोड़ते हैं | उनके बोर्ड में कोई पूर्वक्षात्र नहीं है | सरकार अब इसे सुलझाने का प्रयास कर रही है | तो ये दो मौलिक मुद्दे हैं | शिक्षण के दृष्टिकोण से शीर्ष 25% विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता बहुत अच्छी है | उदाहरण के लिए 1.86 लाख भारतीय अमेरिका में पढ़ रहे हैं | उनमें से 60% कुछ शीर्ष विश्वविद्यालयों से परास्नातक या पीएचडी कर रहे हैं | कंप्यूटर साइंस में परास्नातक और पीएचडी के 60% छात्र एशियाई हैं, जिनमें से अधिकांश भारतीय हैं | 4 लाख भारतीय छात्र सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं | अमेरिका में हम चीन के बाद दूसरे सबसे बड़े जातीय समूह हैं जो अध्ययन के लिए आते हैं | यदि हमारे छात्रों को भारत में वास्तव में अच्छी तरह से पढ़ाया नहीं गया तो हमारे छात्र शीर्ष अमेरिकी विश्वविद्यालयों में कैसे आए ?

राजीव मल्होत्रा: महत्वपूर्ण बात है | पहला विषय व्यापकता और मात्रा है | स्वतंत्रता के बाद हमें वि-उपनिवेशीकृत होना था और इसलिए बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षित करना था | गुणवत्ता का पतन हुआ, मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि नेहरू ने शिक्षण से अनुसंधान को पृथक कर दिया | अमेरिका में यह एकीकृत है, इसलिए युवा लोग शोध कर सकते हैं | शोध कार्यक्रमों में प्रशिक्षित करने के लिए युवाओं की एक श्रृंखला हो सकती है | शिक्षण और शोध को पृथक करना एक बड़ी भूल थी | आशा है कि वे उन्हें एकीकृत करेंगे |

मोहनदास पाई: मुझे विश्वास नहीं है | वे मुक्ति से परे स्वयं में लीन द्वीपों के सामान हैं | संभवतः कुछ होगा | एक और विषय है कि नेहरू ने व्यापक प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित नहीं किया था | आज भारत और चीन की साक्षरता दर क्रमश: 75-77% और 96% है | जब 1949 में माओ सत्ता में आए तो उन्होंने कहा: “महिलाएं स्वर्ग के अर्धभाग की स्वामिनी हैं” | उन्होंने महिलाओं को शिक्षा प्रदान किया | आज चीन में 65% महिलाएं श्रमिक हैं जबकि भारत में वे 25% हैं | इसलिए हमारी महिलाएं पुरुषों की तुलना में कम शिक्षित हैं | उनके पास अधिक बच्चे हैं और आबादी बढ़ी है | यदि नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद महिलाओं के लिए प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित की होती तो हम एक भिन्न देश होते | हमारी जनसंख्या छोटी होती और लोग अधिक सशक्त | हमारे यहाँ कम गरीबी होती | हम पहले दशक में प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित न करने की नेहरू की भूल का भुगतान कर रहे हैं | और कमांड-नियंत्रण अर्थव्यवस्था में विश्वास के कारण निजी क्षेत्र को आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी गयी | अंग्रेजों के आने से पहले हमारे यहाँ एक बहुत अच्छी शिक्षा प्रणाली थी | मैकॉले के पत्र प्रमाण हैं |

आज एक हिन्दू होने के नाते मैं एक विद्यालय आरम्भ नहीं कर सकता हूँ | केवल अल्पसंख्यकों को विद्यालय आरम्भ करने का विशेषाधिकार है |  हिन्दू के रूप में मैं बहुसंख्यक माना जाता हूँ और सरकारी भेदभाव का सामना करता हूँ | अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत अल्पसंख्यक, भाषाई अल्पसंख्यकों भी, स्कूल खोल सकते हैं | एक भाषाई अल्पसंख्यक के रूप में मैं बिना किसी कष्ट के स्कूल खोल सकता हूँ | परन्तु एक हिंदू के रूप में, 79% आबादी होने के कारण, सरकार आपको सताएगी क्योंकि वे केवल सरकारी स्कूल चाहते हैं | कुछ निजी स्कूल हैं, जो विभिन्न कारणों से आए हैं | लेकिन स्वतंत्रता के पहले 1 या 2 दशकों में, हमारे परोपकारी लोग कई स्कूल खोल सकते थे |

राजीव मल्होत्रा: यह हास्यास्पद नेहरूवाद है जो चुनिंदा रूप से समुदाय के आधार पर स्कूलों को अनुमति देता है, वो भी ऐसे देश में जहां शिक्षा की बहुत आवश्यकता है | यदि पर्याप्त मांग है और लोग अध्ययन करना चाहते हैं, तो सभी को स्कूल खोलने में सक्षम होना चाहिए | प्रमुख सुधारों की आवश्यकता है | चलिए मैं आपसे पूछता हूँ | अमेरिका में एक अच्छी बात यह है कि बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के कई निजी अनुदानों पर आधारित पीठ व कार्यक्रम हो सकते हैं | कोई किसी विश्वविद्यालय में जा सकता है, बातचीत करके पीठ स्थापित कर सकता है | भारत में इंफोसिस की तरह किसी कंपनी के लिए क्या यह संभव है कि इंफोसिस पीठ स्थापित करे और छात्रों को प्रशिक्षित कराए ?

मोहनदास पाई: यह संभव है और इंफोसिस ने ऐसा किया है | पर इसे बड़े स्तर पर करने की आवश्यकता | लेकिन राजीव कृपया समझें कि अमेरिका में पूर्वछात्र पीठों के लिए धन देते हैं | यहां पूर्वछात्रों से पीठों की वित्तपोषण के लिए संकाय को उनसे बातचीत करनी चाहिए और विपणन करना चाहिए | उन्हें पूर्वछात्रों को जोड़ना चाहिए और उन्हें बोर्ड में आने के लिए आमंत्रित करना चाहिए | लेकिन आईआईटी व अन्य इस प्रकार पूर्वछात्रों के साथ बातचीत नहीं करते हैं | आईआईटी चेन्नई में एक सक्रिय पूर्वछात्र कार्यक्रम है और झुनझुनवाला जैसे लोग उत्कृष्ट काम करते हैं और उन्हें बड़ी धनराशि मिलती है | यदि सभी आईआईटी व सरकारी विश्वविद्यालय ऐसा करें तो यह बहुत अच्छा होगा | आईआईएससी बहुत कुछ कर सकता है लेकिन वे बाजार समझदार नहीं हैं | संकाय लोगों तक पहुंचना नहीं चाहता है |

जब मैं इंफोसिस में एचआर और शिक्षण शोध का प्रमुख था, तो हमें पीठों के लिए भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा शायद ही कभी संपर्क किया गया था | जबकि कैम्ब्रिज, अमेरिकी और यूरोपीय विश्वविद्यालय प्रत्येक वर्ष आए थे | परन्तु 15 वर्षों में आईआईएससी केवल दो बार आया | यानी विपणन एक बड़ी निर्बलता है और उन्हें अपने विश्वविद्यालयों से लगाव रखने वाले पूर्वछात्रों के साथ बातचीत करनी है | यह एक छोटे स्तर पर हो रहा है परन्तु इसे बढ़ाना चाहिए |

राजीव मल्होत्रा: अमेरिका में, चूंकि वे सरकारी अधिकारी नहीं हैं, इसलिए उन्हें विश्वविद्यालयों द्वारा बाहर निकलने और विपणन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है | इसलिए वे पूर्वछात्रों के साथ बातचीत करते रहते हैं और धन इकठ्ठा करते रहते हैं | भारत में धन सरकार से आता है और वे जानते हैं कि उनकी नौकरियां सुरक्षित हैं और उनके पास आजीवन रोजगार है |

मोहनदास पाई: यहां यह एक मनोदृष्टि की समस्या है | सार्वजनिक क्षेत्र के रूप में, वे निजी क्षेत्र से बहुत अधिक घृणा करते हैं | निजी क्षेत्र बुरा है, वे पैसा और लाभ कमाते हैं | आर्थिक-कल्याण और समृद्धि के लिए विशिष्ट नेहरूवादी घृणा | परन्तु उनमें से कुछ बाहर आ रहे हैं और मुझे आशा है कि यह बढ़े | सबसे अच्छा मार्ग है कि उन्हें अमेरिका की भांति 12 महीनों के स्थान पर 10 महीनों का वेतन दिया जाए | उन 2 महीनों में उन्हें बाहर पहुंचना है | फिर विश्वविद्यालय बाह्य पहुँच बनाने पर ध्यान देंगे |

हमें केंद्र-बिंदु बदलना है, सरकारी चंगुल से विश्वविद्यालयों को हटाना है और उन्हें स्वायत्त बनाना है | सरकार निर्देशित और नियंत्रित करती है | किसी भी उच्च शिक्षा प्रणाली में, सरकार की 3 भूमिकाएं हैं: नीति निर्माता, नियामक और सेवा-प्रदाता | हमारी सरकार किसी का पालन नहीं करती है | संस्थानों को किसी भी उत्तरदायित्व से बचाने के लिए नीतियां बनाई जाती हैं | नीतियां देश या छात्रों के लिए नहीं हैं | एक नियामक के रूप में वे निजी क्षेत्र के विरुद्ध भेदभाव करते हैं | यूजीसी और एआईसीटीई सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों की भांति निजी संस्थानों को पैसे नहीं देते हैं | निजी क्षेत्रों में बहुत से नियमों और विनियमों का सामना करना पड़ता है | परन्तु यदि किसी सरकारी विश्वविद्यालय से गड़बड़ हो जाता है, तो कोई कार्रवाई नहीं की जाती है | पर वे निजी क्षेत्र के पीछे पड़ जाते हैं और अनावश्यक विनियम जारी करते हैं |

शिक्षा प्रदाता के रूप में सरकारी स्कूल दोषपूर्ण हैं | लगभग 25% अच्छे हैं, 25% औसत और 50% दोषपूर्ण हैं | लेकिन शिक्षकों या किसी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, और हमारे बच्चों को सरकारी स्कूलों में दोषपूर्ण शिक्षा मिलती है | निजी स्कूल और कॉलेज शुल्क आधारित हैं, और शिक्षा की गुणवत्ता के आधार पर लोग तय करते हैं कि नामांकन कराना है या नहीं | सरकारी विश्वविद्यालयों में, यहां तक कि जब कोई शून्य अंक लाता है तो कुछ नहीं होता है | शिक्षकों को वेतन और पेंशन मिलता रहता है | कोई कार्रवाई नहीं की जाती है | निजी क्षेत्र के विपरीत, सेवा प्रदाता के रूप में सरकार को उत्तरदायी नहीं माना जाता है | जैसे-तैसे भारत एक सरकारी देश बन गया है जहां हम उनके द्वारा नियंत्रित और निर्देशित हैं जो उत्तरदायित्व से परे हैं |

राजीव मल्होत्रा: सही कहा | सरकारी मध्यमता |

मोहनदास पाई: सरकारी मध्यमता और निजी क्षेत्र के लिए सरकारी घृणा | मैं दिल्ली में था और वे मुझे बता रहे थे “ओह उस हलवाई ने विश्वविद्यालय शुरू किया” | एक हलवाई ने एक विश्वविद्यालय खोला है जिसमें 65,000 लोग स्वेच्छा से आते हैं और शुल्क का भुगतान करते हैं | स्वाभाविक है कि वे लाभ देख रहे हैं | उन्हें अच्छी शिक्षा मिल रही है, लेकिन नीति निर्माता इसे स्थापित करने वाले हलवाई का उपहास कर रहे हैं | तो क्या त्रुटी हुई ?

राजीव मल्होत्रा: वह एक चालाक व्यक्ति है |

मोहनदास पाई: मुझे गर्व है कि हमारे यहाँ एक साधारण व्यक्ति, जो एक दरिद्र परिवार में जन्मा, और रेलवे स्टेशन पर चाय बेचता था, हमारे देश के प्रधान मंत्री के रूप में निर्वाचित है | इसके स्थान पर कि वो नई दिल्ली में विशेषाधिकार के साथ जन्म लेता और करदाताओं के पैसे पर पलता | हमारा देश एक योग्यतातंत्र है लेकिन हमारी उच्च शिक्षा के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है |

राजीव मल्होत्रा: ये कुछ बहुत अच्छे मुद्दे हैं | एक विषय जिसपर हमने बात की वो है भारत की बड़ी आबादी, यानी तथाकथित जनसांख्यिकीय लाभांश | हमारी एक युवा जनसँख्या है | हमें संभावित जनसंख्या बम के विरुद्ध उसे संतुलित करने की आवश्यकता है | माना जाता है कि 2 करोड़ लोग प्रति वर्ष आजीविका बाजार की आयु तक पहुंच रहे हैं, परन्तु उतनी नौकरियां सृजित नहीं हो रही हैं | तो क्या हम जनसंख्या आपदा की ओर बढ़ रहे हैं ? हम अधिक से अधिक लोगों को जोड़ रहे हैं लेकिन स्वाभाविक है कि हमारे पास अधिक से अधिक भूमि या भोजन नहीं हो सकता है | आप इसके बारे में क्या सोचते है ?

मोहनदास पाई: राजीव, मैं आपको फिर से आंकड़ा देता हूँ | हमारी जनसंख्या लगभग 1.3 अरब है जो प्रति वर्ष 1.2-1.3% के दर से बढ़ रही है | भारत का प्रजनन दर 2.3 है, प्रतिस्थापन दर 2.1 है | पूरे दक्षिण महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, केरल और कर्नाटक में प्रजनन दर केवल 1.7 है | पश्चिम बंगाल में 1.6 है, पंजाब में 1.6 है | बिहार में 3.2, यूपी में 2.8, राजस्थान में 2.4, मध्य प्रदेश में 2.4 है | 1971 में दक्षिण, भारत का 30% था | 2011 में यह घटकर 25% हो गया है | यानी उत्तर-दक्षिण वितरण में समस्या है | दक्षिण अधिक सफलता, कम जनसंख्या वृद्धि, और कम प्रतिस्थापन दर के साथ तीव्र गति से बूढ़ा हो रहा है | वे श्रेष्ठतर रूप से शिक्षित और शासित हैं, और इसलिए दक्षिण में वृद्धि अधिक है | फिर गंगा के गौ-पट्टी (कॉव बेल्ट) में प्रशासनिक मुद्दे हैं | यहां तक कि पश्चिम बंगाल में प्रजनन दर नीचे आया है | 5-7 वर्षों में हमारी प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर के बराबर होगी |

राजीव मल्होत्रा: क्या यह शिक्षा या आय या महिलाओं से संबंधित है ?

मोहनदास पाई: यह शिक्षा और आय से संबंधित है, क्योंकि एक बार जब आप महिलाओं को शिक्षित करते हैं तो उनके पास इतने सारे बच्चे नहीं होते हैं | आइए आंकड़ों को देखें | एक अशिक्षित महिला के पास 5-6 बच्चे हैं, अर्द्ध शिक्षित महिला के 3-4, एक मैट्रिकुलेट महिला के 2-3 और एक उच्च शिक्षित महिला के पास केवल 1 बच्चा है | आंकड़े स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं कि जब महिलाएं सशक्त और शिक्षित होती हैं, तब वे कम बच्चे चाहती हैं | आज एक बच्चे को पालना महंगा है | जन्म से जब तक बच्चे को डिग्री और नौकरी मिलती है तब तक 1 करोड़ रुपये खर्च हो जाता है | यह एक बड़ा निवेश है | कई महिलाओं को अवचेतन रूप से यह पता है कि वे एक और बच्चे को जन्म नहीं देना चाहते हैं, और इतना सारा धन और समय का व्यय | यानी कम बच्चों का होना आर्थिक विकास को बढ़ावा दे रहा है | महिला शिक्षा अल्पसंख्यकों की भी सहायता करता है जिनके पास बड़े परिवार हैं और वे 10 वर्ष पीछे हैं | असंगत आंकड़ों के अनुसार एससी, एसटी और अल्पसंख्यक बच्चों की संख्या के मामले में 10 वर्ष पीछे हैं | यानी महत्वपूर्ण कारक महिलाओं की शिक्षा और विवाह देर से सुनिश्चित करना है |

राजीव मल्होत्रा: भारत के लिए एक महान दीर्घकालिक निवेश |

मोहनदास पाई: सर्वश्रेष्ठ दीर्घकालिक शिक्षा महिलाओं को संभवतः परास्नातक तक शिक्षित करना है ताकि वे देर से विवाह कर सकें | इस प्रकार हम अपने देश का पुनर्निर्माण कर सकते हैं | आजादी के पहले दशक में नेहरू की भूल थी जन शिक्षा प्रदान नहीं करना और विशेष रूप से माओ की भांति महिलाओं की शिक्षा | माओ ने कहा, “महिलाएं स्वर्ग के अर्धभाग की स्वामिनी हैं” | आज चीन 8.5 लाख अरब रुपयों (12.5 ट्रिलियन अमरीकी डालर) की अर्थव्यवस्था है | कारण पता करने और भारत को श्रेष्ठतर बनाने के लिए परिवर्तित करने में अभी बहुत विलम्ब नहीं हुआ है |

मैं वास्तव में भारत के तथाकथित जनसांख्यिकीय लाभांश के बारे में चिंतित हूँ | भारत पिछले 30 वर्षों से प्रति वर्ष 2.5 करोड़ बच्चों को जन्म दे रहा है | इसकी गणना हमारे जनगणना के आंकड़ों से की जा सकती है जो प्रत्येक दशक में प्रकाशित होती है | हमारे पास 1971 से 2011 तक का दशकीय आंकड़ा है | अनुमान लगाने के लिए, हम आरम्भ और समापन संतुलन का औसत लेते हैं और मृत्यु दर जोड़ने पर 2.5 करोड़ के आंकड़े तक पहुंचते हैं | 10 लाख शिशु 5 की उम्र पहुंचने से पहले मर जाते हैं क्योंकि शिशु मृत्यु दर प्रति वर्ष 45/1000 है | यानी 2.4 करोड़ प्रति वर्ष 21 की उम्र प्राप्त करते हैं और अगले 20 वर्षों तक ऐसा करेंगे |

उनमें से 30% नौकरियां नहीं चाहते हैं और विवाह कर लेते हैं या कृषि में लग जाते हैं | कृषि भारत की कार्यशील जनसँख्या का 45% है | हमें प्रति वर्ष लगभग 1.7 करोड़ नौकरियों की आवश्यकता है, लेकिन सरकारी आंकड़ों के अनुसार केवल 60-70 लाख उत्पन्नं हो रही हैं | मैं इसके लिए एक रिपोर्ट पर काम कर रहा हूँ | इसलिए पिछले एक दशक में प्रति वर्ष 1 करोड़ लोगों को अच्छी नौकरियां नहीं मिली हैं, और संभवतः 2000-3000 रुपये की नौकरी मिली हैं | अच्छी नौकरी का अर्थ है 10,000 रुपये या उससे अधिक की | उनमें से आधे या 3/4 शिक्षित हैं |

अगले दशक के लिए हमारे पास उसी प्रकार 1 करोड़ लोग होने जा रहे हैं, क्योंकि अधिक से अधिक नौकरियां स्वचालित होने जा रही हैं | 2025 तक, 21 से 45 वर्ष के आयु वर्ग के 20 करोड़ शिक्षित लोगों के पास नौकरियां नहीं होंगी क्योंकि अर्थव्यवस्था उनको सम्हाल नहीं सकती है | यह एक डूबी हुई पीढ़ी है और हम एक जनसांख्यिकीय आपदा के मध्य में हैं न कि जनसांख्यिकीय लाभांश के | और ये वही है जिसे आप देख रहे हैं राजीव | गुज्जर, जाट और पटीदार आंदोलन, तमिल और जल्लीकट्टू की समस्या, मराठा समस्या सभी इसलिए हैं क्योंकि ये लोग नौकरियां चाहते हैं जो अस्तित्व में नहीं हैं |

Leave a Reply