नूतन उपनिवेशिता की अक्षरेखा – 6

भारत विखंडन

Translation Credit: Vandana Mishra.

Read 5th Part Here.

वर्तमान में भारत का शासन उपनिवेशी शैली के सामान:

  • हिन्दु धर्म और ईसाई धर्म प्रत्येक, ८०% समावेश हैं भारत एवं यूएसए की जनसँख्या में क्रमश: अतः, दोनों के स्तरों को तुल्य करना उचित है उनके क्रमशः देशों में, अन्य अल्प धर्मों के सन्दर्भ में I निम्नांकित किंचित तुलयात्मक प्रस्तुत हैं जो कदाचित वर्णित किये जाते हैं विद्द्वानों और पत्रकारों द्वारा जो भारत के धर्मों का मनोविश्लेषण करते हैं I अंग्रेजी उपनिवेशक का निरंतर अनुशीलन करना, हिन्दू मंदिर भारत में, जनसेवकों के संरक्षण में हैं जो नियुक्त किये जाते हैं भारत सरकार द्वारा, जिनमें से अधिकांश तो हिन्दू [४८] तक नहीं नहीं हैं I अतः, जब मैं तिरुपति में दान देता हूँ, जो भारत के कई प्रमुख मंदिरों में से एक है, वो धन जनसेवकों के संरक्षण में चला जाता है, और वो तब निर्णय करते हैं कि, कैसे इस धन का उपयोग करना है I तथापि, अल्प धर्मों के उपासना गृह, जैसे इस्लाम और ईसाई के, पूर्णतः उनके प्रबन्धन द्वारा संचालित हैं जो कि, उनके क्रमशः सदस्य हैं, जिसमें किसी प्रकार का सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता है I तुलयात्मक स्थित में, अमरीकी ईसाई अपने विरुद्ध में इस प्रकार के भेदभाव को संभवतः कदापि सहन नहीं करेंगे I ये अविचारणीय है कि, यूएसए के गिरिजाघरों का नियंत्रण और निरीक्षण कोई संघ द्वारा नियुक्त संरक्षक करे विशेषकर यदि वो ईसाई-भिन्न धर्म का हो, उनको मुक्त कर दिया जायेगा, मात्र ये सिद्ध करने के लिए कि, सभी नेता “धर्मनिर्पेक्ष” हैं I 
  • यूएसए में सभी के लिए एक ही नागरिक नियमावली है, विभिन्न धर्मों के विषय में ध्यान दिए बिना. कोई ऐसा पृथक यहूदी नियमावली, या, कैथोलिक नियमावली, या मॉरमॉन नियमावली, या प्रोटोस्टेंट नियमावली, या मुसलमान नियमावली, इत्यादि नहीं विद्मान है, अमरीकी सामाजिक जीवन पर शासन करने के लिए I इसका विचार मात्र ही अमरीकियों के लिए कलंक है I अंततोगत्वा, भारत में एक पृथक और विशिष्ट मुसलमान व्यक्तिगत नियमावली है I भूतपूर्व राजनेता विशेष प्रावधानों के लिए इसी का प्रयोग करते हैं अनुदान देने के लिए I उदहारण के लिए, भारतीय मुसलमान एक ही समाये में ४ पत्नियाँ रख सकते हैं भारतीय नियमावली के अभ्यंतर, यहाँ तक कि, २१ वीं शताब्दी में भी— और इसके पश्चात् भी, इस अल्पसंख्यक परिपोषक नियमावली का समर्थन करना कई बुद्धिजीवियों के लिए आधुनिकता है, अपेक्षाकृत की इसकी निंदा करें मानवाधिकार के  सन्दर्भ में I
  • कल्पना कीजिये कि, अमरीकी स्वीकारात्मक कार्यकलाप कार्यक्रम में १०० अल्पसंख्यक दलों की सूची होती — जिसमें सम्मिलित होते प्रत्येक नाम जैसे मूल निवासी अमरीकी जनजाति, काले निवासी, हिस्पैनिक, इटलीवासी, पोलैंडवासी, जापानी, चीनी, अरबी, भारतीय अमरीकी, रूसी, इत्यादि – जिसमें विद्यालय में भर्ती, कार्यालय में नियुक्ति की प्रतिशतता इत्यादि, प्रत्येक दल के लिए, कोटा आरक्षित होता I कल्पना कीजिये यदि ये “दल” अंग्रेजी सरकार के उपनिवेश नियमानुसार वर्गीकृत किये गए होते, जब उपनिवेशी जनगणना समाज शास्त्र वर्गीकरण का उपयोग करके संचालित करते, अपनी एकपक्षीय ज्ञान के आधार पर I इसके अतिरिक्त, कल्पना कीजिये कि, यही संघीय द्वारा थोपे हुए सामाजिक विभाजन बना दिए जाते एक आधार कई १०० राजनैतिक दलों के लिए, जो प्रत्येक रूप से अपने प्रजातीय मतदान को पाने के लिए प्रतिसपर्धी होते, और उसी के प्रतिनिधि बनकर प्रचार करते और प्रण लेते “क्रय-विक्रय” के सुधार के लिए राज्य से I किंचित अमरीकियों जिनसे मैं ने इस विषय में चर्चा किया है, वे इच्छुक हैं ये मानने में कि, भारत का स्वीकारात्मक कार्यकलाप क्रिया इतनी हास्यास्पद है क्यूंकि ये दृश्य योजना  प्रस्तावित करती है, और इसके पश्चात् भी ये निश्चित रूप से ऐसी है I अपेक्षाकृत की ऐतिहासिक अन्तर जो अनेकों शताब्दियों से व्याप्त है, उसको निकालें, स्वीकारात्मक कार्यकलाप के द्वारा किसी व्यक्तिगत आवश्यकताओं और परिस्थितियों के आधार पर, ये भारतीय “धर्मनिरपेक्ष” उपमार्ग भारत देश के लिए एक विभाजन-सिद्धांत बन चुका है I कास्ट एक परिणाम है राजनैतिक ढाँचे का, और, विलोमतः, कास्ट दृण करता है राजनैतिक अवसरों में आग झोंकने के सामान क्रिया की उत्पत्ति का।
  • “आस्था पर आधारित अगुआई” एक नूतन कार्यक्रम है यूएस सरकार का जो बुश व्यवस्था द्वारा संचालित है, जिसके अनुसार संघीय अनुदान दिए जाते हैं धार्मिक संस्थाओं को सामाज कल्याण कार्य करने के लिए I इसने अत्यंत ही प्रमुख उपद्रव उत्पन्न कर दिया है, दो वृत्तांतों पर: क्या सरकार को कोई अनुदान देना आवश्यक भी है किसी धार्मिक संस्था को; और किस सीमा तक सरकार को अल्पसंख्यक धर्मों को अनुदान देना चाहिए। तथापि, एक अत्यंत ही समानरूपी कार्यक्रम भारत में स्वतंत्रता पश्चात् से ही कर्मशील रहा है I उसके गुण समाचार-योग्य[४९] हैं I (अ) अधिकांश अनुदान जो इस कार्यक्रम के अभ्यंतर भारत में दिया जाता है वो ईसाई और इस्लामी संस्थाओं को जाता है, जबकि वे अल्पसंख्यक हैं I (आ) ये धन की मात्रा जो अल्पसंख्यक धर्मों को दी जाती है वो कभी क्षय नहीं होती है, नूतनकलीन राजनैतिक नीतियों के पश्चात् भी I (इ) किसी ने भी इस दशा की असंतुष्टता प्रकट नहीं किया है, क्यूंकि इसको अतिसामान्य माना जाता है I
  • कई अरबों करोड़ों की भूमि-संपत्ति, भारत में गिरिजाघरों द्वारा स्वामित्व करके रखी गयी हैं, और मुंबई में, गिरिजाघर दुतीय सर्वश्रेष्ठ भूमि संपत्ति के स्वामी हैं, उसके पश्चात् भारतीय सेना है I अधिकांश भूमि अंग्रेजी सरकार के समयकाल में अनुदान के र्रोप में गिरिजाघरों को दी गयी थी, और उसके पश्चात् अनुवर्ती भारतीय सरकारों द्वारा। इतनी उदारता अल्पसंख्यक धर्मों के लिए जो मात्र २.५ % कुल भारीतय जनसँख्या के हैं उसका कोई लेखा-जोखा भी नहीं है. विदेशी द्वारा नियंत्रित गठबंधन जो कई गिरिजाघरों के आपस में हैं, ये तुल्य है अरबों डॉलर की धन-राशि विदेशी संस्थाओं के अनुषंगी को देने के, जो भारीतय समाज का पुनः-अभियांत्रिकी करने में व्यस्त हैं I यूएस की सरकार ने कदापि इस प्रकार की उदारता के विषय में चिंतन नहीं किया अल्पसंख्यक धर्मों को ध्यान में रखते हुए, विशेषकर उन पारसमुद्री स्थानों से जो नियंत्रित किये जाते हों I
  • असंख्य भारतीय कर्मचारी एवं व्यवसायी जो भारतीय पारम्परिक ज्ञान प्रणालियों का उपयोग करते हैं, वे प्रायः सरकार के अनुमान अनुसार अपराधशील गतिविधियों में व्यस्त माने जाते हैं I कई अंग्रेजी-नियमवाली, अभिनीत की गयी थी, भारत का औद्योगीकरण ना करने के लिए और उत्पादन को ब्रिटैन में  स्थानांतर करने हेतु, वर्तमान में भी ये स्थिति गतिमान है. मधु किश्वर ने इस विषय में जागरूकता विस्तार करना आरम्भ किया है, मध्यस्थता और पुनः तोल-मोल के द्वारा इस “शासक-राज्य संबंधों” का भारीतय समाज के विशेष वर्गों में उदाहरण के लिए, उन्होंने एक शिक्षा सम्बन्धी चलचित्र में संकेत दिया है कि, धातु विज्ञान प्रक्रिया जो की भारत में शतब्दियों पूर्व अग्रगामी हुई थी जब अँगरेज़ इस्पात बनाना सीख रहे थे, और उसी ने भारत को विश्व भर का सर्वश्रेष्ठ इस्पात निर्यातकर्ता बनाया था, उसको वर्तमान में भी अपराधी माना गया है I उसी के समरूप, पारम्परिक जानपद अभियांत्रिकी, एक समय जो भारत के बृहत नगर के भवन-समूह के आधारभ्होत थे, वे भारत में वर्तमान में न्यायसंगत नहीं हैं I सरकारी अधिकारी नरंतर पीछा करते हैं गतिविधियों का जो कि, पश्चिमी मानक से अनुवर्ती नहीं हैं, और भारत के पारम्परिक शैली कर्मचारियों को सामान्य अपराधी के रूप में देखते है I

प्रत्येक उपर्युक्त एक उपनिवेश पैतृक सम्पत्ति की भाँति है जिसको सरकार ने और भी गहरा कर दिया है। भारतियों ने अंग्रेज़ों का विस्थापन किया और स्वयं ही उपनिवेशक बनकर, अपने लोगों पर शासन करने लगे। 

सीताराम, एक पत्रकार जो की देशी भाषा के प्रमुख क्षेत्रीय प्रकाशन बेंगलुरु में, प्रतिबिंबित करते हैं मूर्खतापूर्ण पदवी जो कई भारतीय “बुद्धिजीवियों” द्वारा ली गयी है धर्मनिरपेक्षता और राजनैतिक संशोधन के नाम पर I

ये इस देश की बृहत त्रासदी है कि, धाहरमनिर्पेक्ष, सनातन धर्म, सामाजिक न्याय, दलित उद्धार इत्यादि अन्य कई शब्द जिनको सर्वश्रेष्ठ, महान लक्ष्य और आदर्श माना जाना चाहिए किसी भी शिष्ट समाज में, ….. वो बन चुके हैं एक क्रीड़ावास्तु इन तुच्छ राजनेताओं और देश-द्रोहियों के हाँथों में जो लोगों में फूट डाल कर अपने स्वार्थ और व्यक्तिगत लाभ का आनंद उठाते हैं चाहे समाज को कितने ही अशान्तियों में रहना पड़े, और अन्य की चिताओं से अपने आपको गर्म रखते हैं I विडम्बना ये है कि, जो अधिकतर इस दशा के लिए उत्तरदाई हैं वे अव्यवहारिक बुद्धिजीवी।  ….क्यूंकि इन बुद्धिजीवी के अपने तर्कहीन व्यवहार के कारण अब ऐसा होगा गया है कि किसीको भी जिसको स्वयं को धर्मनिरपेक्ष दर्शाना है, उसको अनिवार्य रूप से  तथाकथित वामपंथी बनना होगा, और समाज को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, या ब्राह्मण-ब्राह्मण-भिन्न, या अग्रसर-दलित के आधार पर विश्लेषण करना होगा I उसको, अतः,  भाषान्तर करना होगा, बिना अपनी महत्वपूर्ण विशेषाधिकारों का उपयोग किये, कोई भी घटना जो घटित होगी इस देश में जिस से कि, वो दिखा सके कि, वह एक वामपंथी है, ब्राह्मण विरोधी और दलित समर्थक है I यदि नहीं, तो उस पर संकट होगा उसकी छटनी का और उसको प्रगतिवाद बुद्दिजीवियों की इच्छित वर्ग से दूरस्थ कर देने का I वर्तमान काल में, प्रगतिशील बुद्धिजीवी समाज का सदस्य माने जाने के लिए, अब पुरातनकाल की भाँति किसी तर्क, या वेदांत, या मीमांसा, यहाँ तक कि, कोई भूगोल, या इतिहास, या विज्ञानं, का विद्द्वान होने की आवश्यकता नहीं है….. बस इतना ही पर्याप्त है कि, वो उपरोक्त बताई हुई नीतियों का पालन करे ……. [५०]”

ये अव्यवहारिक बुद्धिमानता प्रायः एक व्यायाम है तुलना करने का अनुचित-परिभाषित या अयोग्य शब्दों का I एक इसी प्रकार का शब्द है जिसका विखण्डि करने योग्य है, वो है ” कट्टरवादी।” मैंने प्रयत्न किया है कट्टरवादी शब्द की परिभाषा उन अव्यवहारिक बुद्धिमानों से जानने की, इस परिस्थिति में कि, हमको इसे सभी दलों पर समानरूप से लागू करना होगा, ये सुनिश्चित करने के लिए कि, कोई भी निर्धारित दल कट्टरवादी है या नहीं। मैंने निम्नलिखित पृष्टभूमि प्रदान किया है इस व्यायाम में सहायता करने के लिए:

१. यदि पुरातन लेखों के शब्दवादी  भाषान्तर किसी को कट्टरवादी घोषित करते हैं, जैसा की आरोप लगाया गया है उन हिन्दुओं पर जिन्होंने पुराणों का भाषान्तर किया है इस प्रकार से, तब अधिकांश अमरीकी ईसाई और यथार्थता सभी मुसलमान इस विश्व के, कट्टरवादी सिद्ध होंगे, क्यूंकि वे निश्चित रूप से बाइबल और कुरान, क्रमशः, यथाशब्द सत्य मानते हैंI

२. यदि कट्टरवाद का अर्थ है मात्र अपनी ही आस्था ही एक सत्य है, और अन्य की आस्थाओं का बहिष्कार न्यायसंगत है, तब, परिभाषा अनुसार, वो आस्थाएं जो मात्र एक ही ऐतिहासिक ईश्वरोक्तियों—तीनों अब्राहमिक धर्म—संभवतः कटटरवादी हैं I

३. यदि “कट्टरवाद” का अर्थ है परिवर्तन की अनिच्छा, तो उदार-बुद्धि के आधार पर निरिक्षण से, तब तो वह “रूढवादिता”(एक विरोधाभास “उदरपन” का) के समतुल्य है I इस सन्दर्भ में, अधिकांश “वामपंथी” वर्तमान में कट्टरवादी हैं, क्यूंकि वे उदार नहीं हैं नूतन निरिक्षण के अनुगमन के लिए, और प्रतीत होते हैं पनपने के, पुरातन युग के आदर्श प्रतिरूपों के विचारों की पुनरावृत्ति से I

४. यदि अपनी आस्था को पूरे समाज पर थोपने का विषय चर्चा योग्य हो, तब मैं संभवतः श्रेष्ठ परिभाषा अर्थात “धार्मिक राष्ट्रवाद ” को मानूँगा। प्रत्येक इस्लामी राज्य, जिसका अर्थ है यथार्थता इस विश्व में प्रत्येक मुसलमान बहुसंख्यक राष्ट्र, संभवतः इसके योग्य होंगे I

मुझे अभी भी परिभाषा की प्रतीक्षा है. ऐसा प्रतीत होता है कि, “कट्टरवादी” परिभाषा का प्रयोग किया जा रहा है किसी के भी विरुद्ध जो चुनौती देते हैं पदधारी दल के व्यवसाय-संघ विचारधारा को I किन्तु ये कहने के पश्चात् भी ऐसे, निश्चित रूप से, हिन्दू है जो असहिष्णु हैं, शब्दवादी, उग्र राष्ट्रवादी, और अन्य कई इस प्रकार के हिन्दू हैं, जैसे किसी और अन्य विचारधारा में भी होते हैं I किन्तु उन सबको एक ही मापदंड से नहीं तोला जा सकता है I

भाग ३: कांच की छत:

मेरा पूर्वी सुलेखा लेख, जिसका शीर्षक था, “दी एसिमेट्रिक डायलॉग ऑफ़ सविलाइज़शन (सभ्यताओं के वार्तालापों की असममित),” जो आधारित थी एक  संभाषण पर, अमरीकी धार्मिक शैक्षिक परिषद् में (२००१), देता है एक संक्षिप्त विवरण प्रबल सभ्यता की भूमिका का, कांच की छत के ऊपर से जिससे कि, निर्माण और पोषण किया जा सके नुतनुपनिवेशिीता का[५१] I अतः, मैं वो सूचना यहाँ प्रतिकृति नहीं करना चाहता हूँ I

इंडेन का उद्धरण किया गया है उपरोक्त भाग २ में समझाते हुए कि, पश्चिमियों ने “अन्य” का प्रयोग किया है, विशेषकर भारत में, स्वयं को परिभाषित और निर्माण करने के लिए I ये दोनों स्तरों पर हुआ है शारीरिक और बुद्धि समधरातल। बौद्धिक ज्ञान का हथियाना वर्तमान में भी निरंतर गतिमान है I

यू-टर्न (प्रतीप मोड़) प्रणाली मेरा ढांचा है इस प्रकार के विनियोजन के विवरण के लिए, जिसके द्वारा पश्चिमी अपने बौद्धिक ज्ञान की वृद्धि कर रहे हैं, और ये निम्नलिखित चरणों में है:

१. छात्र/शिष्य: इस चरण में, पश्चिमी अत्यंत ही निष्ठावान रहते हैं भारतीय परम्परों के, और अत्यंत ही आदरपूर्वक लेखिते हैं. कई उद्धरणों में तो, भारत ने उनको स्वयं के “अन्वेषण/शोध” करने में सहायता किया है I

२. विरक्त/नूतन काल/चिरस्थायी क्षेत्र: इस चरण में, भारतीय विनियोजनों को पुनः नए रूप में लपेटा जाता है “वास्तविक” होने की घोषणा से विद्द्वानों द्वारा, और/या अनुमान लगाया जाता है कि, ये एक सामान्य विचार है जो सभी सभ्यताओं में व्याप्त हैं I कई उद्धरणों में तो, इसको अपने व्यवसाय विस्तार के लिए पुस्तकों, पंजीकृत कर और समारोहों के लिए किया जाता है, इसको “कास्ट, काउस एंड करी (कास्ट, गाय और कढ़ी)” परंपरा से पृथक कर के I

३. मुख्य अभिनेता की वापसी अपने वास्तविक अनुवाद की ओर: विद्द्वान उस ज्ञान को जूदाइज़्म या ईसाई धर्म में सम्मिलित करते हैं, अपने स्वयं की परम्पराओं की वृद्धि के लिए, क्यूंकि एक बार जब उनका अभिमान सर्वश्रेष्ठ हो जाता है तब यही व्यष्टित्व दृढ़तापूर्वक अपना अधिकार व्यक्त करती है I विकल्पत:, विद्द्वान पुनः ज्ञान को लपेट कर एक धर्मनिरपेक्ष देशी भाषा की सामग्री के रूप में बना देता है, जैसे “पश्चिमी मनोविज्ञान” या “तत्व/घटना विज्ञानं(फिनोमिनोलॉजी)” या “वैज्ञानिक” ढाँचा। अब उनकी बिक्री वृद्धि हुई है, जैसे की पश्चिमी दर्शक अपने हाँथों को प्रफुल्लता से मलते हैं, स्वयं को बधाइयाँ देते हुए अपनी सभ्यता के कृत्रिमता के लिए I

४. स्रोतों की निंदा करना: इस चरण पर वो विद्द्वान हैं जो कुशल हैं भारतीय परम्परों के स्रोतों को कूड़ेदान में I

५. सिपाईयों और बेचारियों को संगठित करना: मैंने पहले ही सिपाही की परिभाषा की थी, एक भारतीय जो पश्चिमी आयोजकों का प्रतिनिधि है I बेचारियाँ वो महिलाएं हैं जिन्होंने अति प्रयोग किया है “मुझे प्रताड़ित किया गया है” भूमिका को, जिससे की उसको नाटक का रूप दे सकें बिंदु (४) विषय I इस निबंध के भाग २, ने उन पर केंद्रित किया है I

यूरोपी उपनिवेशी लेखकों ने भारत को एक नाट्यशाला के रूप में देखा जहाँ पर उनके इतहास को दर्शाया जा रहा था, अपेक्षाकृत कि, उसको भारतीय दृष्टिकोण से देखते I इसी प्रकार कई जुडिओ-ईसाई विद्द्वान हिन्दू धर्म का अध्ययन अपने व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्रा के लिए करते हैं अपने मूल धर्म को समृद्ध बनाने के लिए [५२] I

प्रत्येक विषय में सभी चरण नहीं होते हैं, और सभी चरण कथित कर्मानुसार भी सर्वदा नहीं होते हैं. प्रायः विद्द्वान अपने आजीविका का अंत इन में से किसी विशेष चरणों में यू-टर्न प्रणाली से करते हैं और उनके उत्तराधिकारी उनके कार्यप्रणाली [५३] को आगे बढ़ाते हैं I ये महत्वपूर्ण है जानना कि, यूरोकेन्द्रिक प्रायः अज्ञानकृत एवं अचेतावस्था में होतो है, क्यूंकि वो व्यक्ति इतना तल्लीन होता है पश्चिमी मिथ्या में, कि, उसको उचित कार्य करने योग्य अनुमान लगा लिया जाता है [५४] I

इस यू-टर्न ने एक हाँथ से सम्पति को लूटने का कार्य किया है और दुसरे हाँथ से पीड़ित को अपमानित करने का कार्य किया है I पूर्वकालीन, ग्रीक निवासियों ने अपनी सभ्यता को बृहत रूप से मिस्र की सभ्यता से लूट कर समृद्ध किया था I ईसाई धर्म ने, ईसाई-भिन्न धर्मों के ग्रीक वासियों की विचारधारा को लूट कर अपनी सभ्यता को समृद्ध किया, किन्तु उन्हीं ईसाई भिन्न ग्रीक वासियों की निंदा भी की I

अतः, भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों को विकृत करना, और साथ ही उनको लूटना कई यु-टर्न करनेवाले विद्द्वानों के माध्यम से, एक महत्वपूर्ण प्रणाली है पश्चिमी मिथ्या के भरण-पोषण के लिए I

किंचित शैक्षिक संस्थाएं, जैसे कि, रीसा (रिलीजोंस इन साऊथ अफ्रीका), एक गढ़गज है ऊधमी यूरोकेन्द्रिकवाद का I देखिये मेरे “सभ्यताओं के वार्तालापों की असममित” निबंध जो उपरोक्त प्रसंगों में अत्यंत ही विस्तार से वर्णित किया गया है I मेरा वो भी निबंध देखिये, “हू स्पीक्स फॉर हिन्दुइस्म? (कौन बोलता है हिन्दुओं के लिए?) [५५]” ये विद्द्वान, कक्षाओं का नियंत्रण न्यायालय की भाँति करते हैं, जिनमें छात्र प्रायः सरलमति होते हैं और उनको वो दृष्टिकोण नहीं दिया जाता है जो इन विद्द्वानों को चुनौती दे सकें।

उदाहरण के लिए, हच.सी.एस(हिन्दू ईसाई अध्ययन) स्थापित किया गया था शैक्षिक विद्वानों द्वारा इन दोनों धर्मों के बीच विशेषतः वार्तालाप करने के लिए I किन्तु चर्चाएं मात्र केंद्रित रहीं मुख्यतः हिन्दुओं के ईसाई दृष्टिकोणों पर, और साथ ही उन पँक्तियों के साथ “कास्ट, काउ एंड करी” मूल विषय भी सम्मिलित रहे I तथापि, यदि किंचित हिन्दू प्रयत्न करते हैं चर्चा करने की उन कास्ट के विषयों पर जो भारतीय इसाईओं में व्याप्त है, सामाजिक प्रताड़ना जो इसाई बहुसंख्यक देशों में है, इत्यादि., तो उनको कठोरतापूर्वक प्रताड़ित किया गया लांस नेल्सन द्वारा, वो विद्द्वान जो, हच.सी.एस के उत्तरदायी हैं I  जब ये सफल नहीं हुआ, तो उन्होंने हिन्दुओं को बहिष्कृत कर दिया, मात्र उन हिन्दुओं को छोड़कर जो ईसाईयों के नेतृत्व में कार्य कर रहे थे, और यहाँ तक कि, अवरुद्ध कर दिया सार्वजनिक अभिगम्यता का चर्चा के कोषों में[५६] I”

समान रूप से, रीसा सदस्यता व्यावसायिक हिन्दुओं, हिन्दू पंडितों, गुरुओं, स्वामियों, सभी के लिए अवरुद्ध है, जबकि, ये माना जाता है शासकीय विद्द्वानों का दल जो दक्षिण एशियाई [५७] धर्मों के विषय में स्थापित है I

दोनों, हच.सी.एस और रीसा कई क्षमायाचनायें करते हैं इस प्रकार लोकसिद्ध ब्राह्मण की भाँती व्यवहार करने के लिए और हिन्दुओं को शूद्रों की भाँती व्यवहार करते हैं. उदाहरण के लिए, वे घोषणा करते हैं:

(१) व्यावसायिक हिन्दुओं को अपनी ही परंपरा [५८] के विषय में ज्ञानी होना, योग्य नहीं माना जाता है I

(२) अधिकांश हिन्दुओं में आभाव है महत्वपूर्ण विचार और/या उचित “शैली” के प्रस्तुतिकरण गुणों का जो इन अभिमानी दर्शकों के मध्य प्रवेश करने की क्षमता रखेंI

(३) ये हिन्दुओं के हित में है कि, वे अपनी ही “भलाई” के लिए ईसाईयों को नियंत्रण दे दें, जिससे कि, हिन्दुओं को मार्क्ससवादीयों से बचाया जा सके I और इस प्रकार अन्य भी I

ये “प्रतिबंधित” (और कभी कभी “गुप्त”) समाज, प्रयोग करते हैं अपमानजनक भाषा का उन हिन्दुओं के विरुद्ध, जो इनके आधिपत्य का उपपथन करते हैं I इन हिन्दू-प्रहारों के पुरालेख चर्चाओं का अब भविष्य काल के लेखों के लिए, शोध करने की प्रक्रिया चालू है I  चूँकि उनके अभीष्ट दर्शक पूर्ण ज्ञानी एवं आत्मविश्वासी नहीं हैं, वे प्रायः अत्यंत ही लज्जित हो जाते हैं, भयभीत और/या क्रोधित हो जाते हैं जब ऐसे हिन्दू उनके लेखों का पता लगा लेते हैं और सर्वत्र हिन्दू दर्शकों के सामने सार्वजानिक रूप से इन लेखों को पढ़ना आरम्भ करते हैं I

हिन्दुओं के नियंत्रण का लुप्त हो जाना अपने ही छात्रवृति का शताब्दियों पूर्व, एक अत्यंत ही चमकीले और आकर्षक परंपरा के “हिमकारी” हो जाने का कारण है I जहाँ ईसाई धर्म ने अग्रगमन किया रचनात्मक आध्यात्मविद्या के संग(उदाहरण के लिए, निवारण  आध्यात्मविद्या), वहीँ हिन्दू धर्म की छात्रवृति हिन्दू-भिन्न लोगों के संरक्षण के नियंत्रण में रही I वर्तमान में, जब हिन्दू पुनः-व्याख्या करते हैं अपने लेखों का, उनको समय के उपुक्त बनाने के लिए तो,  उनको  दांभिक मानकर पदच्युत कर दिया जाता है, जबकि अन्य सभी प्रमुख धर्म इस विशेषाधिकार का आनंद लेते हैं I 

जहाँ यथाशब्द बाइबल की व्याख्या को उचित सम्मान दिया जाता है, और ये यथाशब्द विश्वास है लगभग आधे अमरीकी इसाईओं[५९] का, वहीँ जब हिन्दू अपनी छात्रवृति आधारित करते हैं अपने यथाशब्द पुराणों के व्याख्याओं पर, तो उनको “फ़ासिस्टवादी”, “कट्टरवादी” इत्यादि अन्य कई निन्दाओं का सामना करना पड़ता है I परिषद प्रोत्साहन नहीं देते हैं हिन्दू वर्गों के उपयोग का, ईसाई धर्म के विखंडन और आलोचना करने के लिए, उसी प्रकार से जैसे ईसाई विशेष विधि बाइबल को पढ़ने की नियमतः उपयोग होती है हिन्दू धर्म के विखंडन के लिए I

ये सामान्य है हिन्दुओं से अपेक्षा करना पश्चिमी शैक्षिक परिषद में कि, वे अपना दासों जैसे स्थान प्रतिग्रहण अभिस्वीकारें और इसके लिए कृतज्ञ बने रहे I वे विरोध करने के लिए उन समान अधिकारों के अधिकारी नहीं हैं ; ना ही उनका नियमतः आदर एकचित्त है — परिवर्तनशीलता का सत्य अधिकार के साथ और आदर मुसलामानों को दिया जाता है और अन्य अल्पसंख्यक धर्मों को यू.एस.ए में उनकी अटलता एवं मांग पर दिया जाता है ये आश्चर्यजनक नहीं है, अतः, कई अधिकांश भारतीय अमरीकी हिन्दू सीमाबद्ध रखते हैं अपने धार्मिक अभिव्यक्तियों को ८०० हिन्दू मंदिरों की भित्तियों के भीतर उत्तर अमेरिका में, और “गोर हिन्दू” प्रायः प्रधानता देते हैं अपनी पूजा-पद्धति को छिपा कर रखने की नूतन काल के आवरण में I


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