पश्चिमी सर्वभौमिकता को चुनौती

भारतीय महागाथा

Translation Credits: Vandana Mishra.

मेरी पुस्तक बीइंग डिफरेंट, ऐन इंडियन चैलेंज टू वेस्टर्न यूनिवर्सलिज़म (हार्पर कॉलिंस, २०११) का मुख्य उदेश्य है, पश्चिमियों के सार्वभौमिकता के दृण कथन का विखंडन करना I इन दृण कथनों के अनुसार, पश्चिम इस विश्व के इतिहास के संचालक भी हैं और अन्तिम, एषणीय गंतव्य स्थान भी है I पश्चिमी अनुमानतः प्रदान करता है आदर्श रूपदा जिसके अनुसार सर्वत्र सभ्यताएं और संस्कारों को विकृत, छँटाई, कटाई या पुनः समनुरूप बनाना होगा उसे समिल्लित होने के लिए, या तो उनको निष्काषित कर दिया जायेगा या तो उनको किसी भी माध्यम द्वारा सीमान्तर कर दिया जायेगा I निःसंदेह, सार्वभौमिकता पश्चिमी, चीनी या फ्रांसी या कोई अन्य नहीं हो सकती है. वो वास्तव में सर्वभौमिक्ता होगी ही नहीं बल्कि मात्र एक विशेष सभ्यता का दृष्टिकोण और इस विश्व का जीवंत अनुभव होगा I ये मुहावरा “पश्चिमी सर्वभौमिक्ता” एक विरोधालंकार है और मैं इसका उपयोग  अक्खड़पंथी मानसिकता को प्रकाशित करने के लिए करता हूँ I अपेक्षाकृत अपनी स्वयं की सभ्यता को अभिन्न रूप में देखना जो की परिणाम है अद्वितीय इतिहास, भूगोल, जल-वायु, मिथ्या, सम्मानजनक साहित्य, रिलिजन, साम्राज्य एवं कई प्रजातीय और विशिष्ट संस्कृति के मध्य के युद्ध जो पृथ्वी  के पूर्वी-पश्चिमी गोलार्ध में हुए थे (वो समूह जो मानवता के २०% से भी अल्प है, और अब क्षीण हो रहा है), वो अनुमान करता है कि, उसकी ज्ञान प्रणाली,  ज्ञानमीमांसा, इतिहास, मिथ्या और रिलिजन को अनिवार्य रूप से विश्व के सभी लोगों के लिए मांपदंड हो!

ये मानसिकता उपेक्षा करती है अद्वितीय वक्र रेखाओं एवं पाठों का जो इन्होंने अन्य सभ्यताओं से सीखा है, जो परिणामस्वरूप उनके अपने ही भूगोल, इतिहास (कई सन्दर्भों में काल-निर्धारन पश्चिमी इतिहास के भी पार है), धार्मिक और आध्यात्मिक परम्परों से प्रभावित हुई है I ये विभिन्न सभ्यताओं के अद्वितीय अनुभव सर्वदा ही अन्तर्निमेय नहीं हैं I इसके पश्चात् भी पश्चिम, इतने निश्चित है कि, विश्व के इतिहास की आकृति और दिशा मात्र पश्चिमी लक्ष्यों की ओर होनी चाहिए — चाहे मुक्‍ति हो या धर्मनिरपेक्ष विकास — इसका झुकाव है अपनी सभ्यताओं के रूप-निदर्शनों को, प्रायः बलपपूर्वक, अन्य सभ्यताओं पर  थोपना I

अतः संचालक की गद्दी पर उत्तम प्रकार से स्थापित होना, अविवादित प्रजातीय केन्द्रिक मूल योजना के साथ, कि, किस प्रकार विश्व को दिखना चाहिए, पश्चिमी सामूहिक अभिमान ने आरम्भ किया सैकड़ों नियोग — धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष (उपनिवेशीकरण), इस पश्चिमीयता को लाने के लिए I जब इस प्रकार के प्रयत्न टकराते हैं विपर्यास व्यतिरेक एवं अन्तर्विरोधी विश्व दृष्टिकोणों से, तो प्रतिक्रियाएं कई कार्यनीतियों में से एक हुई हैं — संस्कृति-संक्रमण, धर्म-परिवर्तन, उपनिवेशीकरण, पृथक्रकरण, तिरस्कार, जातिसंहार एवं स्वायत्तीकरण। सर्वाधिक विषयवस्तु जो अत्यंत महत्वपूर्ण है इस क्रिया में, वो है, पश्चिमी व्यष्टित्व को निरन्तर मानवजाति के व्यवसाय में पतवार बनना होगा, उसका अपना महान कथन और भी शक्तिशाली होगा प्रत्येक समागम से, और शेष विश्व मात्र उसके लिए एक सीमा-प्रदेश होगा उसके अपने क्रीड़ा के प्रत्यक्ष भाग्य के लिए I अन्य की सभ्यताओं के फलों को हड़पना उपयोगी माना जाता है, पश्चिमी ढांचे में उसको बैठाने और संपन्न करना पूर्वनिर्दिष्ट होता है, किन्तु साथ ही सभ्यताओं को उनकी जड़ों से उखाड़ कर उनको अनुपजाऊ बना दिया जाता है, उनकी संसक्ति और उर्वरता को ध्वस्त कर दिया जाता है I अतः जब किसी सभ्यता की एकता का खंडन होता है, और किंचित अंशों का चयन होता है, कदाचित् नवीकरण एवं ठेपी से पश्चिमी वर्गीकरण में दबा कर, वो कार्य व्यवस्थित रूप से निर्वासन और सभ्यता के जातिसंहार के समरूप है I कई अन्य कारण हैं, इस ब्लॉग की सीमाओं के बाहर भी, जिनकी चर्चा मैंने विस्तृत रूप से अपनी पुस्तक में किया है, उन महान कथनों के विषय में जो पश्चिमियों ने कहे हैं अपने पूर्व-प्रतापी स्थान को इस विश्व में औचित्य सिद्ध करने के लिए। दोनों हिब्रूवाद (जुडिओ-ईसाई धरोहर) और यूनानी(ग्रीक धरोहर), अपने द्वैतवाद और द्विगुण मूल्यों पर बल देते हैं, इन दोनों ने पश्चिमी व्यष्टित्व और आधिपत्य को अतयंत महत्वपूर्ण योगदान दिया है I अन्वेषण करना परिभाषा, सुदृढ़ता, व्यष्टित्व की प्रशंसा का और विरासत की, फलस्वररूप थी, प्रतिद्वंद्वी यूरोपी वर्गों और नृजातियताओं के मध्य के टकराव एवं प्रतिस्पर्धा का I पर्यत अपेक्षाकृत नूतनकाल में सभी यूरोपियों को सम्मिलित करके मात्र उनको”पश्चिमी” कहा गया (जहाँ “शेष”, अन्य बन गए), प्रतिस्पर्धा एवं शत्रुता अत्यंत ही तीव्र थी फ्रांस, इटली, जर्मनी इत्यादि के समूहों के मध्य संस्कृति एवं सभ्यता के चिथड़े के लिए I वास्तव में, हेगेल, जर्मनी के एक विचारक और दर्शनशास्त्री थे, जिन्होंने पश्चिमी व्यष्टित्व पर अत्यंत गहरा प्रभाव डाला, ऐसा उन्होंने किया अपने प्रयासों द्वारा, आरम्भ से ही वे जर्मनी की व्यष्टित्व निर्माण में लगे रहे, क्यूंकि फ़्रांस और इटली के आगे पहले चरण में जर्मनीवासी हार चुके थे अपनी एक राष्ट्रवादी व्यष्टित्व निर्माण स्थापित करने में I वे यूरोपी विचार के, एक अत्यंत ही गगनचुंबी आकृति की भाँति उभरे और इतिहास के एक शक्तिशाली और प्रभावशाली दर्शनशास्त्र का निर्माण किया जिसमें सभी सभ्यताओं के भूतकाल, वर्तमानकाल और भविषकाल सम्मिलित थे और उनको दर्शाया गया था एक, पंक्तिरूप ढांचे की भाँती।  हेगेल के अनुसार, एक विश्व प्रेतात्मा (वेलटजीस्ट) है, जो  यात्रा करती है कई चरणों में जब तक वह सर्वोच्च आत्मबोध को प्राप्त नहीं कर लेती है I ये प्रेतात्मा, विकसित होती है निम्न आकृतियों से उच्च आकृतियों में विश्व के राष्ट्रों के रूप में, और अन्य राष्ट्रों को भिन्न स्तरों पर रखते हुए विकास के कई चरणों में। उन्होंने अपनी इस ढाँचे को सार्वभौमिक घोषित किया, और इस प्रकार के सार्वभौमिक ढांचे पर, इतिहास पूर्व से पश्चिमी की ओर गतिमान होता है, जिसमें यूरोप एक उपांतिम है इस सार्वभौमिक इतिहास का I एशिया(पूर्वी क्षेत्र के समीप) स्रोत था, और भारत का अपना, उनके अनुसार, इस विश्व दृश्टिकोण में, “कोई इतिहास” था ही नहीं I हेगेल के अनुसार, मात्र पश्चिम को ही सम्पन्न होने का कारण था अतः पश्चिम अधिकारी रहा संचालक की गद्दी के लिए जैसा कि, उनके अनुसार गॉड की योजना थी, और पश्चिमी ही पूर्वनिर्दिष्ट थे मुख्य आढ़तिया बनने के इस विश्व इतिहास के I

इसी जातिवादी एवं युरोकेन्द्रिक दृष्टिकोण पर आधारित रही हैं अधिकांश पश्चिमी विचारधारायें, जिसके परिणामस्वरूप उपनिवेशीकरण और धर्म परिवर्तन  को न्यायसंगत सिद्ध किया जाता हैI हेगेल के दृष्टिकोण जो चिन्ताजनक हैं भारत के “इतिहास के आभाव” से, वही मूल कारण हैं भारत के भूतकाल पदच्युति का, और वही वर्तमान में भी भारत के प्रति मनोभावों को उत्पन्न करते हैं I हेगेल ने पश्चिमियों को उसकी कल्पित सार्वभौमिकताओं की संकीर्णता तक नेत्रहीन कर दिया और संगठित किया भारत के विषय में अनुचित उपदेशों को I जिस सीमा तक पश्चिमी छात्रवृति प्रभावित हुई है इस इतिहास (जिसमें कई मार्क्ससवाद सम्मिलित हैं और इतिहास के मानवतावादी गणना और इनके आधार पर बने कई विभिन्न दर्शनशास्त्र ) के रेखामय सिद्धांतों से वह अत्यंत ही आश्चर्यजनक है I हेगेल के इतिहास सिद्धांतों ने उदार पश्चिमी प्रभुत्व का मार्ग दिया, जो छिपते हैं उस धारणा के पीछे, जो घोषणा करती है “सार्वभौमिकता” का I ये यूरोपी ज्ञानोदय पूर्वधारणायें अंतःस्थापित हुईं शैक्षिक परिषदों, दर्शनशास्त्रों, सामाजिक सिद्धांतों और यहाँ तक कि, वैज्ञानिक कार्यप्रणालियों में भी I तत्पश्चात, इन प्रभावों ने भारत-विद्या को सूचित किया और वर्तमानकाल तक वे दक्षिण एशियाई अध्ययनों पर, प्रेत बनकर मंडरा रही हैं I

बीइंग डिफरेंट पुस्तक में, मैं चुनौती देता हूँ इसी आत्म-मानक के सर्वव्यापी पश्चिमी लगन को I मैंने स्पष्ट किया है किंचित निर्णायक अंतर् पश्चिमी और भारतीय सभ्यताओं के मध्य में, और मैं इन अंतरों को प्रस्तुत करता हूँ, जिससे कि, एक ही बार में अभिस्वीकार हो जाये अपेक्षाकृत की विलुप्‍त हो जाये, जो की संभवतः नूतन रूप-निदर्शन लाये वर्तमानकाल की समस्याओं के समाधानों के लिए I


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