Translation Credit: Vandana Mishra.
हिस्ट्री के सिद्धांत रेखीय नहीं हैं:
अनियन्त्रित सिद्धांत, कि, सर्वत्र मानव हिस्ट्री को, इस अनुक्रम में अंटना होगा: पुरातन ए मायिक ए काल्पनिक ए तर्कयुक्त ए…., मुख्यधारा यूरोकेन्द्रिक स्तम्भों में से एक है [१५] I यूरोप में घटित घटनाएं इन रेखीय “विकास” में अंटती हुई दिखती है I अतः, ये प्रतिरूप सार्वभौमिक हो गया एक “हिस्ट्री के नियम” में, और सर्वत्र मानवता पर थोप दिया गया I विश्व हिस्ट्री के यूरोकेन्द्रिक वृत्तान्त को बाध्य किया गया है किसी भी प्रकार से, इस झर्झर में अंटने के लिए और जो कुछ भी उसमें नहीं अंटता है वो मात्र मुक्त कर दिया जाता है या क्षमा कर दिया जाता है I कोई भी समरूपता और वैध्यता से घोषणा कर सकता है कि, ये सिद्धांत विक्षेपन के पिछड़ेपन का परिणाम है, विस्तारवादी एवं आक्रमणकारी लोगों द्वारा, जिन्होंने अन्य लोगों के शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक सम्पति का विनियोजन किया। उपनिवेशी लोगों के दृष्टिकोण संभवतः अभिजिति को विकास की भाँति नहीं समझेंगे या कोई प्रधानता का माप नहीं समझेंगे I
“पश्चिमी = प्रगतिवाद/श्रेष्ठ,” और “पश्चिमी-भिन्न = पिछड़े/निम्न”:
धर्मनिरपेक्षता के क्षेत्र में जैसे मानव-शास्त्र, समाज शास्त्र, नारी सम्बन्धी अध्ययन, इत्यादि हैं, इनके दृष्टिकोणों को थाम कर रखा गया है अत्यंत ही सावधानी से, उन विषयों का चयन करके जिनका अध्ययन करना है, और प्रमाणों को छाँनते हुए (ए.के.ए. सत्यों को निरर्थक बताते हुए), परिणामस्वरूप भारतीय सामाजिक कठिनाईओं को पूर्णतः स्वदेशीय सिद्ध करते हुए और उसको भारतीय परम्परों का तत्त्व बताते हुए I
विनियोजन करने के साथ ही साथ उसी समय, सकारात्मक लक्षणों का अपमार्जन करना:
“ये अधिकतर धर्मद्रोही है, शैक्षिक परिषद में, भारतीय शास्त्रों के सकारात्मक योगदानों को सम्मिलित करना विश्व विज्ञानं, प्रौद्योगिकी, कृषि, चिकित्सा, भाषा विज्ञानं, गणित, नगर निर्माण, सामाजिक सिद्धांत; और कई ईसाई धर्म के आकृतियों में [१६], यूरोप की औद्योगिक क्रांति, आधुनिक मनोविज्ञान, नूतन-काल के आंदोलन, पर्यावरण – नारीवाद, और इत्यादि प्रकार के अन्य कई. इन सबको अभिस्वीकार करने से संभवतः ये सभी यूरोकेन्द्रिक सिद्धांतों के “यूरोपी आधुनिकता का आश्चर्य” ढाह जायेंगे I“
इस आधिपत्य को थामा गया है दृणता से सत्ता प्रयोग शैक्षिक परिषदों पर. उदाहरण के लिए, भरी मात्रा में हिन्दुइस्म के शैक्षिक विद्द्वान यहूदी-ईसाई हैं, जबकि, इस विश्व के अन्य बृहत रिलिजन (यहूदी, ईसाई, इस्लाम और बौद्ध) के अधिकांश विद्द्वान उसी धर्म के अंदरूनी होते हैं I कोई भी सभ्यता अपनी संसाधान के प्रबन्धन नियंत्रण और अपने अपने ज्ञान प्रतिनिधित्व प्रणाली, किसी अन्य को संचालन करने की आज्ञा नहीं देती है। साथ ही, हिंदुत्वा आंदोलन, जो की घोषणा करता है, हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का, वो भी मनोग्रहीत है एक मंदिर के निर्माण के राजनीती में, अन्य सभी बुद्धिजीवी मंदिरों को नूतन-उपनिवेशवादी शक्तियों के सहारे। उनके विद्द्वान अधिकतर हिन्दू रूढ़िवादी परम्पराओं से होते हैं, जिनका विश्व युग स्तर पर व्यस्त रहना अल्प योग्य होता है. उनके किंचित “आधुनिक” विद्द्वान अत्यंत ही संकीर्ण दृष्टि के होते हैं जो अधिकतर “आर्यन” सिद्धांत को खंडित करने में ही रूचि रखते हैं I इसके परिणाम स्वरूप, हिन्दुत्वा का समस्त रूप से दृष्टिकोण अत्यंत ही संकीर्ण एवं बौद्धिक रूप से ओछा रूपांतरित हो गया है उनके भारतीय उत्कृष्ट ग्रंथों को उच्च शिक्षा में सम्मिलित करने का लक्ष्य चूक गया, अपने ज्योतिषशास्त्र को द्वार उद्घाटन के अल्पबुद्धि चयन के कारण। मुसलामानों एवं ईसाईयों को प्रत्येक प्रकार की समस्याओं के लिए दोषी सिद्ध करने से हिन्दुइस्म में जो अंदरूनी चिंताजनक विषय हैं उससे पंथातर हो जाना. एक सम्पूर्ण अयोग्यता के विध्वंस का “हिन्दू प्रतिक्रियाओं” का मेरे एक भिन्न निबंध का विषय होगा।
भाग २: भूरी मेमसाहब (गोरी महिला-स्वामिनी)[१७]:
ये भाग दर्शाता है कि, उपनिवेशक-विरोधी चिंतक, स्वयं ही नूतन-उपनिवेशक हैं, क्यूंकि ये वही लोग हैं जो एक यूरोकेन्द्रिक प्रतिनिधित्व ज्ञान और प्रवचन प्रणाली का प्रचार कर रहे हैं I विशेषकर, मैं चर्चा करता हूँ ५ आधुनिक भूरे वर्गों के गोरी मेमसाहब का: (१) इतिहासकार; (२) अंग्रेजी साहित्य के लेखक; (३) भारतीय अमरीकी महाध्यापक और पत्रकार जो दक्षिणी एशियाई हो गए हैं; (४) एन.जी.ओ[१८]; एवं (५) भारत के स्वंत्रता-पश्चात शासक I
यूरोकेन्द्रवाद एवं भारतीय इतिहास:
मेरी प्रथम श्रेणी की नूतन-उपनिवेशक भूरी मेमसाहब हैं, रोमिला थापर और उनके दर्जनों पूर्वी इतिहास के विद्यार्थी, जो प्रायः संरक्षण करैत हैं भारत और/या हिन्दुओं के गढ़ पर हो रहे प्रहार को, जो कई अमरीकी विश्वविद्यालय विभागों में होते रहते हैं, किन्तु उनमें संस्कृत एवं भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों के ज्ञान का अभाव है I वे इस अभाव की पूर्ती अधिक मात्रा में मार्क्सवाद और/या यूरोकेन्द्रिक इतहास लेखन के द्वारा करते हैं, जो प्रायः छलावरण से अधीनस्थ अध्ययन के नाम से किया जाता है. रोनाल्ड इंडेन समझते हैं कि, कैसे उपनिवेशी-पश्चात् भारतीय विद्द्वान इस जाल में पतित हुए:
“बढ़ती हुई व्यष्टित्व राजनीती के कारण , ‘उपनिवेशी-पश्चात्‘ इतिहासकार स्थानान्तरित हो गये हैं कल्पनाशील वर्ग एवं भारत के भूतकाल के राष्ट्रिक एकता से और विभिन्नता की ओर संकेत करना आरम्भ कर रहे हैं, किन्तु कई ऐसे अध्ययन के झुकाव पुनः पुरातन भारत के उपनिवेशीय कल्पनाशीलता को प्राप्त करने का है I यथाक्रम स्त्रियों पर दुर्व्यवहार के प्रतिनिधियाँ (पितृसत्ता), नवोदित-शोषण (बाल श्रमिक), आर्यन अवतरण के परजीवी ब्राह्मण कास्ट द्वारा दमन, कास्ट्स के नाम पर भेद – भाव (अछूत पन), और पूर्वज प्रत्यावर्ती हिन्दुओं के विजयीताओं का बारम्बार दुहराना कि, भारत की पूर्वकालीन छवि को एक अंतरनिहीत रूप से और अद्वितीयता से रूप से पृथक्क एवं उस स्थान को दमनकारी बताना[१९] I”
ये विद्द्वान घृणा करते हैं अपने यूरोकेन्द्रीय वर्गीकरण से, क्यूंकि वह उनकी पदवी के विरुद्ध है जैसा कि वे स्वयं को उपनिवेशी-विरोधी बताते है और अधीनस्थ – समर्थक। इंडेन समझते हैं भारत की पूर्वधारणा के उपनिवेशीय स्रोत के विषय में जो अब सामान्य रूप से भारतीय विद्द्वानों द्वारा सुविकार कर लिए गए हैं I उनकी अत्यंत प्रमुख पुस्तक, जिसमें से निम्नांकित प्रसंगों को उद्धृत किया है, वर्तमान की नूतन-उपनिवेशवाद को समझने के लिए, भारत के प्रत्येक छात्र को उसका अध्ययन अनिवार्य कर देना चाहिए:“
मेरी इच्छा है कि, मैं संभव कर सकूँ ‘पुरातं‘ भारत के अध्ययन को, जो संभवतः पुनः प्रचलन में लाएं उन संस्थाओं को जो उन [यूरोकेन्द्रिक] इतिहासों ने उन लोगों से और उन संस्थाओं से नग्नीकृत किया I विद्द्वानों ने ऐसी कल्पना भारत को अनन्तकाल तक पुरातन रखने की किया, कई अर्कों द्वारा उसको श्रेय देते हुए, उनमें से सर्वाधिक विशेषतः कास्ट का श्रेय है [२०] I”
“मैं तर्क प्रस्तुत करूँगा कि, यूरो-अमरीकी स्वयं और भारतीय भिन्न ने सामान्य रूप से अंत:क्रिया नहीं किया एक तत्त्व की भाँति, जो मूलतः समान हो। उन्होंने द्वंद्वात्मकता से एक दुसरे को संघटित किया I एकदा कोई इस के सत्य को समझ ले, तो वह आरम्भ करेगा/करेगी देखना कि, किस प्रकार भारत ने भाग लिया है १९ वीं एवं २० वीं शताब्दियों के यूरोपी (एवं अमरीकी) निर्माण में कहीं अधिक ‘हुम सबकी तुलना में छात्रवृति, पत्रकारिता एवं अधिकारी-वर्ग जो सामान्य रूप से आज्ञा देने के इच्छुक होते। उपमहाद्वीप, मात्र एक स्रोत नहीं था उपनिवेशियों के सम्पति का या कोई मंच-बिछौना जिस पर पश्चिमी आखेटक व्याघ्र का वृंत करें, अँगरेज़ व्यापारियों के पुत्र एवं अभिजात वर्ग के व्यक्ति योग्य थे आर्थिक हत्या करने के, या जो अध्यात्मवादी थे वे अपने अन्तरतम आत्मा के अन्वेषण में सक्षम थे (या उसकी बौद्धधर्मी की अनुपस्थिति) I उससे भी अधिक, भारत (और किंचित सीमाओं तक अभी भी) विचारों एवं कर्मों की वास्तु था जिसके साथ इस ‘हुम‘ ने स्वयं को संगठित किया। यूरोपी लेख प्रतीत होते हैं अहम् को पृथक करके भारतीय अन्य से — पश्चिमी विचार की सुगन्ध, प्रयोगात्मक कारण से है भारतीय विचारों की तुलना में जो कि,स्वप्न काल्पनिक है, या पश्चिमी समाज की सुगंध स्वतंत्र (किन्तु स्वार्थी) व्यक्ति की है, जबकि भारतीय की बन्दी करना ( किन्तु सर्वत्र-प्रदान) कास्ट प्रणाली की है I किन्तु क्या ये वास्तव में ऐसा है? अवश्यम्भावी, ये लेख उत्पन्न करते हैं एक विचित्र, उलार पूरकता पश्चिमी अहम के मध्य और भारतीय अन्य में I इसके पश्चात् भी परिणामस्वरूप ये प्रणाली स्वयं को पुनः परिभाषित करने की है. हमने स्वयं के अंशों को मूर्त रूप से अतिशयोक्तिपूर्ण कर दिया है जिससे कि, समानरूप अंश जो हमने धारण किया है वो अपनी एक का दुसरे पर जय कार्य कर सके भारतीय उपमहाद्वीप में I हम अप्रतिबंधित होंगे अन्य सांसारिक कल्पनाओं द्वारा और अबाधित होंगे परम्परों द्वारा, ग्रामीण सामाजिक ढांचों से क्योंकि हमनें उसे जादुई ढंग से भारत में अनुवादित कर लिया है [२१] I”
“१९ वीं शताब्दी के ये यूरोपी काल्पनिक निरंकुश मनघड़न्तों का परिणाम कास्ट को उत्कृष्टता देने के उदेश्य से था, एक ऐसा समाज जो प्रतीक हो एक ही साथ दोनों का बाध्यता एवं अधिकता का, विपक्षी की तुलना में जहाँ पश्चिमी शिष्ट समाज स्वतंत्रता और आधुनिकता से परिपूर्ण है, और एक एकाकी परित्यागी का अपेक्षाकृत एक समाज में व्यक्तिगत रूप से व्याप्त रहना I परिणाम वैसा नहीं था, जैसा की विद्द्वानों ने प्रायः घोषणा की थी कि, भारत ‘जैसा था वैसा ही हैँ I भारत-विद्या अध्ययनकर्ता इच्छुक रहते हैं अपने पश्चिम को उदात्त करने में इस भारतीय अन्य की निंदा करते हुए कि, ये नहीं, तथापि, पूर्ती करके, मात्र इसको उस हिन्दु भूमि में, जो कास्ट एवं फकीरों से भरी हुई है I उनकी साम्राज्य संबंधी योजना थी, जिसने अपरिहार्य किया भारतीय आर्थिक एवं राजनैतिक संस्थाओं के बुद्धि-संबंधी संविधान-खंडन का [२२] I”
“मेरी मुख्या चर्चा, तब, ये है कि, भारतियों का संगठन, भारतियों की क्षमता अपने संसार निर्माण की, और उस ज्ञान को विस्थापित कर दिया है अन्य संगठनों में I इस ज्ञान के निर्माणकर्ताओं ने, पहली अवस्था में ही, विस्थापित कर दिया भारतीय संगठनों को एक या उससे अधिक ‘सुगंधों‘ में, और दूतीय अवस्था में स्वयं पर I वो सुगंध जो उन्होंने कल्पना की है वह कास्ट, भारतीय बुद्धि, दिव्य राजत्व एवं समान रुपी है I यद्दपि कई विद्द्वानों की पीढ़ियों ने इसकी विशेषता एवं इसकी सुगंध के मूल्य को कई प्रकारों से समझाया है, उन्होंने अधिकतर किसी प्रकार से अधिकांश भाग को निम्न माना है, न्यूनातिन्यून इस सन्दर्भ में कि, कैसे भारत ‘पराजित हुआ‘ पश्चिमियों से। चूँकि भारतीय सभ्यता शासित की गयी थी, उन्होंने अनुमान लगाया, इन संदेहात्मक तत्वों द्वारा, जो इन स्रोतों के क्षण से थी कि, उस सभ्यता का स्थान इस विश्व में, कथित है, जैसे कि ये आरम्भ से ही सुनिश्चित था I तत्वों के आभाव जो की पश्चिम का गुण माना जाता है — व्यक्तिगत, राजनैतिक स्वतंत्रता एवं विज्ञानं — भारतियों के तो अपने आप में क्षमता भी नहीं थी इन गुनों के विषय में जानने की। उन्होंने नहीं, तो संभवतः ये निष्कर्ष निकला जा सकता है कि, इस विश्व में तर्कसंगतता से कर्मशील होने की योग्यता होनी चाहिये। यूरोपी विद्द्वानों और उनके जोड़ों ने, उपनिवेशी प्रबंधकों और व्यापारिओं, ने स्वयं ही अनुमान लगा लिया अन्य के इस छिपे हुए तत्व के ज्ञान की सत्ता का और उन पर कर्मशील होने की विद्या का I वे संभवतः अपने लिए और भारतियों, दोनों के लिए कर्मशील हुए I क्या जाने हम विचार करते हों कि, ये अनुशीलन मात्र भारत में ही प्रभाव डाले, हमें ध्यान देना चाहिए कि, पश्चिम की अपनी छवि एक आधुनिकता का प्रतीक बनना , निर्भर करता था, २०० वर्षों तक, इन परिवर्तनशील भारतीय निरूपण पर, पुरातन की अभिव्यक्ति के रूप में [२३] I”
जबकि काले अमीरीकी विद्द्वानों और मूल निवासी अमीरीकी विद्द्वानों ने महत्वपूर्ण विकास किया है चित्रण के पुनर्लेखन में, अपने लोगों के विषय में अमीरीकी पाठ्य पुस्तकों में [२४], भारतीय विद्द्वान अधिकतर निवेश करते रहे मार्क्सवाद और अधीनस्थ्य महान कथात्मक “हिन्दू दमन” में I इस कथा में, पापी ब्राह्मण एक उत्कृष्ट पूंजीपति की भूमिका का अभिनय करता है, जबकि दलित और महिलाएं गतिशील हैं उत्पीड़ित निम्न श्रेणी के के लोग की भूमिका का अभिनय करने में भारतीय उपनिवेशी-पश्चात् विचार ने विस्थापित कर दिया स्वयं को भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों से I अतः, पश्चिमी आधिपत्य की आलोचना करते समय भी, वे अंटके हुए होते हैं पश्चिमी सिद्धांतों के प्रयोग में I चूँकि उपनिवेशी गुणहीन व्यक्ति का अभिनय करते हैं, ये विद्द्वान स्थापित करते हैं उपनिवेशी-पूर्व “वास्तविक भारत” को मुग़ल भारत के काल में I १० वीं से १५ वीं शताब्दी के मुग़ल-पूर्वी इस्लामी लूट को शीघ्रता से चमकीली परत से ढक दिया गया है I कोई भी घटना १० वीं शताब्दी पूर्व इस्लाम की अल्पज्ञता से उपचारित की जाती है, अतिरिक्त इसके की जो कल्पित गया था उदार विदेशियों द्वारा लाया गया भारत में तथा कथित — आर्यन, ग्रीक और अन्य कई I स्वयं-सेवा का अधिसिद् धांत जिसमें इन इतिहासकारों ने निवेश किया है, सरलता से वर्जित करता है संभावनाएं सकारात्मक स्वदेशीय विकासों की [२५] I
इसके अतिरिक्त, राजनैतिक संशोधन के लिए, और उनकी “धर्मनिरपेक्षता” के लिए उनके मूल्यों को ऊँचा रखना होगा, हिन्दुओं के जातिसंहार के उचित-लिखित प्रमाण को दबाया हुआ है I ये एक तीक्ष्ण विरोधाभास है काले-दास्यता से भिन्न है, यहूदीयों का सर्व-नाश और मूल निवासी अमरीकी सर्व नाश मुख्यधारा के विषय हैं और बलपूर्वक अमरीकी विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में व्याप्त हैं[26] I
अतिरिक्त इसके की बलपूर्वक राजनैतिक अशुद्धता से दमन किया जाए, एक निष्पक्ष उपचार पूर्व घटित अतिदुष्ट व्यवहार का संभवतः समर्थन करेगा वर्तमान में भारत के सभी धर्मों को एतिहासिक नरसंघार से दूर, और एक सामूहिक व्यष्टित्व गढ़ेगा भारतीयता की। अन्तोत्गत्वा, वे मुसलामान आक्रमणकरी ही थे जिन्होंने मूल निवासी भारतियों को लूटा था, और वर्तमान के भारतीय मुसलमान उन के ही मूल वंशज हैं और ना कि,आक्रमणकारियों के I भारतीय मुसलामानों के लिए, ये संभवतः अधिक लाभदायक होगा कि, वे भारतीय सभ्यता में जड़वत् रहें, जो की पर्याप्त ग्रहणशील एवं अनुनेय है इस्लामिक विचारों को सम्मिलित करने में आतिथेय के साथ, अपेक्षाकृत स्वयं को अभिनिर्धारित करें फ़ारसी-पलड़े के और /या अरबी-पलड़े के प्रवासी में। नूतनकालीन एक ईरानी विद्द्वान से चर्चा में, मैंने ये ज्ञान प्राप्त किया कि, क्यों ईरान के मुसलमान शिया हैं अपेक्षाकृत सुन्नी मुसलमान होने के, क्यूंकि ईरान के मुसलमान अरबी सभ्यता और व्यष्टित्व को अपनाने के लिए सहमत नहीं हैं I नूतनकालीन, कई ईरानी इस्लामिक विद्द्वानों ने नवीकरण किया अपनी रूचि को ज़ोरास्ट्रीयन एवं इस्लाम-पूर्वी इरानी सभ्यताओं में जिनकी पारिवारिक समानता वैदिक सभ्यता से है जबकि, अरबियों ने इस्लामी – पूर्व के सर्वत्र ज्ञान प्रणाली को आवश्यकता अनुसार नष्ट कर दिया, इरानियों ने परिरक्षित करने का प्रयत्न किया है अपनी इस्लामी पूर्व भाषा और सभ्यता को, और अपनी इस्लामी नयी व्याख्या में उसको समाविष्ट किया है I भारतीय मुसलमान भी सामान रूप प्रचलन आरम्भ कर सकते हैं, जो कि अकबर एवं दर शिकोह द्वारा आरम्भ किया गया था, इस्लाम को भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों में समाविष्ट करने के लिए [२७] I)
जबकि कई विद्द्वान केंद्रित करते रहे भारतीय परम्परों के नकारात्मक रूढ़िवाद पर, वे असफल रहे पर्याप्तरूपेण व्यवहार करने में कई सकारात्मक योगदानों को, विशेषकर वे जो पश्चिमियों द्वारा विनियोजन किये गए [२८] I
अन्य गंभीर अन्तराल जो भारतीय इतिहास लेखन में है, वो है हिन्दू धर्म के संपूर्ण इतिहास ज्ञान का अभाव। ये कार्य संभवतः दर्शायेगा कि, हिन्दू धर्म का विकास और निर्माण एक अत्यंत दीर्घ काल तक गतिमान था, और अभी भी हिमाच्छादित नहीं हुआ है(जैसे की किंचित “सुगंध”) किसी गगनचुम्बी भूतकाल में I इसका महत्त्व वर्तमान काल के हिन्दू धर्म में संभवतः ये होगा कि, कई हिन्दुओं को वर्तमान में चुनौती देना जो उसकी सर्वोत्कृष्टता किसी भूतकाल युग में स्थापित करते हैं I ये अतीत काल का पुन:प्रवर्तन, अपेक्षाकृत अग्रसरित निर्माण के, परिणाम है हिन्दू धर्म की प्रशंसा ना करने का, उसके दीर्घ कालीन परिवर्तन के इतिहास का, प्रगति एवं विकास का उसकी परिस्थितयों की प्रतिक्रियों में I
एक दर्शन शास्त्र जो ऐतिहासिक रूप से विकसित हुआ वो भविष्य में भी प्रगतिशील होने के सक्षम है, जबकि वो जो स्थिर है वो कट्टरपंथी में बंद है I चूँकि धर्म, विशेषकर हिन्दू धर्म, को समझाया गया है एक अप्रयुक्त आवश्यकता के समरूप, कई इतिहासकार ना मात्र इसका सम्मान करने में और इसके मूल-सिद्धांतों को समझने में असफल हैं बल्कि वे निर्भर हैं सामाजिक-राजनैतिक सिद्धांतों पर जिसके अनुसार आधुनिकता संभवतः मानवता के इस अभिशाप का अंत कर देगीI अतः, कई विद्द्वान नूतनकाल में भारत में घटित घटनाओं की व्याख्या करना में असफल रहे और विश्व के अन्य स्थानों में भी असफल रहे जो संबंधित हैं धर्मों के अत्यधिक प्रसिद्धि से I
उदाहरण के लिए, ये सामान्य रूप से उनके द्वारा कहा जाता है कि: (अ) बी.जे.पी सत्ता में हैं; (आ) इसके परिणामस्वररूप दूरदर्शन पर रामायण धारावाहिक दर्शाया गया; (इ) जिसके, परिणामस्वरूप प्रसिद्द हिन्दू भावनाएं ऊंचान लेने लगीं; एवं (ई) इसका समापन अयोध्या, राम मंदिर विवाद में हुआ।
तथापि, ये घटनाक्रम असत्य है, इसका निर्माण सिद्धांतों में इसको बैठने के लिए किया गया है I दूरदर्शन का रामायण, बी.जे.पी के सत्ता में आने से पूर्व आया I इस दूरदर्शन धारावाहिक की अपार सफलता बी.ज.पी के कारण नहीं थी, बल्कि हिन्दुओं के भावनाओं के कारण थी, जो दशकों से दबायी गयी थी एक असत्य धर्मनिरपेक्षता की धारणा के नाम पर I हिन्दू धर्म का यही पुनरुत्थान साधारण जन के स्तर पर बी.जे.पी के उत्थान में सहायक बनी I
अपने अंश के लिए, बि.जे.पी ने राजनैतिक लाभ उठाया इस अवसर का जो कि, बहुचर्चित धर्म के दमन द्वारा निर्माण से उत्पन्न हुआ I (उन्होंने व्यर्थ नष्ट किया इसको पथभ्रष्ट कारणों से, मेरे विचार से, किन्तु वो एक भिन्न कथा है) I बिजेपी का सत्ता में उत्थान, हिन्दू भावनाओं के पुनरुत्थान के कारण नहीं था, बल्कि उसके परिणाम के कारण था I मैंने समान धर्म पुनरूत्थान पूर्वी यूरोप और पूर्वी-यू.एस.एस.आर में देखा था, साम्यवादके ढह जाने के पश्चात्।
रणजीत गुहा के नूतन गुहार जिसमें उन्होंने भारतीय पुराणों को गंभीरता से लेने को कहा है वह एक मार्ग है स्वदेशीय इतिहास की चेतना के संदंशाकार का, वो एक निर्भय और उच्च स्वर में है, और विशेषकर महवत्पूर्ण है क्यूंकि इसका स्रोत अधीनस्थ आंदोलन के संस्थापक द्वारा ही है[२९] I गुहा “धर्मनिरपेक्ष सुधारवादियों,” में से एक जीवंत दिग्गज प्रमाण हैं जिनके व्याख्यान के अंतर्गत भारत के पूर्वी मार्क्ससवादी विचारक वर्तमान में कार्य करते थे I वे लिखते हैं (और अपने चर्चाओं में कहते भी हैं) कि, भारत के इतिहास को गंभीरतापूर्वक लेना होगा उसकी स्वदेशीय इतिहास के बोध का संदंशाकार करने के लिए I
गुहा स्पष्ट करते हैं कि, इतिहास कैसे एक अदुतीय रचना-पद्धति है साहित्य की, जिसको ना तो पश्चिमी शैली कह सकते हैं ना तो मिथ्या ही कह सकते हैं I अपेक्षाकृत के इतिहास मात्र राजा एवं सेना की ही है, वह साधारण जन स्तर पर एक सभ्यता का कोष है I ना ही, इतिहास एक स्थिर आद्यप्ररूपीय मिथ्या है, क्यूंकि दर्शक उसके वर्तमान सन्दर्भों में भाग लेते हैं, उसकी व्याख्या करते हैं और उसको समयानुसार अपनाते रहते हैं I आशा है कि, जैसे लाभकारक स्थिति के प्रभाव इतने महत्वपूर्ण हैं भारतिय इतिहासकारों में, गुहा के प्रतीप मोड़ (यू-टर्न) भी अन्य भारतीय इतिहासकारों द्वारा पुनः विचार करने का प्रोत्साहन देंगे।