Translation Credit: Vandana Mishra.
इतिहास लेखन और राष्ट्र (विभाजन):
इतिहास लेखन दोनों कार्यों के लिए प्रयोग किया गया है, एक राष्ट्र निर्माण, दुतीय राष्ट्र विभाजन I चीन की सर्कार ने विजयी हुई और प्रमुख कार्यक्रमों को विश्वभर में पूँजी दिया अपने चीनी इतिहास को प्रचलित करने के लिए जिसका निर्माण स्वतःपूर्ण एवं द्वीपीय किया है, जिसमें न्यूनतम बाहरी हस्तक्षेप के प्रभाव की चर्चा होगी I ये वृत्तांत आरम्भ होते हैं कन्फूशियन एवं टाव के सिद्धांतों से चीनी विचारों पर आधारित वास्तविक स्तम्भों से I यहाँ तक कि, समकालीन साम्यवादी विचारधार भी कन्फूशियन की ही निरंतरता क्षेणी है का चित्रण है और ना कि चीन में कोई पूर्णतः नूतनकलीन विदेशी स्थानांतरण का रूप I
आधुनिक जर्मनी और जापान भी राष्ट्र-निर्माण के अपनी व्यष्टित्व, इतिहास, सभ्यता एकीकृत वृतांत पर आधारित निर्माण के प्रमुख उदहारण हैं I I यूरोपी संगठन भी, इसी दिशा में इसी प्रकार के एक प्रमुख योजना निर्माण के उदाहरण हैं. ये सर्वत्र उदाहरण हैं आधुनिक बोध में पश्चगामी प्रक्षेपन का सकारात्मक संगतता का I
इतिहास कदापि वस्तुगत सूचना नहीं रहा है, जो किसी समूह के अनुभवाश्रित सत्यों को प्रदर्शित करता हो I ये वर्तमान दिवस का पुनः गर्भाधान है एवं भूतकाल के आँकड़ों के उपांग की छननी है, एक लघु उपन्यास के निर्माण के लिए जो कि, अनुरूप है प्रबल सभ्यता की मिथ्या से I
सऊदी लोग भारी मात्रा में पेट्रोलेंध डॉलर्स निवेश करते हैं अरबी लोगों की महान उपन्यास के प्रचार के लिए और उनका मुख्य स्थान मानवता के भाग्य में केंद्रित होता है I वास्तव में, वहाबी इस्लाम का निर्यात मुख्य रूप से एक अरबी सभ्यता का निर्यात है, जिसमें धर्म को माध्यम के रूप में प्रयोग किया है I
छात्रवृति को भी विपरीत शैली से प्रयोग किया गया है. एक कल्पित परिदृश्य की कल्पना कीजिये, मात्र एक अनुरूपता की रीति से, जिसमें कि यू.एस.ए को कई शतब्दियों तक किसी अपर देशीय सभ्यता द्वारा उपनिवेश किया गया है I सफलतापूर्वक महाकाय सामाग्री एवं बुद्धिजीवी संपत्ति के अपवाह के पश्चात, उपनिवेशक अंत में छोड़ कर ले जाते हैं, किन्तु एक नूतनउपनिवेशीयवाद एक नियंत्रण यंत्र की भाँति स्थापित करके जाते हैं I अपने पूर्वी उपनिवेशक की तुलना में अत्यन्त धनवान बनने के पश्चात, ये अपर देशीय अमरीकी-विद्या पर भी नियंत्रण रखें, जिसमें वे राष्ट्र के एकता के बोध को नाश करने में केंद्रित रहें I वे प्रायोजित करें प्राध्यापक पदों, संग्रहालयों एवं पाठ्यपुस्तकों के चित्रण को, जो विभाजित करें, कई भागों में अमरीकी सभ्यता को परस्पर-विरोधी अस्तित्वों में : कालों को उसी भाँति प्रोत्साहित किया जाये अमरिकीवाद से युद्ध करने के लिए जिस प्रकार से वे भारत में दलितों को प्रोत्साहित करते हैं यिद्ध करने के लिए; महिलाओं को प्रोत्साहित किया जाता है अपर देशीय महिलाओं के पद चिन्हों पर चलने के लिए; मोर्मोनवाद को प्रोत्साहित किया जाता है ईसाई-विरोधी बनने के लिए; अमरीकी मुसलमानों(जो कि अधिकांश समाविष्ट हैं यू.एस जनसँख्या में) उनसे अमरीकियों की भाँति व्यवहार नहीं किया जाताहै; और इस प्रकार इत्यादि I
ये अनुरूपता प्रसंगोचित है क्यूंकि मेट्रोपोलिटन म्युसियम ऑफ़ आर्ट्स, न्यू यॉर्क ने भारतीय मुग़ल काल की कला को हटा दिया है और उसको भिन्न विभाग में स्थापित किया है जिसका नाम, “इस्लामिक आर्ट” रखा है[३१] I” कई अमरीकी नगरों में संग्रालयों ने सिक्ख धर्म को शेष भारत से पृथक रख कर उसको भिन्न विभाग में रखा है दर्शाने के लिए, और कई सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं उसपर केंद्रित करते हुए I एशियाई अध्ययन में, नारी अध्ययन, सामान्य आधुनिकता है, और विशेषतः दक्षिण एशियाई अध्ययन में, “दलित वाद” की भिन्न छात्रवृति। ये सर्वत्र आच्छादित हो चुके हैं गंभीर कार्य के चारों ओर, भारत पर, जिसमें अधिकांश प्रमुखता कास्ट, पर है, और जिसमें सभी अन्य सभ्यता की सामग्री को किसी अन्य स्थान से लाया गया है I
भारत की वास्तविकता ये है कि, यह दोनों है: देशीय एकीकरण एवं कहीं और से लाये गए समीकरणों के I ये प्रक्रिया वर्तमान में भी गतिमान है ये किसी अन्य सभ्यताओं के समरूप है I कठिनाईयाँ ये हैं कि, भारत के सन्दर्भ में आयातित पक्ष अतिशयोक्तिपूर्ण हैं जबकि देशीय पक्ष को अधिकांश रूप से मिटा दिया गया है I
वैसे तो कई समपन्न एवं शक्तिशाली सभ्यताओं ने बल दिया है अपनी देशीय संगतता और निरंतरता पर, और उन छात्रवृतियों से जो उनके भक्त हैं उनके द्वारा नियंत्रित है, इसके विपरीत प्रचलन है आर्थिक रूप से निर्बल सभ्यता का जैसे भारतियों का है I भारतीय सभ्यता के सन्दर्भ में, विद्द्वानों का बल एहि रहा है कि कैसे इस प्रकार की ऐतिहासिक तत्त्व कापड़ी व्याप्त ही ना हुए हों जैसे भारत या हिन्दुइस्म, और कैसे उसकी सभ्यता विदेशियों द्वारा भारत में लायी गयी थी I
ये बौद्धिक विभंजन भारतीय परम्पराओं का सभ्यता आयात के ऐतिहासिक परतों में, प्रत्येक किसी सांठ-गांठ के संग विश्व के किसी अन्य क्षेत्र में, समरूप है बौद्धिक विभाजन के भारत के राजनैतिक विभंजन के सामान I कितने भारतियों ने स्वयं को विक्रय किया है इस परियोजना के लिए यह निश्चित ही ध्यान देने योग्य है, और ये हमारे समय की एक प्रमुख अनकही कथा है I दीर्घ काल के लिए, ये पश्चिमियों के लिए आकर्षक है, इस अंतिम शेष पश्चिमी-भिन्न ज्ञान प्रणाली को अपने में समाविष्ट करना, एवं पचनीय भाग में विभाजित करके इसको सुसाध्य करना I तथापि, जो विध्वंस इस प्रकार के सामर्थ्य विभाजन, संभवतः उन्मुक्त करेंगे, वह संभवतः अनर्थकारी विश्वव्यापी अनुपात के भी होंगे [३२]. इसके अतिरिक्त, भविष्य में सकारात्मक कृषि फल इस सभ्यता के द्वारा जो पूर्ण विश्व को देने की क्षमता है, उसका भी अंत हो जायेगा।
किन्तु अनुचित चित्रण करना भारतीय परम्परों का एक आधुनिक-विरोधी की भाँति, पश्चिमियों और उनके भारतीय सिपाहियों [३३] ने कई भारतियों को बाध्य किया है पारम्परिक और विकासशीलता के भ्रामक द्विभाजन में I जैसे की ऐतिहासिक, ईश्वरोक्ति-आधारित अब्राहमिक धर्मों की माँग, आस्था को अधिनियमित हठधर्मिता की भाँति होने की होती है (जिसमें विज्ञानं और धर्म सर्वदा ही एक दुसरे के प्रतिद्वन्द्वी होते हैं), इस प्रकार का द्विभाजन भारतीय धर्मों एवं विज्ञान में कदापि नहीं रहा है ऐसा इसलिए है क्यूंकि भारतीय परम्पराओं ने अनंत श्रेणी के अन्वेषणों को सुविकार किया है, और मात्र एक अदुतीय घटना को नहीं, और चूँकि भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों के अनुकरणीय व्यक्ति प्रायः संशयात्मकों , स्वतंत्र-सजीव विचारकों एवं तीव्र चर्चवादीयों की भाँति रहे हैं स्थापित विचारधारा के विरुद्ध। दिए गए नूतन ज्ञान के अन्वेषण की कार्यप्रणाली, जैसे प्रमाणों से, धर्म विकासशील है, और माँग करता है परिवर्तन एवं पुनः-निर्माण की अपने स्वयं के अंश की निरंतरता प्रणाली हेतु। ये कृत्रिम रूप से हिमाच्छादित हो गयी है किंचित नूतन शताब्दियों से, और इसको अब पिघलाव की आवश्यकता है जिससे कि, पुनर्जागरण और विकास का देशीय यंत्र पुनः आरंभ हो सके I
संदेह के समाधान के लिए, मैं धर्मों के एकरूपता के विरुद्ध हूँ या राष्ट्र के एकरूपता की धारणा के विरुद्ध हूँ, क्यूंकि वह धर्म के जीव एवं वास्तविकता के विपरीत है I इसके अतिरिक्त, मैं किसी भी प्रकार के अल्पसंख्य जनता के पार्श्वीकरण के विरुद्ध हूँ, जिसमें दलित, भारतीय मुसलमान एवं ईसाई भी सम्मिलित हैं I मेरा प्रतिविरोध मात्र यही है कि, जिस प्रकार ग्रीक विचारों को हथिया लिया गया यूरोप में, विस्तृत एवं विकासशील विचारों के निर्माण के लिए, और परिणामवश यूरोप का नवजागरण हुआ, यह एक आशाजनक योजना प्रतीत होती है कि, भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों का उपयोग भी सर्वत्र लागू होनेवाले भारतीय विश्वदृष्टिकोण और नवजागरण के नीव निर्माण के लिए हो।
इस निबंध में जिन विषयों पर यहाँ विचार-विमर्श किया गया है, उससे अंदरूनी युद्ध और पाषंड उत्पन्न हुआ है थापर्स चीलरेन (थापर के बच्चे) में, जो प्रायः उनके मुखमंडल पर लिखे गए हैं I इसी कारण उनके पूर्वी – योजनाबद्ध प्रतिरक्षा प्रक्रिया सहज बोध से ही उत्तेजित हो उठती है — “कट्टरवादी,” “राष्ट्रवादी,” इत्यादि चिल्लाहट से — मात्र जब उनसे, उनके योग्य भारतीय विद्द्वान होने की वैधता के सन्दर्भ में प्रश्न किया जाता है I असावधानी से, और प्रायः उचित मंशा से, वे पोषण करते रहते हैं संभवतः जिसको जेनटूइसम (ईसाई-पूर्वी, लोग जिनको पेगन कह कर अपमानित किया जाता था) अध्ययन कहते हैं [३४] I
थापर्स चिलरेन का प्रभाव, पश्चिमी संसार में महत्त्वपूर्ण है I लगभग प्रति वर्ष, वे अपने अनुप्रतीकों को पूरे विश्व में वायुयान से भ्रमण करवाते हैं श्रेष्ठ परिसरों में भाषण देने के लिए, जहाँ पर उनकी भाँति के पर्वूवर्ती छात्रों को भरपूर सिंचित द्वारपाल के रूप में नियुक्त किया है I वो ये सुनिश्चित कर लेते हैं कि, किसी भी विरोधी स्वर को अनुसूची में सम्मिलित ना किया गया हो—कदाचित् ही, ये कोई शिक्षण सम्बन्धी उपमार्ग है I उनकी पिछले वर्ष की एक वार्ता में, किसी ने दर्शकों में से निर्भयता से प्रश्न करने का साहस किया था कि, क्या वे संस्कृत की ज्ञानी हैं और क्या उन्होंने मूलभूत लेखों का अध्ययन किया है, या क्या वे अधिकतर अपने छात्रवृति के लिए यूरोपी स्रोतों पर ही निर्भर रहती हैं I इस “अशिष्टता,” पर अत्यंत क्रोधित होकर उन्होंने उस प्रश्न को पदच्युत करते हुए ये कहा कि, वे “शैक्षिक परिषद् के योग्य व्यक्ति के ही प्रश्नों का उत्तर देती हैं।” स्पष्ट रूप से, चूँकि वे उस महिला को, जो दर्शकों में से एक थी, उसको नहीं जानती थीं, थापर को किसी भी प्रकार ये अनुमान लगाना कि, वो व्यक्ति शैक्षिक परिषद् की नहीं है, अपेक्षाकृत इस सत्य के कि, मात्र एक बाहरी ही पंथ के और उसके नियंत्रण के साहस कर सकता/सकती है इस प्रकार के प्रश्न करने का I
अमीरीकी शैक्षणिक समुदाय उनको और उनके पूर्ववर्ती छात्रों को भारत की प्राधिकारी समझते हैं I इन भूरी मेमसाहबों के आधिपत्य को किसी भी प्रकार की चुनौती को अत्यंत क्रूर व्यक्तिगत आक्रमणों से सामना करवाया जाता है I
अंग्रेजी साहित्य में ‘भूरी लज्जा‘:
अरुंधति रॉय, रोहिंटन मिस्त्री (ओपराह प्रसिद्धि के), भारती मुखर्जी, और अन्य कई इस नूतन कुल के भारतीय लेखक, जो अंग्रेजी साहित्यकार थे, वे मेरी श्रेणी के अनुसार दुतीय वर्ग के नुतनुपनिवेशी भूरी मेमसाहबों में से हैं I
वे विलासी और धनी मनुष्यों की भाँति अपने धन और पुरस्कारों से कास्ट, काउ एवं करि के भारीतय अधि-उपन्यास का कर्तन सुदृढ़ीकरण किया I ये एकदम विपर्यास व्यतिरेक है हिंदी बहुत सफल चलचित्र से, जैसे लगान, जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक विचारों के संबंधों को दर्शाया है भारतीय दृश्टिकोण से, और अतः, भारीतय दर्शकों के बहुप्रचलित आवश्यकताओं का ध्यान रखा I ये लेखक, दूसरी ओर, भारतीय बहुसंख्यक द्वारा अध्ययन नहीं किये गए हैं, जिनके प्रतिनिधी होने का वे ढोंग करते हैं ये तो पश्चिमी पाठक हैं, जो कि, प्रयास कर रहे हैं अपना/अपनी श्रेष्ठता के यूरोकेन्द्रिक मिथ्या को सशक्त करने के लिए, जो पृष्ठांकन करते हैं इस प्रकार के कार्य का I ये लेखक सेवा करते हैं भूरे-चर्मवाले आपूर्तिकर्ता की भाँति उस प्रकार के पूर्वदेशीयता की जो पहले के अंग्रेज़ों जैसे किपलिंग, द्वारा किये गए हैं I उनका कार्य विस्तृत रूप से निर्धारित है अमरीकी विद्यालयों में, जैसे एक पैनी दृष्टि पहुँच-मार्ग से आकर्षक भारत की जटिलता में मित्रतापूर्ण कल्पना से गढ़ी शैली हो I इसको इतनी गंभीरता से लिया जाता है जितने की आवश्यकता नहीं है, क्यूंकि प्रकाशक इन लेखकों का झूठा प्रचार कर रहे हैं जैसे कि ये भारत के सत्य नाद हैं ।
पश्चिम की जयवान मिथ्या विस्तृत होती है, और इन लेखकों को इनके योगदान के लिए बहुतायात पारितोषिक मिलते हैं जो इनके पश्चिमी सभ्यता के विकासशील गमनात्मक कार्य के लिए लाभदायक होते हैं I वस्तुतः, ये सर्वत्र बौद्धिक समतुल्य हैं उन सिपाहियों के जिन्होंने अंरेज़ी साम्राज्य में व्यवस्थापक थे अत्यंत ही निष्ठा एवं गर्व के साथ, और, उसके बदले में, उन्हें पारितोषक के रूप में उनकी पद उन्नति की जाती थी, उन अन्य भारतियों की तुलना में, जिनको वे वशीभूत करने में सहायता करते थे I
नोय तरुपकाएव, एक अमरीकी नारीवाद समीक्षाकारा, भारतीय महिला लेखकों को दण्डित करती हैं रूढ़िवाद आपूर्ति के लिए जो “कठोर-कटुता, चिंता से पूर्ण एशियाई-अमरीकी अग्रणी जिनका प्रष्ट ३० द्वारा आडंबरपूर्ण काम-क्रिया दर्शाया जाता है I” वे आगे और लिखती हैं: “किन्तु यदि एशियाई महिलाएं निचोड़ी नहीं जातीं, तो प्रकाशन विश्व चाहते कि, वे दुख भोगती रहें (और संभवतः वीरता से उल्लसित हों, यूनाइटेड स्टेट्स में आने के पश्चात्) I एशियाई ऐतिहासिक वृतांत आधारित थे एक सरल सिद्धांत पर: एशिया नर्क था; यूनाइटेड स्टेट्स नर्क था किन्तु कहीं उत्तम स्तर का…… एशियाई-नर्क-पश्चिमी-स्वर्ग रूपांकन, यू.एस पाठक को एक उत्तम आत्मसंतुष्ट स्थान पर छोड़ते हैं : एक ला-ज़े-बॉय (एक अमरीकी उद्द्योग जो सज्जा सामग्री का उत्पादन करती है) शयित में और विचार करते हुए, ‘ओह, अमेरिका के लिए धन्यवाद प्रभु! [३५]'”
ये लाभकारक स्थिति बन गयी है, जिसपर कई भारतीय महिला लेखिकाएं झटके से क्षणिक भर में ही, सवार होना चाहती हैं सफलता पर I जो पहले गोरी महिला का भार था, कई स्थितियों में, वो अब भूरी महियों के भार रूप में परिवर्तित हो गया है. किन्तु तरुपकाएव शंकास्पद हैं:
“क्या यह लेखिका अपनी जातीयता को विदेशागत कर रही हैं? क्या ये मात्र जनता को और भी रूढ़िवादी, कमल-पुष्प पुंज भाँति महिलाएं और गुआकामोल-कूल्हा (एक प्रकार का विदेशी फल) भाँति माओं से भरण कर रही हैं? यदि वो अशुद्ध या असामान्य रूप से समीक्षात्मक या ओसपूर्ण-नेत्रों की हैं अपने पूर्वजों की सभ्यता को दर्शाने में, तो क्या ये ऐसे आयोजित किया जाता है जिससे कि, ये सामान्य जनता के स्थायी विचार लगें? यदि, इन में से किसी भी प्रश्न का उत्तर ‘हाँ,’ है तो यहाँ समस्या व्याप्त है I”
वैसे तो कुछ लेखिकाएं उपाय से उन्नति करके चोटी पर पहुँच गयीं, परन्तु अंतिम भाग्य इन लेखिकाओं का एक काँच की छत के निचले भाग तक ही सिमित है, जबकि उनकी गोरी बहनें ऊपर से मंदहास करती हैं I तरुपकाएव, संकेत करती हैं अमरीकी पाठकों के झक्की प्रवृति की ओर, लिखती हैं: “गुणहीन स्तर पर, दक्षिण एशियाई एवं दक्षिण एशियाई अमरीकी लेख समरूप होते हैं स्वादिष्ट भारतीय भोजन की भाँति — खाओ, पचाओ और मलत्याग करो बिना किसी गंभीर विचार के I” इसके पश्चात भी उनकी प्रबल इच्छा होती है वैधता के लिए और कीर्तिकर श्वेत पद अत्यंत आकर्षक है उनके लिए और कई लोगों के लिए अप्रतिरोध्य है। (“पश्चिमी” प्रायः ही राजनैतिक रूप से उचित तुलिनात्मक है पूर्वकालीन “गोरों” के।)
रिचर्ड क्रस्टा, एक भारतीय ईसाई, मंगलौर से, व्याख्या करते हैं कि, किस प्रकार नूतन-उपनिवेशवाद प्रक्रिया यहाँ कार्य करती है: “अपने प्राच्यदेशवासी लेखकों के चयन में वे या तो कृपा करेंगे — या कृपा नहीं करेंगे —- पश्चिमी प्रकाशन मात्र उसी पारम्परिक कार्यनीति का अनुगमन कर रहे हैं जो पराजित वंश के प्रति परास्त करनेवाले का होता है: पुरुषों को बधिया करना, महिलाओं को ‘मुक्त्त करना, नपुंसकों को या वंश-विश्वासघाती को प्रुस्कृत और सम्मानित करना, ऐसा करके वे अपने वन्य बंधुओं पर नियंत्रिण कर सकते हैं I यदि परास्त नर और नारी में कोई मेल नहीं होता है, तो वो तो और भी उत्तम होगा I… [३६]”
कई भारतियों ने इस क्रीड़ा की विद्या प्रप्त कर लिया है, क्रास्टा समझते हैं: “पश्चिम को [दु]हना एक प्रमुख तृतीय विश्व का उद्योग बन गया है, कला या धूर्त क्रीड़ा — वो जिसमें निपुण होना आवश्यक है मात्र जीवित रहने के लिए I हम सभी कुशल दोहक हैं, और लगभग कुछ भी करेंगे, कुछ भी कहेंगे, कोई भी निम्नवर्गीय अभिनय करेंगे उन – सभी चमकती बूँदें, जीवन-दाता, श्वेत वास्तु के प्राप्ति के लिए। [३७]”
किन्तु क्रस्टा चेतावनी देते हैं अपने संगी भारतीय लेखकों को उन संकटों से जो उनके काँच की छत को पार करने के प्रयत्न से होगा: “ये पश्चिमियों का गाजर देकर, सुकृति और सम्पति देना सहगत है एक छड़ी से: सीमाओं को ना लांघें। सदैव अपने स्थान का ध्यान रखें…..[ सदैव अपने स्थान का स्मरण करें गाजर और डंडा इतना सावधानी पूर्वक स्थानांतर किया जाता है तृतीय विश्व के लेखकों द्वारा अपने अंदरूनी नियंत्रक पर कि, वे प्रायः अपने ही आत्म नियन्त्रण-व्यवस्था के विषय में अचैतन्य है। [३८]”
जो हानि इस प्रकार की हो रही है, वह अत्यंत ही गंभीर है, क्रास्टा कहते हैं:
“प्रजातीय लज्जा प्रजातीय गर्व के विपरीत होती है…….और ये एक उत्कृष्ट उदाहरण है सफलता का उपनिवेशवाद में, जिसमें हमको सहयोगित कर हमारे अपने विनाश में, और हमारी विरक्ति में जो हमारी सभ्यता और धरती से जुड़ी है, और अंत में हमारी अपनी सभ्यता का लुप्त हो जाना……शिक्षित भारतीय अनुभव करते हैं कि, उन्हें अवश्य क्षमा मांगनी चाहिए प्रत्येक भारतीय के लिए जो मार्ग तटों पर थूकते या मलत्याग करते हैं, भारत के आधिकारिक भष्टाचार के लिए, निम्नवर्गीय भारतीय उद्यौगिक उत्पादन सामग्री के लिए, अपनी निरंतर पराजय के लिए जो विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा हुई, हमारी धूल, रोग, निर्धनता, वर्तमान में और सर्वत्र सदैक के लिए I इस प्रकार के भोझ का सामना करना, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि, किंचित भारतीय वशीभूत हो जाते हैं एक प्रलोभन में जो मात्र अपने भारीतय स्रोतों को ही नकार देते हैं……… प्रजातीय लज्जा एक भयपूर्ण विषय है, और ना कि, कोई व्यक्तिगत विलक्षणता? क्यूंकि ये योगदान देता है हमारी सेना के संग अभिसंधि का जिसकी प्रवृत्ती हमें अदृश्य बनाती हैं विदेशी समाज में…….. किन्तु कई अन्य भी, अत्यधिक गंभीर कारण हैं हमारी लज्जा के, निःसंदेह: पश्चिमी संचार माध्यम और अमरीकियों का नकारात्मक चित्रण के संग भारतीयों के साथ साँठ-गाँठ……. भारतीय-घृणा दल अत्यधिक गति से प्रगतिशील हो रहे हैं, और इसके अत्यंत बृहत सैन्यदल कदाचित असंख्य भारतीय ही हैं जिनके लिए किंचित कटु अनुभवों जो उनको विश्वासघात से मिला, उसने उन्हें धकेल दिया अपने ही आत्म-घृणा के छोर पर: जी, मेरी काया भूरी है, किन्तु मेरी आत्मा श्वेत है I [३९]”
अधिकांश प्रख्यात उपनिवेश-पश्चात् भारतीय साहित्यिक सिद्धांतवादी, जैसे होमी भाभा, गायत्री सिप्वक और दिनेश चक्रबर्ती, में भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों में औपचारिक शिक्षा का अभाव था उनके कार्य की सहयता के लिए, यद्दपि महत्वपूर्ण श्रेष्ठ भारतीय विचार पूर्वानुमानित कर चुके थे आधुनिकता-पार और उन धारणाओं को और भी गहराईयों तक ले जाते थे. गेराल्ड लार्सन शुद्धता से आँकते हैं:
“अधीनस्थ सिद्धांतों की ये समस्या है कि, वह बौद्धिक-सम्बन्धी गौण लेते हैं आधुनिकता-पश्चात् एवं संरचना-पश्चात् पश्चिमी ‘महत्वपूर्ण सिद्धांत’ से और फलस्वरूप विपदा का भय नूतन-प्राच्यवाद सिद्धांतों में परिणित होने का अधिक रहता है I [४०]” अद्वितीयता से भारतीय यूरोकेन्द्रिक विकासशील शैली से युगपत् बुद्धिहीन एवं प्रतिभासंपन्न, विरोधाभासी ढंग से एकान्त में निवास करते हैं I ये युवा अंग्रेजी लेखक नूतन कुल के हैं, जो प्रायः किसी भी हिन्दू धर्म से सुदूर सम्बन्ध मात्र से ही, शत्रुता रखते हैं I एक लाक्षणिक मकौलेयवादी, जैसा कि, वे हिन्दू धर्म में कोई भी तत्व नहीं देखता हैं, अतिरिक्त इसके कि, इसमें जातियों के मध्य असमानतायें हैं जातियों और महिलाओं को आग में झोंकना अंकित है I विरोधाभास ये है कि, ये अति तीव्र एवं निशिताग्र आलोचनाएं हैं दमनकरता गोरों, उपनिवेशकों, नूतन-उपनिवेशकों एवं अमरीकियों के संयुक्त लालच की, इत्यादि I दुसरे शब्दों में, उन्होंने अति कुशलता से स्मरण कर लिया है शब्दाडंबरपूर्ण मार्क्सवाद, और वर्तमान-काल में पुनः परिवर्तन कर दिया है “वामपंथी विकासशील मंडल।” किन्तु वे अव्यवस्थित व्यक्ति हैं अपनी आत्माओं से पृथक और, अनियंत्रित, अप्रत्याशित एवं हानिकारक की भाँति, जो वर्त्तमान में भयंकर आशय हैं I
जबकि स्वामी हैं विखण्डित करने के प्रत्येक वास्तु को जो संबंधित हो अंग्रेजी उपनिवेशकों से, किस से ये विद्द्वान इसको विस्थापित करेंगे? उत्तर: कुछ भी पूर्व कालीन नहीं है भारत के मुसलमान आक्रमणों के पूर्व। चूँकि अंग्रेजी शासन निर्दयी था, और मुग़ल-पूर्वी भारत को अनगढ़ मान कर पदच्युत कर दिया गया (मात्र बौद्ध धर्म के अतिरिक्त जो बुद्धितः भारत से पूर्वी एशियाई धर्मों के अध्ययनों की ओर उन्मुख हो गए), जिसको भारत की सकारात्मक सभ्यता के रूप में देखा जाता है वो तो मुग़ल-केंद्रिक है! इनके बुद्धि अनुसार, भारतीय उपयुक्त सभ्यता का आरम्भ मुग़लों के उपनिवेशीकरण के पश्चात् ही हुआ है I
कारण सरल है: उनमें भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों के ज्ञान का अभाव है, और इसको अत्यंत ही लज्जाजनक मानते हैं जब भी ये संकेत किया जाता है उनके गोरे संगी के समक्ष, क्यूंकि अमरीकी उदार शिक्षा में अत्यंत दृण पश्चिमी श्रेष्ठ ज्ञान की नीव व्याप्त है I कल्पना कीजिये किसी अमरीकी उदार कला के विद्यालय को कहें कि वे ग्रीक श्रेष्ठ ग्रन्थ को त्याग दें, क्यूंकि ग्रीक अनगढ़, प्रतिमापूजक और दासों के स्वामी थे I
यही वो झूठ है जिसके पीछे ये विद्द्वान निवास करते हैं: वो आडम्बर कि, वे अधिप्रमाणित राजदूत और प्रतिनिधि हैं भारतीय सभ्यता के, वास्तव में, वे पश्चिम के सफलतापूर्ण भारत के मानसिक उपनिवेशी के प्रतिनिधि हैं I अतः, उनकी विक्षिप्ति और क्रोध भड़कती है जब उनका अंतर्विरोध उजागर किया जाता है I
उनका तीव्र सार्वजनिक युद्ध, प्रबल सभ्यता के विरुद्ध उनका एक प्रतिबिम्ब है, जो कि दर्शाता है उनकी प्रबल सभ्यता ना बन पाने की अयोग्यता I अनुमानतः, यदि एफ़.डी.ए [४१] द्वारा कोई पारित, वंशाणु चिकित्साविधान व्याप्त होता समलक्षणी “गोरा,” परिवर्तन करने में, तो यही वो दल होगा यथावत् जो इस वंशाणु-परिवर्तन क्रिया के लिए मधु मक्खियों की भाँति पंक्ति में लगा होगा।
अपने आपको गोरों के सामान प्रतिष्ठा ना दिए जाने की निष्फलता प्रायः उपनिवेशी-पश्चात् अध्ययन के माध्यम से निष्काषित करते हैं I यही परिलक्षण है जिसको रिचर्ड क्रास्टा कहते हैं “गोरों को प्रभावित करना।” इसी को एनरिक डसेल, फ्रैंट्ज़ फानोन, एडवर्ड साइद, और कई अन्य समझते हैं कि, वो कार्यप्रणाली जिस के द्वारा प्रबल सभ्यता हथिया लेती है बुद्धिजीवियों की श्रेणी को उपनिवेशक सभ्यता से, एक प्रतिनिधि बनकर, जो सेवा करते हों बुद्धितः शासकों की भाँति, जनसमूह पर I इस निष्ठां के विनिमय में प्रबल सभ्यता को, इन अंकल टॉम को महत्वपूर्ण परिष्कृत पद दिए जाते हैं, कई पुरस्कार, और एक प्रकार का नूतन-गोरा होने की पदवी।
ये स्मरण करने योग्य है कि ९९% गोलियाँ जो दागी गयीं थी और सर्वत्र आरक्षी महापाप अंग्रेज़ों के काल में जो घटित हुआ, वो भारतीय सिपाहियों द्वारा अंग्रेजों के आदेश पर किया गया था. आनंददायक विषय ये है कि, चीनियों उत्तम सिपाही नहीं बने, क्यूंकि उन्होंने मना कर दिया स्वयं की विक्रय होने से I कालों को शारीरिक रूप से बेड़ियों से बाँधा गया था उनको दास बनाने के लिए I किन्तु भारतियों ने स्वेछापूर्वक और अनंत गर्व से ये कार्य किया।
वर्तमान काल में, भारतीय सिपाही आदिरूप, पश्चिमी शैक्षिक परिषदों एवं पत्रकारिता में, प्रायः इस कुत्सित बुद्धिजीवी कार्य को कर रहे हैं. उनकी भूमिका, प्रबल सभ्यता की ओर से “अन्य” की मिथ्या का भरण करना है इस प्रकार से करना जिससे कि, वह प्रबल सभ्यता की महान कथा में स्वयं को समाविष्ट कर ले I अपेक्षाकृत अपने पूर्वजों की सफलता को गौरवान्वित करना, जितनी ही शीघ्रता से उनके पाठक सार्वजनिक रूप से इसको झूठ मानना आरम्भ करेंगे, उतना ही अच्छा होगा I
(एक रुचिपूर्ण किनारे की टिपण्णी, ललित मानसिंघ, यू.एस.ए के भारतीय राजदूत, ने एक प्रमुख हिन्दू कार्यक्रम में अंग्रेजी में भाषण दिया था. वे मात्र अंग्रेजी [४२] में ही भाषण दे सकते हैं.)
Fifth Part Coming Soon…