Translation Credits: Vandana Mishra.
ये विस्तृत रूप से ज्ञात नहीं है कि, यूरोपियों की इच्छा, संस्कृत के पुरातन आध्यात्मिक ग्रंथों के श्रेष्ठ मूल्यवान ग्रन्थालय के विनियोजन कार्य ने प्रेरित किया “आर्यन” कुल की व्यष्टिव के निर्माण को, जो नज़िस्म के विचारधारा का मूल आधार बना I संस्कृत शब्द “आर्य” एक विशेषण है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ या कुलीन। उदहारण के लिए, बहुप्रसिद्ध बौद्ध धर्म के ४ श्रेष्ठ सत्य को, ४ आर्य सत्य या चत्वारि आर्यसत्यानी संस्कृत भाषा में कहा जाता है I आर्य किसी कुल की ओर संकेत नहीं करता, बल्कि एक सांस्कारिक गुण जो पूजनीय है संस्कृत लेखों में I
जर्मनी के राष्ट्रीयता ने इस शब्द को एक संज्ञा, “आर्यन” में परिवर्तित कर दिया, और बड़े अक्षरों में छाप कर इसको एक काल्पनिक लोगों के कुल की ओर संकेत किया जो पूर्वकालीन वास्तविक संस्कृत भाषी थे और जिन्होंने इसके महान ग्रन्थ रचे थे I पूर्वकालीन प्रेम प्रसंगयुक्त अध्यर्थन के अनुसार, भारतीय यूरोपियों के पूर्वज थे और क्रमशः उसको परिवर्तित कर दिया नूतन मिथ्या से कि, कोई एक कुल था जिसका नाम “इंडो-आर्यन” था वे हम सबके सामूहिक पूर्वज थे I उनका स्रोत माना जाता था काकेशस पर्वत, अतः एक परिभाषित शब्द उत्पन्न हुआ “कोकेशियान”. तत्पश्चात, “इंडो” शब्द का लोप कर दिया गया और गोरे आर्यन कुल वंश, के सिद्धांत प्रकट हुए I अतः, यूरोपीयों की इच्छा, जो स्वयं को संस्कृत सभ्यता के उत्तराधिकारी के रूप में देखने की थी, उसने यूरोपी श्रेष्ठ कुल वंश के हैं, इस धारणा को जन्म दिया, जिसमें जर्मनी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति के रूप में स्थापित हुआ I
यह कैसे उत्पन्न हुआ? १७०० शताब्दी के अंत में, यूरोपियों के व्यष्टित्व विचलित हो उठे ये आविष्कृत होने के पश्चात् कि, संस्कृत भाषा यूरोपी भाषाओँ से सम्बंधित है, यद्द्यपि वह उनकी भाषाओँ की तुलना में अत्यंत पुरातन एवं अत्यंत ही सुविज्ञ थी I सर्वप्रथम, इस शोध ने यूरोपियों के प्रेम प्रसंगयुक्त कल्पनाओं का पोषण किया, जिसमें भारत को गौरान्वित किया गया एक परिपूर्ण अतीत की भाँती। हर्डर, एक जर्मनी के प्रेम प्रसंगयुक्तकार, ने यूरोप के भारत “अन्वेषण” को, अपने ही एक “पुनःअन्वेषण” की भाँती देखा I भारत को यूरोप की मातृ-सभ्यता के रूप में देखा गया फ्रेडेरिक स्च्लेगेल द्वारा जर्मनी में और वोल्टेयर द्वारा फ्रांस में I विलियम जोंस, एक अंग्रेजी उपनिवेशक शासक, ने संस्कृत को मानव बुद्धि की सर्वश्रेष्ठ अद्भुत उपज माना I संस्कृत और भारत-विद्या ने कई अत्यंत प्रमुख यूरोपी विश्वविद्यालयों में प्रवेश किया १८०० से १८५० शताब्दी के मध्य में, चुनौती देते हुए, यदि ना पलटते हुए लैटिन और ग्रीक प्रसंगों को, “नूतन” विचारों के स्रोत की भाँती I कई नूतन शास्त्रों की आकृतियों को परिवर्तित किया गया आगामी बुद्धिजीवी गतिविधियों द्वारा, जिसमें भाषा शास्त्र, तुलनात्मक धर्म अध्ययन, नूतन दर्शन शास्त्र और समाज शास्त्र भी सम्मिलित हैं I यूरोपी देश आपसे में स्पर्धा करने में तल्लीन थे सभ्यता की पैतृक संपत्ति को प्राप्त करने के लिए, कई प्रतिद्वंद्वी सिद्धांत उत्पन्न हुए संस्कृत के वास्तविक वक्ताओं और उनकी सभ्यताओं के स्रोतों के सन्दर्भ में I जर्मनी निवासियों ने, संस्कृत भाषा एवं जर्मन भाषा के मध्य जो बन्धुत्व पाया उसमें संभवतः एक नूतन सम्मानजनक वंशावली प्रतिरूप फ्रांस से पाया, और इसी कारण, संस्कृत साहित्य के गुप्त कोशों को अपनी धरोहर, घोषित किया, अपने लक्ष्य की पूर्ती के लिए I अंग्रेज़ों ने भारत और संस्कृत का विश्लेषण इस प्रकार किया जिससे कि, वह उनके अपने साम्राजय-निर्माता की भूमिका को शक्तिशाली करे, साथ ही भारत को रत्न मणि की भाँती उनके मुकुट में शोभायमान करे I चूँकि भारतीय यूरोपी जनसभा में भाग नहीं लेते थे, इस कारण विस्तृत रूप से भारतीय लेखों की साहित्यिक चोरी होती थी, और अत्यंत अत्यधिक विकृत विश्लेषण भी होते थे I
आर्यन “बनने” के पश्चात् यूरोपी ये विचार करने लगे कि, वे ही उचित रक्षक हैं बृहत संस्कृत ग्रंथसंग्रह के, जो उत्पन्न कर रहे थे नूतन महत्वपूर्ण शोध मानविकी शास्त्र एवं उदार कला क्षेत्रों में। जर्मन वासियों ने अपने नूतन अंगीकृत आर्यन व्यष्टित्व को चरमसीमा तक पहुँचाया, और लगभग उस समय के सभी प्रभावशाली यूरोपी विचारक साँठ-गाँठ कर चुके थे I उनके कुल-वंश के सिद्धांत प्रायः यहुदी विरोधी भावनाओं के होते थे, और वे बाइबल का पुनःनिर्माण आर्यन परिभाषों में करने का प्रयास कर रहे थे I अर्नेस्ट रेनन, एक भाषाशास्त्री और हीबरीव विद्द्वान ने, यहूदी-विरोधी और आर्यन भाषाओं और लोगों के मध्य में अत्यंत तीव्रता से विशिष्टता बताई I उन्होंने प्रस्तावित किया कि, यद्द्यपि प्रारंभिक आर्यन बहुदेववादी थे किन्तु तत्पश्चात वे रूपांतरित हुए ईसाई एकेश्वरवादी में, और यहूदी-विरोधी समुदाय ने समाविष्ट किया पूर्णतया एक भिन्न (निम्न वर्गीय) सभ्यता को I अडोल्फ पिक्टेट, एक स्विस भाषाविद् एवं नृवंशविज्ञानशास्री, पूर्ण रूप से निष्ठावान थे यूरोपी आर्यन की धारणा को लेकर, जिसके अनुसार वे लोग पूर्वनिर्दिष्ट थे विश्व विजयी होने के, उस विश्व जो “अंतर्जात सौंदर्य” और “अज्ञानता के उपहारों” से भाग्यवान है I उन्होंने जीसस को यहूदी धर्म से पृथक किया, और उनको आर्यन जीसस(क्राइस्ट) में रूपंतात्रित किया I
उदीयमान शास्त्र जिसका नाम “कुल वंश विज्ञानं” था उसको इन विचारों द्वारा प्रबलित किया गया । जोसफ आर्थर कोम्टे डे गोबिनौ, फ्रांसी नीतिज्ञ, दर्शन शास्त्री एवं इतिहासकार ने अपने बहुतायत प्रभावशाली निबंध में मानव कुल वंश की असमानता पर वाद-विवाद किया, और कहा कि, बाइबल का एडम “हमारी गोरी प्रजाति का आरंभक” था I उन्होंने लिखा है “गोरे प्रकार की श्रेष्ठता और उसी के अंतर्गत आर्यन परिवार की भी I” उनकी भारत पर लिखी थिसिस घोषणा करती है कि, गोरे आर्यन ने भारत पर आक्रमण किया और क्रमशः देशीय जनसँख्या से विवाह करने लगे I परस्परविवाह विवाह के संकट को ध्यान में रखते हुए, आर्यन विधि-निर्माताओं ने कास्ट प्रणाली का शोध किया अपने आत्म – परिरक्षण के लिए I भारत को एक उद्धरण के रूप में माना गया कि, कैसे निंम्न कुल वंश के साथ संकरण से उच्च वर्गीय कुल वंश का पतन होता है I हिटलर के, आर्यन “शुद्धिकरण” के विचार, इसी से जन्में, और यहूदियों के सर्वनाश की पराकाष्ठा तक पहुँचे।
हॉस्टन चेम्बर्लेन, एक अँगरेज़ इतिहासकार थे, जिनकी प्रधान कृति, फाउंडेशन ऑफ़ १९ थ सेन्चुरी (१९ वीं शताब्दी की नीव) (जर्मन भाषा में लिखी पुस्तक), ने भी सर्वाधिक विकसित आर्यन कुल वंशों में से, आर्यन-जर्मन कुल वंश को ही सर्वश्रेष्ठ दर्शाया I उन्होंने ईसाईयों को, वैज्ञानिक और दार्शनिक तर्कों से अपनी विश्वसनीयता प्रदान करने का अनुरोध किया और समझाया कि, किस प्रकार ईसाई धर्म लाभ उठा सकते हैं जर्मन वासियों के इस कुल वंश के सिद्धांत का समर्थन करके I गोबिनौ और चेम्बर्लेन के कथन का संक्षिप्त वर्णन करते हुए, नृविज्ञानी, केनेथ केन्नेडी कहते हैं कि, उन लोगों ने “आर्यन सिद्धांत का रूपांतर किया, जिसका स्रोत था भाषाविज्ञान शोध में, जो कि, कलकत्ता में जोंस द्वारा किया गया था १८ वीं शताब्दी के अंत में, अडोल्फ हिटलर्स थर्ड रिच (अडोल्फ हिटलर की तीसरा जर्मन राज्य) के राजनैतिक और कुल वंशीय सिद्धांतों में। “
२००७ में, मैंने एक ऐतिहासिक मील-पत्थर की भूमिका का अभिनय किया, जब मुझे हिन्दू-यहूदी शीर्ष सम्मेलन में आने का निमंत्रण दिया गया. मैंने आर्यन मिथ्या पर बोला और उसके द्वारा थोपी गयी पीड़ा, जो दोनों धर्मों के लोगों ने सहा I किंचित हिन्दुओं की पूर्व आशंका के विपरीत कि, यह एक “संकटमय” विषय होगा सबके सामने प्रस्तुत करने के लिए, यहूदी शिष्टमंडल के प्रधान, रब्बी रोसेन, जो इसराइल आयोग के मुख्याधिकारी रब्बीनेट(यहूदी धर्मगुरु) के सदस्य थे, अंतर्-धार्मिक वार्तालाप के लिए, वे अत्यंत ही प्रभावित हुए I यहूदी आयोग, ने निर्णय किया एक विद्द्वानों के दल की नियुक्ति का, जो इन विषयों पर अध्ययन करे और उन सन्दर्भों पर भी अध्ययन करे जो मैंने प्रदान किये थे I परिणामस्वरूप, आगामी वर्ष के सम्मेलन में, एक संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया गया, जिसमें मेरी भाषा से निम्नलिखित प्रालेख सम्मिलित थे :
“चूँकि कोई भी निर्णयात्मक प्रमाण व्याप्त नहीं हैं आर्यन आक्रमण/ प्रवासन के सिद्धांत के समर्थन में, और बल्कि इसके विपरीत, अप्रतिरोध्य प्रमाण व्याप्त हैं इसको खण्डन करने के लिए; और चूँकि ये सिद्धांत गंभीर रूप से हिन्दू परम्पराओं की एकता को हानि पहुंचाते हैं और उसके भारत से सम्बन्ध को भी; इस कारण हम इस सिद्धांत के गंभीर पुनर्विचार की आवश्यकता समझते हैं, और सर्वत्र शिक्षण वस्तुओं का इस विषय से सम्बंधित वर्तमान में अत्यंत नूतन विश्वासनीय छात्रवृति का पुनः दर्शन करेंगे।” वर्तमान में, आर्यन कुल वंश की धारणा को शब्दकोश एवं सामाजिक चित्त से लोप करने के लिए पश्चिमी मुख्यधारा ने विशेष प्रयास किया है। तथापि, जैसे कि, मेरी नूतनकलीन प्रकाशित पुस्तक, ब्रेकिंग इंडिया (भारत विखंडन), व्याख्या करती है कि, इस हानि ने भारत में और भी निकृष्टतर कार्य किया है I द्रविड़ियन कुल वंश सिद्धांत अंग्रेज़ ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा निर्माण किया गया था १८०० शताब्दी में आर्यन सिद्धांत के साथ साथ, और ये भारत के लोगों का विभाजन करती है कुल वंश के वर्गों के आधार पर जैसे “आर्यन” और “द्रविड़ियन” I पश्चिमी विद्द्वान और संस्थाएं निरंतर और लगातार इस द्रविड़ियन कुल वंश का समर्थन कर रही हैं, जो की निर्भर करता है आर्यन कुल वंश की स्थापना पर I भविष्य ब्लॉग में मैं समझाऊंगा कि, कैसे ईसाई धर्म प्रचारक इस भयानक स्थापना द्वारा शोषण कर रहे हैं I