नूतन उपनिवेशिता की अक्षरेखा – 5

भारत विखंडन

Translation Credit: Vandana Mishra.

Read 4th Part Here.

दक्षिण एशियाई” परिलक्षण:

एस.ए.जे.ए (साऊथ एशियन जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन –दक्षिण एशियायी पत्रकार समिति) ने प्रभावित किया है “साऊथ एशियनाइज़” आंदोलन को, जो युवा भारतीय अमरीकियों घर छोड़ते हैं और अमरीकी विद्यालयों में प्रवेश करते हैं उनके लिए I एस.ए.जे.ए एक चतुर व्यावसायिक प्रणाली पर गतिमान है: प्रतिष्ठित अमरीकी संचार संघ से पत्रकारों को लाया जाता है परामर्शी मंच पर एस.ए.जे.ए को वैधता देने के लिए, और इसके विनियम में उनके व्यक्तिगत संक्षिप्त विवरण पत्र में उनको “भारतीय विशेषज्ञ” अंकित कर दिया जाता I वार्षिक एस.ए.जे.ए पुरस्कार, संस्थाओं द्वारा प्रायोजक जो प्रयास कर रहे हैं, भारतीय प्रवासियों को प्रभावित करने के लिए, दिए जाते हैं, युवा पत्रकारों के आदर्श प्रतिमान, जो प्रायः किंचित पारंगत हैं अन्य की तुलना में एस.ए.जे.ए के आदर्शस्वरूप को समर्थन देने में—-सोमिनी सेनगुप्ता, एक नूतन उदहारण हैं I ये क्रियाविधि स्वयं का भरण करती है I एस.ए.जे.ए इंटरनेट चर्चा-सूची को सावधानी से नियंत्रित किया जाता है, विरोधी विचारधारा को छानने के लिए, यहाँ तक कि, प्रतिक्रियाओं के प्रत्याक्ष व्यक्तिगत आक्रमणों की अनुमति भी नहीं दी जाती है I

कई भारतीय पत्रकार (मेम) साहिबें भी चौकीदार की भाँति सेवा करती हैं पश्चिमियों के लिए, क्रास्टा व्याख्या करते हैं:

“निस्संदेह, इनमें से कई अप्रवासी इतने आतंकित होते हैं उन स्वरों से जो इनके स्वामियों को कष्ट पहुँचा सकती है कि, वे स्वयं ही एक छननी सामान यंत्र बन जाते हैं, एक देशी सिपाही या कठोर मनुष्य। एशियाई संस्था जैसी संस्थाएं, दक्षिण एशियाई पत्रकार समूह (एस.ए.जे.ए), और कई अन्य समाचार पत्र  नियमित रूप से प्रशंसक की भाँति कार्य करते हैं, उन भारतियों के लिए जिन्होंने गोरों को प्रभावित किया है, और एक भारी भरकम रक्षक की भाँति, मलीन एवं अशिष्ट  भ्राताओं को तारतम्य को तितर-बितर करने से रोकेंगे : यहाँ तक कि, एक घटना में तो उन्होंने एक ‘क्लेश-निरमाण’ करनेवाले भारतीय लेखक को एशियाई संस्था[४३] के कार्यक्रम से निष्काषित करने का प्रयत्न भी किया I”

एस.ए.जे.ए  एक लघु गाँठ है बृहत दक्षिण एशियाई आंदोलन की अमरीकी परिसरों में.  दक्षिण एशियाई आंदोलन सावधानी से छिपाते हैं ये सत्य कि, इस परिभाषा का अन्वेषण हेनरी किसिंगर ने किया था एक विदेशी शीत युद्ध निति के अंदर जिससे कि, वे नाटो-विभिन्न संसार को भी सम्मिलित कर सकें I दक्षिण एशियाई अध्ययन विभाग को पूरे यू.एस.ए भर में पूँजी दी जाती है “टाइटल ६ ग्रांट्स” द्वारा कई वर्षों से यू.एस स्टेट विभाग द्वारा, जो अभीष्ट है लागू करने और प्रचार करने के लिए उस “क्षेत्र” के सिद्धांत को, जिस से कि, वो यू.एस की विदेशी निति का समर्थन कर सके I एडवर्ड सईद ने इसका मनोविश्लेषण किया था और लिखा कि, सेना के अतिरिक्त, पश्चिमी सत्ता के समीप “राजनैतिक, सेना-सम्बन्धी, और विचारधारा-सम्बन्धी, विद्द्वानों की भी सेना है जो कार्य में लगी हुई है I ”

निम्नांकित उद्धरण एक सरकारी प्रतिवेदन से है जो, व्याख्या करती है कि, क्यों यू.एस का रक्षा विभाग पूँजी निवेश करता है सामाजिक विज्ञान में “अन्य” को समझने और पुनः-अभियांत्रिक बनाने के लिए: “सशस्त्र सेनाएँ अब मात्र युद्ध में ही व्यस्त नहीं रहतीं ……पूरे विश्व भर के कई देशों में, हमें और भी ज्ञान चाहिए उनकी आस्था, संस्कार और प्रेरणाओं के विषय में; उनकी राजनैतिक, धार्मिक एवं आर्थिक संस्थाओं के विषय में; और विभिन्न परिवर्तनों के प्रभाव या नवाचार उनके सामजिक-सभ्यता के प्रतिरूपों पर…… “[४४]

वही समरूप प्रतिवेदन संस्तुति करती है विशेष प्रकार के सामाजिक शोध एवं पुनः अभियांत्रिकरण का, और कोई भी इस सूची में इस प्रकार की कई योजनाएं देख सकता है जो कि, यू.एस शैक्षणिक समुदाय में हो रही हैं और कई भारत में स्थापित एन.जी.ओ द्वारा भी भारतीय संचार माध्यम ने कदापि अनुसंधान विवरणी रचा कि, क्यों यू.एस रक्षा विभाग की सेवा भारतियों द्वारा इस प्रकार से की जाती है:

निम्नांकित अंश हैं तत्व के, जो सोच-विचार के गुण को, जैसे सेना शाखाओं के लिए शोध कार्यनीति के खण्ड I अग्रता शोध साहय करना: (१) विदेशी देशों में सामाजिक एवं स्वभावजन्य विज्ञानं में प्रणालियाँ, सिद्धांतों एवं प्रशिक्षण…… (२) कार्यक्रम जो विदेशी सामाजिक वैज्ञानिकों को प्रशिक्षण देते हैं……. (३) समाज विज्ञानं शोध संचालित किया जाए स्वतंत्र देशीय वैज्ञानिक द्वारा…….. (४) समाज विज्ञानं कार्य संचालित किया जाय प्रमुख यू.एस स्नातक अध्ययनों द्वारा विदेशी क्षेत्रों के केंद्र में……..७) यू.एस में आधारित अध्ययन जो लाभ उठाते हैं उन आँकड़ों का जो की पारसमुद्री अनुसंधाता द्वारा संगृहीत किये गए हैं वे रक्षा-भिन्न शाखाओं से समर्थन पाते हैं I आंकड़ों, समाग्रियों और  विश्लेषणात्मक प्रणालियों का विकास इस प्रकार से चिपटा कर दिया जाय कि, विशेष उद्देश्य के लिए जो आंकड़े संगृहीत किये गए हैं वे, कई और अन्य उद्देश्यों के लिए भी प्रयोग किये जा सकें……(८) यू.एस के और विदेशों से भी अन्य कार्यक्रमों के साथ सहयोग करना, जो निरंतर प्रदान करता रहे अभिगम्यता रक्षा के विभाग कर्मचारीगण का शिक्षण एवं बौद्धिक संसाधनों से इस स्वतंत्र वीश्वके। “

९०% से भी अधिक छात्र जो दक्षिण एशियाई आंदोलन में सोखे जाते हैं यू.एस परिसरों में वे भारतीय हैं I दूसरी ओर, अधिकतर पाकिस्तानी अडिग होकर अपनी व्यष्टिता के विषय में, इस्लामिक संस्था में बद्ध होते हैं I यहाँ तक कि यू.के में भी जहाँ भारतीय समाज यू.एस की तुलना में अधिक प्राचीन काल से निवास करता है, वहां भी कोई दक्षिण एशियाई आंदोलन परिसरों में नहीं है I अन्तोत्गत्वा, कोई भी भारत में अपने आपको “दक्षिण एशियाई” नहीं समझता है I अमरीकी शैक्षिक विद्द्वान, जो सार्वजनिक रूप से अपने आपको हिन्दू मानता है, वो परिवाद करता है अपने कई संगियों के विषय में जो दक्षिण एशियाई अध्ययनों में हैं:

ये अत्यंत दुःख का विषय है कि, जिन्होंने कभी स्वतंत्र विचार और आध्यात्मिकता का समर्थन किया था वे अब राजनैतिक संशोधन और मार्क्सवाद का समर्थन करते हैं मैंने पाया कि, परिसर में जो दक्षिण एशियाई हैं, पश्चिमी और भारतीय दोनों ही (जो लगभग अनन्य रूप से उच्च जाती के हैं, उत्कृष्ट नगरीय परिवार से) और पाकिस्तानी (वे भी, सभी संपन्न परिवार से) में, अधकांश भाग, हिन्दुइस्म के प्रति घृणा है विशेषकर, और धर्म के प्रति सामान्य रूप से घृणा है I चूँकि मैं हिन्दू-विरोधी नहीं हूँ, जैसा कि, उत्तम विद्द्वानों को यहाँ पर होना चाहिए वर्तमान में, मुझ पर कई समय पूर्व ही कट्टरवादी की छाप लगा दी गयी थी और सीमांत पर निर्वासित कर दिया गया था I जब भी कभी दक्षिण एशिया समारोह आयोजित होता है, तो मुझे निमंत्रित नहीं किया जाता है I [किन्तु] कोई चिंता नहीं क्यूंकि मेरी कार्यकाल की पदवी[४५] निर्धारित है I” अन्तोत्गत्वा, दिनेश डी’सौज़ा, जिन्होंने नूतनकाल में उपनिवेशिवाद की प्रशंसा में लिखा था, एक महान उपहार जो उपनिवेशी बनाये गए लोगों[४६] को दिया गया था, वो उपज है दक्षिण एशियाई आंदोलन का I

एन.जी.ओ एक विदेशी परोक्षी के सामान:

सुसंथा गुणतिलके, एक श्री लंका के विद्द्वान, ने एक विस्तारपूर्ण अध्ययन पूर्ण किया है अपने देश के एन.जी.ओ के विषय में और अपने विष्कर्ष परिणामों को प्रमुख पुस्तक में प्रकाशित करने के लिए शीघ्र ही, योजना बना रहे हैं I उनके निष्कर्ष जो मुझे निर्दिष्ट किये गए हैं वो संभवतः निम्नलिखित कथित-कथन हैं I श्री लंका का विनाश अधिकांश विदेशी पूँजी प्राप्त एन.जी.ओ द्वारा हुआ है जो वहां परिचालित हैं I देशीय विद्द्वान वही करते हैं जो उनके प्रायोजक उनसे माँग करते हैं, और अतः विदेशी परोक्षी की भाँति सेवा करते हैं ये एक प्रकार का दूरस्थ-नियंत्रित नूतन-उपनिवेशीवाद है. गुणातिलक कहते हैं कि, सामान रुपी घटना बांग्लादेश में भी कई सीमा तक हुई है I किन्तु भारत, वे कहते हैं कि, अत्यंत बृहत है और अतिस्‍कंदी है हथिया लेने के लिए, और किसी प्रकार इन गतिविधियों के पश्चात् भी जीवित रहने के लिए सक्षम है I

यही वो एनजीओ प्रकार की मानसिकता है जो वक्ताओं को अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में भेजती है और विदेशी संचार माध्यम को, जिससे कि, संवेदनात्मक स्थितियां निर्मित हों और “उजागर” करें भारतीय सामाजिक अंदरूनी कष्टों को I जबकि कई एनजीओ कर्मचारी सदस्य और विद्द्वान  तल्लीन हैं हिन्दू धर्म और  भारत-भय आंदोलन में, कई बृहत मात्रा में ऐसे भी लोग हैं जो इनमें सरलता से सोखे जा चुके हैं अपनी पूर्णतः अज्ञानता के कारण, या विदेशी धरती पर भ्रमण के लोभ में और कई अनुदान जैसे पुरस्कार I कई एनजीओ गोपनीय यूरोकेन्द्रिक के ५ वे पंक्ति में हैं I

जबकि नूतन-उपनिवेशियों की कार्यावली कदाचित ही दिखाई पड़ती है अनुदान संधियों में, प्रत्येक अनुभावी को इस कुटीर उद्द्योग में ज्ञात है कि, क्या विवरण “उचित” है प्रकाशन के लिए, जिससे कि. विदेशी मुद्रा के प्रवाह की निरंतरता बनी रहे I जो इसका विरोध करते हैं “अपविक्रय” उनकी निराई कर दी जाती है प्रायोजकों के द्वारा, डर्विनियन क्रीड़ा से जिसमें स्वस्थता की परिभाषा भारतीय परंपरा विरोधी के अनुसार की जाती है I

ये व्याख्या करता है कि, क्यों कई भारतीय अंदरूनी सामाजिक समस्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँच जाती हैं भारतियों के कारण, जब कि, अंतर्राष्ट्रीय प्रांगण सक्षम नहीं हैं या पदांक नहीं कर सकते आलेखों का वास्तव में, इन समस्याओं के निवारण हेतु I जहाँ पर पारिवारिक प्रक्रिया पहले से ही व्याप्त है इन विषयों के समाधान के लिए, उनको सरलता से उपमार्ग बना दिया जाता है और उनके अस्तित्व को सरलता से अवज्ञा क्र दिया जाता है ये अत्यंत ही दयनीय दृश्य है, ये देखना कि, नूतन प्रकट हुए और नूतन पश्चिमियों हस्ताक्षर कर रहे हैं एक विदेशागत गोबर के उमंगी संवाहक के रूप में अपने लघु मूर्ख शीर्ष पर उठाये हुए, एक वृत्तांत से अन्य की ओर I कई समस्याएं जो इस निबंध में वर्णित हैं वे संभव ही नहीं होती बिना किसी भारतीय एनजीओ की सहायता और नूतन-उपनिवेशिवाद के दुष्प्रेरित करने के कारण।

“डाउरी, ब्राइड-बर्निंग और सन-परेफरेंस (दहेज़, वधु-जलाना और पुत्र-प्राथमिकता) पर ६ वां अंतरार्ष्ट्रीय समारोह” जो २००३ में आयोजित होगा, वह इसी का एक उदाहरण है I उसका बौद्धिक नायकत्व पश्चिमी नारीवाद[४७] से आगमन है I इस दल का प्रथम समारोह आयोजित किया गया था हार्वर्ड विश्वविद्यालय १९९५ में, जिसका विषय था “६ पॉइंट प्रोग्राम टू इराडिकेट डाउरी और ब्राइड-बर्निंग इन इंडिया (६ बिंदु कार्यक्रम दहेज़ को और बहु को जलाने की प्रथा को भारत से मिटाना) को अपनाया गया था I ये कार्क्रम उनकी उत्तरवर्ती समरोह में और भी परिशोधित की गयी जो हार्वर्ड विश्वविद्यालय और लंदन के विश्वविद्यालय में आयोजित की गयी थी I जबकी आयोजकों और विद्द्वानों को प्रख्याति मिली अपने लिए, और लगातार इसके लिए प्रयास करते रहे “मानसिकता के परिवर्तन के लिए” इस विषय पर, उन्होंने ये स्वीकार किया कि, उनका भू-स्तर पर वास्तव में कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा है इस समस्या के विषय में I इसके तीव्र विषमता में इसके साथ है कई सफल सामजिक सुधार आंदोलन भारतीय परम्पराओं के अपने अभ्यंतर में ही विद्यमान हैं I मधु किश्वर अपने भाषण में स्पष्ट कहती हैं कि, कैसे पश्चिमी निधिबद्ध एनजीओ नारीवादी असफल रहीं किसी भी प्रकार के ग्रामीण सम्पत्ति के प्रभुत्व के नारियों के विरुद्ध में हो रहे पक्षपात में सुधार लाने के, किन्तु कई अन्य विभिन्न आंदोलन जो स्मपूरणतः भारतीय सिद्धांतों और अन्योक्ति पर आधारित थे वे अत्यंत ही सफल रहे I स्वाध्याय आंदोलन एक और महान उदाहरण है बृहत स्तर के सुधार का, सभ्यता के अभ्यंतर, जो वृद्धि करता है देशीय ज्ञान प्रणाली का अपेक्षाकृत नूतन-उपनिवेशी के वृद्धि करने के. कई अन्य अनगिनत सफलतापूर्ण उदाहरण हैं पारम्परिक ज्ञान प्रणाली के प्रयोगात्मक उपयोग के जैसे जल-कृषि फल के क्षेत्र में I


Final part coming soon….

Leave a Reply