To read Part – 9, Click Here.
उपनिवेशवादी की मानसिकता:
यहाँ पर मैं एक वाद का प्रस्ताव रखना चाहता हूँ कि, क्यों कुछ रीसा के विद्द्वान इतने उग्र एवं क्रोधित हैं I इन विद्द्वानों को कुछ विशेष वर्ग मात्र के ही, भारतियों से व्यवहार करना आता है, और यदि कोई इनके इस रूढ़िबद्ध “डिब्बे” में नहीं समुचित होता है तो, इनके द्वारा किये गए कई प्रयत्न, अपने मापदंड के, यंत्र के प्रयोग के, असफल हो जाते हैं, परिणामस्वरूप ये निष्फलता प्राप्त करते हैं I
१. भारतीय धर्मों के कई पश्चिमी विद्द्वान चालाकी/धूर्तता से एवं भारत के निर्धन समुदाय से कार्य करने के अभ्यस्त हो चुके हैं, जिनको वे एक पारिभाषिक शब्द “मूल निवासी भेदिया,” नाम से पुकारते हैं, और जिनसे वे “अन्वेषण के लिए आँकड़े” निचोड़ते हैं अपनी पक्षपातपूर्ण छलनी से I ये प्रायः भारतीय विद्द्वानों, एन.जी.ओ और मध्यवर्ती संस्थाओं की साँठ-गाँठ से होता है I ये मूल निवासी भेदिये आभारी हो जाते हैं, परोसने के लिए वो सब, जो ये अंग्रेजी विद्द्वान उनसे चाहते हैं, जिनके समीप अत्यंत अनुदान धानराशि है जो, आँकड़ों के संग्रह प्रक्रिया पर फेंकने के लिए प्रयोग किये जाते हैं I
२. नूतनकाल में, विद्द्वानों को द्वितीय वर्ग के भारतियों से भी व्यवहार करना पड़ा था: ये अर्ध-अज्ञानी एवं सरलमति प्रवासी क्षात्र हैं, जो बैठे हैं अपनी कक्षाओं में, “हिन्दू धर्म के परिचय” के विषय में अध्यन के लिए I सत्ता एवं ज्ञान के असंतुलन को देखते हुए, विद्द्वानों ने अपनी शिक्षा के अनुकूलित कर लिया है, जिस से कि वह स्पष्ट रूप से हिन्दू-विरोधी ना लगे, और कई ने अपनाया है, भ्रामक रूप का आचरण और चित्रण, जो प्रायः नवुवकों को मूर्ख बनाने में सफल हैं, उनको ये कल्पना करवाने में कि, ये विद्द्वान वास्तव में उनकी परंपरा का सम्मान करते हैं और वे जो कुछ भी पढ़ाते हैं वह प्रामाणिक ही है I द्वैधता एवं अस्पष्टता का प्रयोग किया जाता है एक कूटनीतिक यंत्र की भाँती, क्यूंकि ये विशाल क्षेत्र तक माना जाता है कि, हिन्दुओं की प्रवृति झगड़ालू नहीं होती है I यहाँ पर एक अत्यंत ही उत्कृष्ट साहित्यिक उदहारण, अँगरेज़ उपनिवेशिवादी, के जाल में फांसने के प्रयोग का दिया है I
ये सर्वोतम ढंग से वर्णित है इतिहासकार जॉन कीय के शब्दों में: “अन्य शत्रु अपने मंशा की प्रत्याख्यान स्पष्ट कर देते हैं अपने परिवार और धर्म के विषय में, ग्रामीण क्षेत्र एवं नगर को लूट कर उसका विध्वंस कर देते हैं I अँगरेज़, औसतन इतने संयमित हैं अपनी भाषा में और इतने अनुशासन-बद्ध हैं इस क्षेत्र में, कि वे अत्यंत ही भिन्न थे I वे शत्रुता को मित्रता की भाँति प्रस्तुत करके अनुग्रह से विजयी हो जाते थे I उनकी युक्तियों के विरुद्ध उनका एकत्र होकर समर्थन करना, कठिन था I”[८५] I
महाध्यापक अंटोनिओ डे निकोलास समझते हैं यूरोपियों की वो धुन जिसमें वे, दृढ़तापूर्वक स्वयं को, प्रधान विवेक का मानते हैं: [८६] I
“रीसा विद्द्वानों के द्वारा अधिकांश दृणकथन योग एवं “हिन्दू धर्म” के विषय में, किसी भी इंडिक (भारतीय) प्रसंग से उसका, भारत में, कोई भी लेना-देना नहीं है I ध्यान दीजिये, आप मात्र शिकागो के महाविद्यालय से ही अधिकतर सम्बंधित हैं I मेरा व्यक्तिगत अनुभव उनके साथ, दर्शनशास्र में उतना ही गुणहीन है जितना आपका धर्म में है I [इन विद्द्वानों के अनुसार,] भारतीय प्रसंगों में कोई तर्क नहीं होता है, वे काल्पनिक होते हैं अतएव ऐतिहासिक भी नहीं होते हैं, और इसी कारण वे असत्य एवं तर्कहीन होते हैं I क्या आपने कभी अपने आप से पूँछा है क्यों? मेरा निष्कर्ष वहां से आता है, जहाँ से इन लोगों ने इतिहास का नियंत्रण, पुरातन काल में किया था जब, यही विद्द्वान अक्खड़ कहलाये जाते थे, जो फिनिशन लोगों से प्रसंग चुराते थे और सभी के लिए पुनः इतिहास लिखते थे जिससे कि उनकी निर्धारित की गयी तिथि के अनुसार वे ही सर्वप्रथम ज्ञान के सञ्चालन हो सकें, एक मात्र (भगवान्), और अधिकांश प्रकटीकरण, ईश्वरदूत की वाणी इत्यादि I निस्सन्देह, हम सब जानते हैं कि, ये सब असत्य है, किन्तु उनकी प्रवृत्ति नहीं बदली I मुझसे कहा गया कि, हिन्दू के लिए ये असंभव है, उनके पौराणिक प्रसंगों का दार्शनिक होना क्यूंकि वे ऐतिहासिक नहीं होते हैं अतएव तर्कहीन हैं I मेरा उत्तर ये है कि, एकमात्र तर्क को ढिंढोरा पीट कर “तर्कसंगत” बताना, मात्र तर्कशून्यता और प्रत्ययात्मक अधिनिवेशवाद है I”
महाध्यापिका गायत्री चक्रवर्ती-स्पिवक समझाती हैं, इन भारतीय संस्थाओं के नकार को इन पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा, उसी समानरूप विषय की पुष्टि के लिए: [८७] I
“ये तो लगभग, ऐसा है, कि जैसे हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है I अर्थात, उपनिवेशक, यहाँ तक की उच्च वर्गीय, उपनिवेशक, भी व्याप्त नहीं है, कारक के रूप में I ऐसा भी नहीं है कि इन इतिहासकारों को, कई ऐसे लोगों के विषय में ज्ञात नहीं, है जो इस प्रकार के कार्य करने हेतु कार्यक्षेत्रों में जाते हैं इत्यादि I किन्तु जब इन लोगों के कार्य प्रस्तुति की बात होती है तो, इन लोगों के विषय में कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। .. आप कदापि इन लोगों को नहीं देखेंगे उसी समानांतर स्तर पर जहाँ मानव संस्था व्याप्त है I”
महाध्यापक दिलीप चक्रबोर्ती, समझाते हैं, कि किस प्रकार पश्चिमियों ने भारतीय उच्छिष्टवर्ग की पूरी पीढ़ी को उगाया और क्रय कर लिया, और किस प्रकार वर्तमान में ये अक्षरेखा कार्य करती है: [८८] I
“…..स्वतंत्रता पश्चात्…… [भारतीय]—-विशेषकर जो “प्रतिष्ठित” परिवारों से थे—-वे इतिहास-अध्यन के विषय को अब अपनी शैक्षिक आजीविका के लिए…..लेने में शंकावान थे….मुख्यधारा में सम्मिलित होने के लिए, इतिहासकार कई कार्य करने के लिए तत्पर थे: दिन के शासन करनेवाले राजनैतिक दर्शन शास्त्र को प्रतिपादित करना, चाटुकारिता की कला सर्वोत्कृष्टता के समीप कर देना या अधिकारीवर्गों से, सेना से, राजनीति से और व्यापार से अपने संबंधों को घनिष्ट करना। यदि कोई पहले से ही इन उच्च वर्गों में व्याप्त है जन्म के कारण, तो वह तो सर्वोतम था I इस उद्योग में वास्तविक सफलता के लिए, कई पुरस्कार थे, उनमें से सर्वोच्च सरल ‘विदेशी‘ छात्रवृत्ति/अधिसदस्यता , वृत्ति इत्यादि ना मात्र उनके ही लिए बल्कि उनके आश्रित एवं वंश के भी लिए I दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञ केंद्रों के उत्थान के कारण, दक्षिण एशियाई सामाजिक विज्ञानं के क्षेत्र में ‘विदेशी महाविद्यालयों में, कोई आभाव नहीं था ऐसे लोगों का जिनके समीप विभिन्न शैक्षिक या अशैक्षिक रूचि थी दक्षिण एशियाई इतिहास में उन स्थानों पर भी, और उनमें से जो जितना ही अधिक चतुर एवं सफल होगा वो शीघ्र ही, निहित संरक्षक-ग्राहक वाला सम्बन्ध विकसित कर लेगा अपने भारतीय प्रतिरूप से, न्यूनातिन्यून प्रमुख भारतीय महाविद्यालयों में और अन्य शिक्षा के केंद्रों में I कई स्थिति में विदेशी संघों की, ‘संसथाएं‘ या ‘सभ्यता केंन्द्रों‘ को भारतीय महानगरों में स्वयं ही स्थापित किया गया, जिसने कई बृहत भारतीय समूह को आकर्षित किया, जो ढूँढ रहे थे वृति या अधिसदस्यता, समारोह में जाने का आमंत्रण पत्र या मात्र निःशुल्क मदिरा ही, अल्पावधि के लिए।“
हम मूल निवासी भेदिया नहीं हैं अब!
अतएव, कुछ विशेष प्रकार के भारतीय जिनसे रिसा-वादी अत्यंत ही असुविधाजनक अनुभव करते हैं व्यवहार करने में, वो हैं, जो पहले से ही, ऐसे लोगों की उपासना करने में संभवतः रूचि नहीं रखते, या ऐसे लोगों को सरलता से छला नहीं जा सकता है I कोई भी भारतीय जो सफलतापूर्वक इन पश्चिमियों से अपने अधिकार-क्षेत्र में व्यवहार कर चूका है, उसको अवश्य ही अधिक परिज्ञान हो चूका होता है, पश्चिमी मानस का, उसकी शक्ति एवं उसकी निर्बलता का, और वह अत्यंत ही आत्म विश्वासी भी हो जाता है I विद्द्वान इनका ना तो शोषण कर सकते हैं “मूल निवासी भेदिया ” कह कर, और ना ही, इनको आश्रय दे सकते हैं, उस समानरूप सा जैसे वे एन.आर.आई अल्पायु छात्रों को देते हैं जो अच्छे अंक पाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं I निश्चित ही, कोई भी इस प्रकार का भारतीय, बाध्य हो जाता है इनको चुनौती देने के लिए, अपेक्षाकृत उनकी दी हुई छात्रवृत्ति को अमुख रूप से स्वीकार करने के, और संभवतः निपूर्ण होते हैं मोल तोल करने के लिए I
यूरोप-केन्द्रिक उत्कृष्टता का मनोग्रंथ, अत्यंत प्रबल ,है कई आक्रमणशील रीसा सदस्यों में, ये एक प्रतिक्रिया है और फ्रूड की आवरण है उनकी अत्यंत गहरी-जड़वत् हीनभावना के मनोग्रन्थ एवं असुरक्षाओं पर I जैसा की कई ईस्ट इंडिया कंपनी अधिकारी, जो भारत में नियुक्त थे कार्य के लिए, वे निम्न वर्गीय अँगरेज़ माने जाते थे, प्रायः निर्धन एवं अर्ध-शिक्षित पृष्टभूमि से, जो अचानक ही स्वयं को, भारत में प्रवेश करने के पश्चात्, धनवान एवं शक्तिशाली शासक रूप में रूपांतर कर लिए, कई रीसा विद्द्वान अपेक्षाकृत दरिद्र माने जाते हैं मुख्यधारा पश्चिमी समाज में, और इसके अतिरिक्त भी वे भारतियों पर अपने कल्पित प्रभुत्व से, अपना स्वामित्व स्थापित करते हैं I
ये उनके निजी पृष्टभूमि से सम्बंधित है I अपने जीवन के पूर्वकालीन समय में जब वे हिप्पी-जैसे घुमंतू हुआ करते थे, “स्वयं को ढूँढने” के लिए, कई लोग सफलतापूर्वक “कुछ बन गए” जब उनका पालन-पोषण विभिन्न प्रकार के इंडिक-परम्पराओं द्वारा हुआ I परिणामस्वरुप, इसका आगमन शैक्षिक मार्ग से होने लगा, और अंततः एक उच्च श्रेणी का विद्द्वान उत्पन्न होने लगा जो की धौंस ज़माने लगा उसी परंपरा पर जिसने उसका भरण-पोषण किया और उसको वो बनाया जो वो वर्तमान में है I किंचित ही ऐसे विद्द्वान हैं जिनके समीप वैकल्पिक कौशल है, जिसका वे आश्रय ले सकते हैं, पश्चिमी जीविका के व्यवसाय क्षेत्र में I अतएव, ये बोधगम्य है कि, उनका विस्तृत अहंकार लटका रहे इंडिक परम्पराओं से उनकी सम्पन्ति बनकर I
इसी समय, पश्चिमी शैक्षिक संस्था में, जितना ही विशेषज्ञ कोई बनता है, उतना ही उसका अल्प निरीक्षण एवं प्राप्य परिश्रमशील हो जाना स्वाभाविक होता है, क्यूंकि कुछ अन्य अल्प सांखिक हैं जो उसको अतिशय विशेषीकृत क्षेत्र में चुनौती देने में सक्षम हैं I ये उत्पन्न करता है लघु-विशेषज्ञों के कुल को, जिसमें कि प्रत्येक स्वयं अपना जीवन धारण कर लेते हैं I
जब निश्चयात्मक भारतीय उघाड़ता है, तब स्थिति पलट दी जाती है, जैसा कि नीचे दर्शाया गया है:
१. मानविकी शास्त्र के पश्चिमी विद्द्वान कदाचित इस वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाते कि, वो निचले स्तर पर हो सकते हैं स्वयं अपने ही विवेकपूर्ण प्रशिक्षण में, पश्चिमी मापक के अनुसार, उन भारतीय सफलतापूर्वक लोगों की तुलना में, जो उचित-शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं विज्ञानं, यन्त्रशास्त्र, चिकित्सा, अर्थ शास्त्र, प्रबंधन शास्त्र, उद्यमवृत्ति क्षेत्र या अन्य क्षेत्र में जहाँ पर विश्लेषणात्मक कुशलता महत्वपूर्ण है(मैंने चुनौती दी है कुछ हिन्दू धर्म के महाध्यपकों को, अपनी विद्यापीठ के एस.ए.टी की प्रवेश-परीक्षा के प्राप्तांक को मध्यवर्ती भारतीय छात्रों के प्राप्तांक से तुलना करने की, विशेषतः गणित के, ये निर्णय करने के लिए कि क्या उनको इंडिक परमपराओं को अल्प तर्कसंगत दर्शाना चाहिए पश्चिम की तुलना में I मुझे अभी तक इस चुनौती को स्वीकार करने वाला नहीं मिला है I) अतएव, ये व्यापार जो इंडिक परम्पराओं को किसी प्रकार तर्कशून्य या पिछड़ा हुआ अरक्षणीय बताता है, तर्कसंगत भारतियों के सामने, अतिरिक्त इसके की सत्य का विरूपण कर दिया जाय, जैसा कि सचित्र किया गया था, पहले ही इस निबंध में ये व्यंग्यपूर्ण है कि, कुछ विद्द्वान अत्यंत गर्व से अपने “घनिष्ट लेखों” के पीछे छिप जाते हैं, प्रशंसा करने में असफल हैं कि किस प्रकार एक दृण अनुभव सैद्धान्तिक भौतिकशास्त्र में, या सॉफ्टवेयर कम्पाइलर्स लिखने में, या नेटवर्क प्रोटोकॉलस, या जटिल ५०० प्रष्ट के व्यवसाय अनुबन्ध पत्रों के परक्रामण करने में, अत्यंत ही उच्च-क्षमता, अत्यंत उत्तम एवं कठोर परिश्रम सम्मिलित होना अनिवार्य होता है I स्पष्ट रूप से, अत्यधिक लेख जो धार्मिक-अध्यन पर आधारित हैं वे अत्यंत ही दरिद्रता से निर्मित किये गए हैं, शिथिल तर्कपूर्ण और कभी कभी प्रत्यक्ष रूप से तर्कशून्य भी हैं I
२. यूरोप-केन्द्रिक विद्द्वान अभ्यस्त होते हैं भारतीय विद्द्वानों पर बल स्थापित करने के, जो डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने में लीन हैं, या शैक्षिक परिषद में कार्य-नियुक्ति के लिए प्रयास कर रहे हैं, या अपने आपको समारोह में या प्रकाशन परियोजनाओं में उपस्थित होने के लिए उनकी संतुष्टि में लगे हुए हैं, या अपने कार्यकाल के भाग्यशील अनुरोध के इच्छुक हैं I कई भारतीय, अतः पुनः-योजनाबद्ध हो जाते हैं सिपाही की भाँति, जो रीसा-राज में उनकी सेवा करने लग जाते हैं I [८९] तथापि, जब कोई सुदृढ़ होता है, और कोई अपेक्षा, अनुग्रह या कृपा की आवश्यकता नहीं समझता है, जो वे संभवतः अर्पण कर रहे होते हैं, तब यही यूरोप-केन्द्रिक विद्द्वान स्वयं को भीषण रूप से अत्यंत ही अरक्षित एवं शक्तिहीन अनुभव करते हैं I
३. कई भारतीय जिनको इस प्रकार का विद्द्वत समागम मिला है, निरर्थकता प्रकार का, जो इस निबंध में वर्णित है, जो व्यवसायिकरूप से निश्चयात्मक सफल हैं, और जो स्वतंत्र भी हैं परिषद् से, वे मात्र इतने अनभिज्ञ हैं विषय-तत्व से, कि अपने अधिकार-क्षेत्र में भी, वे विद्द्वानों से व्यवहार करने में असक्षम हैं I इसी कारण, वर्ष १९९५ से वर्ष २००० तक, मैंने अपना पूर्ण समय सैकड़ों विद्यामूलक पुस्तकों और मानविकी विषयों के क्षेत्र के विस्तृत लेखों के अध्यन में अर्पण किया I कई विद्द्वानों ने मेरी तुलना में अल्प अध्यन किया है, और अत्यधिक संकीर्ण रूप के ज्ञानी हैं अपने शैक्षिक प्रकाशनों में I वे अधिकतर अपने प्रशासनिक एवं अन्य नित्य-कर्म में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास इतने विस्तृत अध्यन का समय ही नहीं है I ये किसी भी सुविज्ञ, चुनौती देनेवाले के लिए, विशेषकर भयसूचक हो जाता है, इनकी सभ्यता की चेतना एवं व्यक्तिगत उत्कृष्टता के लिए I
उपरोक्त वर्णित तृतीय खण्डों के सम्मिलन से, एक रोचक उलटाव उत्पन्न होता है, परम्परागत सत्ता के ढाँचे का, भारतीय सम्बंधित क्षेत्रों के अध्यन में I (ये अनुरूप है उस पश्चिमी संयुक्त महिलाओं के द्वारा की गयी उलाहना के, जिसमें पुरुषों को प्रायः अतयंत ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है अपने महिला शासक का सम्मान करने में, क्यूंकि पारम्परिक सत्ते का ढाँचा अब पलट गया है I) उन्हें स्नेह होगा इस प्रकार के किसी भी ” भयसूचक” व्यक्ति से मुक्त हो जाने में, जो उनकी त्रुटियों को उजागर करे, जिससे कि वे निश्चिन्त होकर अपने शोषणात्मक छात्रवृत्ति को अबाधित रूप से लागु कर सकें I
हिन्दुओं द्वारा हिन्दू धर्म अध्यन के कथित “अपहरण” करने के विषय में, चलिए अब पुनः परीक्षण करें गेराल्ड लार्सन और उनके दल के क्रोध का I कोई भी प्रयत्न हिन्दुओं द्वारा संस्था की माँग पर, या अपने प्रशासन का पदभार लेने के लिए—-चाहे वो अपने निर्धन लोगों की देख-रेख हो, बिना मदर टरेसा या पश्चिमी आंदोलनों के, या कोई छात्रवृति के लिए परिश्रम करने के लिए, अपने धर्मों के विश्लेषण एवं पुनः-विश्लेषण के लिए जिसका वे चयन करते हैं I यूरोकेन्द्रिक व्यक्ति की संस्था, के नियंत्रण पर, उसको एक आक्रमण के रूप में देखा जाता है, जिसमें सम्मिलित है यूरोकेन्द्रिक व्यक्ति के अनुज्ञापत्र अधिकार उन नूतन-उपनिवेशी को देने का जिसका चयन उसने किया है अपने परिभाषिक, परिस्थिति एवं पर्यवेक्षण में, जो अन्तः यूरोकेन्द्रिक लोगों द्वारा ही नियंत्रित किया जाता है I इस प्रकाश में कई भारतीय नूतन-उपनिवेशी विद्द्वानों के, इस विचित्र आचरण का मनोविश्लेषण करना होगा।
मैं शीघ्र ही ये भी कह दूँ कि, मैं व्यक्तिगत रूप से जनता हूँ और कार्य भी करता हूँ, कई पश्चिमी विद्द्वानों के साथ, दोनों स्थानों पर रीसा के भीतर और बाहर, जिन्होंने अपने आपको यूरोकेन्द्रिक होने से दूर कर लिया है, और जो, वास्तव में, अपने मार्ग से हटकर नूतन-उपनिवेशी लोगों की सहायता की है उनकी परंपरा और ज्ञान को पुनः निर्माण करने में I स्पष्ट रूप से, ये लोग सत्ता खेल के तृतीय चक्र से कार्य नहीं कर रहे हैं, किन्तु मध्य के चक्रों से सम्बंधित हैं I ये अत्यंत ही सहायक चिन्ह है, जिसको प्रोत्साहन देना चाहिए I
पूर्वगामी के कारण, यदि हिन्दू निवेदन पत्र भेजते हैं, मनोविश्लेषण करते हैं पश्चिमी विद्द्वानों के अपने व्यक्तिगत विजातीय जीवन को विखण्डित करने के लिए — जिसमें जंगली सम्भोग, विजातीय “भ्रमण” और घटनाक्रम, विभिन्न रोग लक्षण विद्यायें, सत्ता का खेल, यू -टर्न को/से भारत सम्मिलित है—-प्रयाप्त है बॉलीवुड धारावाहिक बनाने के लिए, इसको आरोपित किया जाता है “आक्रमण” के रूप में उच्च पुजारी/पुजारिन पर I मुझ पर प्रायः आक्रमण होते हैं अपनी स्वतंत्रता के व्यायाम, के मनोविश्लेषण को करने के लिए, जो मैं कुछ विशेष प्रकार के छात्रवृति का वर्णन वेंडिस चाइल्ड सिंड्रोम नाम से कर चुका हूँ I
दोहरे मापदंड:
जैसा कि कई अच्छी संस्थाएं करती हैं, तो क्या ये शैक्षिक परिषद् भी, नियमित रूप से अपनी कार्यविधियों की शव-परीक्षा करती है? मानव जाति विज्ञान संबंधी अध्यन के लिए क्या इन विद्द्वानों के कुल को ही, मानवविज्ञानी की दृष्टि से देखना होगा? क्या इन लोगों को हिन्दुओं को अमंत्रित करना चाहिए विद्ववानों के कार्य की आलोचना करने के लिए, अपेक्षाकृत की उनको बाहर निर्वासित करके उनको भद्दे नामों से पुकार के निदित करना चाहिए?
प्रत्येक जन्मजात संस्था प्रतिरक्षा करती है अपनी अखंडता का, उसकी तथा कथित ‘स्वतंत्र’ समीक्षा को उद्धृत करते हुए I किन्तु आदर्श परिभाषा ‘स्वतन्त्र’ होने की, जो व्यवसाय और नियमावली में उपयोगी है, वो रीसा के विद्द्वानों को योग्यता का प्रमाण देने में असफल होगी, और वास्तविक रूप से ‘स्वतंत्र’ नहीं मानी जाएगी, जैसा की वर्णित है, आरोपित परंपरा का बहिष्कृत करना, एवं फुसफुसाहट सर्किट का व्याप्त होना। वो आलोचना न्यायसंगत नहीं होती है, जो आलोचक के नियंत्रण से और अनुज्ञापित द्वारा की जाए I अतएव, क्या ‘बाहरी’ आलोचना को मौन करवा देना रीसा की अखंडता एवं विश्वसनीयता के लिए भयावना नहीं है?
जब अन्य सर्वत्र वाद-विवाद असफल हो जाते हैं स्वतंत्र आलोचनाओं के मौन के, तब उन पर आक्रमण होता है व्यक्तिगत रूप से उनको “समाजद्रोही” तत्व बता कर I ये पूर्ण रूप से अनियन्त्रित शासन करने जैसा है, रीसा सहचरों के द्वारा, बिना किसी मुख्य विश्लेषण के ही I
विद्द्वानों को अवश्य ही एकजुट होकर चुनौती देना चाहिए अपने संगि को, जब वे अनिवार्य कर देते हैं सभी इंटरनेट वार्तालाप सूची को इस प्रकार से, मनो वे एक सामान हों, या तब, जब वे अनिवार्य कर देते हैं प्रसार को कुछ सरलतम उपेक्षापूर्ण विशेषण द्वारा Iवचनबद् ध होकर, इन जैसे शब्दाडम्बर, एवं अधमता पूर्वक अन्वेषण का,—कि जैसे, किसी चस्के की अति कर देना “कट्टरवादी” या “राष्ट्रीयतावादी”, आलोचना के छाप से घोषित करके कई अन्य मूलतत्त्वों में से—वे अपकीर्ति लाते हैं रीसा के ध्वज तले, जहाँ वे कार्य करते हैं I
साथ ही साथ, सक्रियतावाद जो विरोध करता है, विद्द्वानों के पदों का, उसको अपराधित किया जाता है अवैज्ञानिक बता कर, और इसके पश्च्यात भी रीसा का इंटरनेट लेखागार प्रचुर मात्रा में लिखित प्रमाण देता है नियमित सक्रियतावाद का, उन्ही समानरूपी विद्द्वाओं के अपने व्यक्तिगत प्रिय अभिप्राय के लिए I
रीसा को मेरा प्रस्ताव
मैं वही प्रस्ताव रीसा को देना चाहता हूँ, जैसा कृपाल ने हिन्दुओं को दिया था, जब उन्होंने लिखा था: [९०]
“मैं इच्छुक हूँ, विघटन करने के लिए, इन समस्याओं का, एक मित्र एवं निष्कपट पुन्य आत्मा बनकर, जो की अत्यंत ही निष्ठावान होगी शैक्षिक स्तर-मान के स्वतंत्र सर्वेक्षण एवं बुद्धिजीवी सच्चाई के लिए और अनुभूत की आवश्यकतायें उन महत्त्वपूर्ण हिन्दू समझ के खण्डों के लिए, जिनके धार्मिक संवेदनशीलता के मार्मिक कष्टों से मैं पूर्णतः परिचित हूँ I”
प्रतिस्थानिक “विचारधाराओं और पूर्वधारणाओं” के स्थान पर “धार्मिक संवेदनशीलताओं,” और “रीसा” के स्थान पर “हिन्दू,” तत्पश्च्यात आपके समीप होगा मेरा निष्पक्ष प्रस्ताव का प्रतिरूप I
कृपाल पश्चाताप प्रकट करते हैं यदि उन्होंने ८०० से भी अधिक असंख्य हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचायी है, इसको एक आनुशंगिक आघात समझ कर I उसी रीति से, मैं भी विचार करता हूँ १०० से भी अल्प विद्द्वानों की भावनाओं के क्षति होने का जो वेंडी के शक्तिशाली संघ से संबंधित हैं एक दुर्भाग्य दुष्प्रभाव समान, जो इस अंतर-संस्कृति संतुलन एवं सामंजस्य के अन्वेषण से हुई I मुख्य अंतर ये है कि, कृपाल की अपेक्षा, मैं दलों के मध्य सौष्ठव का प्रेषक हूँ एक सच्चे संवाद की पुन्य आत्मा समान I
दूसरी ओर, यदि रीसा निरंतर युद्ध करना प्रचलित रखेगी, प्रत्येक प्रयत्न पर, संवाद के, जो प्रारम्भ किये जायेंगे इंडिक परंपरा के अभ्यासकर्ताओं द्वारा, विशेष्कर वे, जो अपनी ओर से प्रारंभिक नहीं होंगे, तब उसको स्वामी त्यागनन्द के लेखों को ज्ञात कर लेना चाहिए:
“यदि आधुनिक विद्द्वान अनदेखा करेंगे मैला प्रलेखन एवं स्वयं-परोसा हुआ अनुवाद अपनी थीसिस के समर्थन में, तब वर्तमान में छात्रवृति का, भविष्य मुझे निराशाजनक प्रतीत होता है।” [९१]
भारतियों को संस्था का नकार, जो शैक्षिक क्षेत्र के नियंत्रण से बहार के हैं, और निरंतर होनेवाले निरीक्षण जो छिपाने के लिए किये जाते हैं, प्रश्नात्मक प्रथा को, जिसमें सम्मिलित है संभावित शैक्षिक उल्लंघन, एवं सामाजिक और व्यक्तिगत उल्लंघन आचारनीति का, विपरीततया, कुछ विद्द्वानों द्वारा जिन्होंने मानव-अधिकार के सक्रियवादी का मुखौटा पहना है I कई सामाजिक-नैतिक आशय हैं अमेरिकी अल्पसंख्य प्रतिष्ठा के सन्दर्भ में, उनको लज्जित करने के लिए, उनकी सभ्यता के सन्दर्भ में I
प्रत्येक विद्द्वान के अधिकारओं को, उसके सभ्यता एवं समाज के चित्रण के विरुद्ध, अवश्य संतुलित रखना चाहिए, विशेषकर उन अल्पसंख्य जो प्रायः अभित्रास का समाना करते हैं I विद्वानों को आलोचना करनी चाहिए किन्तु किसी और के धर्म की अन्य परिभाषा नहीं करना चाहिए I
Translator: Vandana Mishra.
Original Article: RISA Lila – 1: Wendy’s Child Syndrome
URL: https://rajivmalhotra.com/library/articles/risa-lila-1-wendys-child-syndrome/