कई हिन्दू ऐसा मानते हैं कि अगर भारत में गरीबी है और गरीब लोगों का धर्मान्तरण (Conversion) हो रहा है तो इसमें गलती सरकार की है, ईसाई मिशनरी की नहीं. ऐसा कह कर वे अक्सर अपने ईसाई दोस्तों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखना चाहते हैं.
इस वीडियो में राजीव मल्होत्रा कारण बताते हैं कि चाहे गरीबी हो या न हो, ईसाई मिशनरी जो धर्मान्तरण का कार्य कर रही हैं वह नैतिक दृष्टि से क्यों गलत है.
प्रश्न: (एक भारतीय एन आर आई /NRI) – मैं न्यू जर्सी नेशनल असेंबली का सदस्य हूँ. मैं आपकी बातचीत सुन रहा था जहाँ आपने कहा कि विभिन्न पंथों के समूह भारत में आ रहे हैं और धर्मान्तरण का कार्य कर रहे हैं. मेरा प्रश्न है कि क्या यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि समाज में आर्थिक समानता हो? मेरे विचार से एक मुक्त समाज में खुले अवसर होने चाहिए. अमेरिका में भी धर्मान्तरण के कई प्रयास होते हैं. खुद मेरे ही पास जेहोवाह विटनेस वाले आते हैं और अपने प्रयत्न करते हैं. इसमें क्या गलत है? यह तो सच्चा लोकतंत्र है.
असल में कारण क्या है कि अगर मैं गरीब हूँ और मैं अपने परिवार का पालन पोषण नहीं कर पाता हूँ, अगर मेरे पास शिक्षा नहीं है, मेरे पास कोई भविष्य नहीं है, आगे बढ़ने की कोई उम्मीद नहीं है – मैं ऐसे लोगों की तलाश मैं हूँ जो यह सब दे सकें – अब अगर कोई ईसाई मिशनरी या इस्लामिक संगठन आकर मेरा धर्मान्तरण कर रहे हैं (तो इसमें क्या गलत है?). यह तो सरकार की ज़िम्मेदारी है कि सभी को समान अवसर प्रदान किये जायें. मेरे विचार से तो यह तो सरकार की पूरी विफलता है कि उसने सभी को समान अवसर नहीं दिए हैं – अब यह लोग सिर्फ जिंदा रहने के रास्ते ढूंढ रहे हैं. इसलिए मैं आपके विचारों से सहमत नहीं हूँ.
राजीव जी का उत्तर – देखिये, एक मुक्त समाज में नैतिक ज़िम्मेदारी भी होनी चाहिए. किसी के भी पास असीमित आज़ादी नहीं है, किसी बिज़नस के पास असीमित आज़ादी नहीं है – वे गलत विज्ञापन नहीं दे सकते हैं – अगर वे अपने उत्पाद के बारे में गलत दावे करेंगे, तो उनपर कानूनी कार्रवाई हो सकती है. अगर मैं कहीं जाकर यह कहूं कि आपका पंथ आपको नरक में ले जायेगा – क्या मैं इस बात को साबित कर सकता हूँ?
लेकिन क्योंकि यह पंथ प्रचार की बात है इसलिए इस बात को अनदेखा कर दिया जाता है.
इसी तरह अगर मैं कहूं कि मेरा पंथ आपको मुक्ति (मोक्ष) देगा – क्या मैं इस बात को साबित कर सकता हूँ? नहीं.
इस प्रकार अगर आप मुक्त अर्थव्यवस्था का मॉडल धर्मान्तरण में लगायेंगे तो आपको नैतिक ज़िम्मेदारी का भी मॉडल लगाना होगा.
आप मुक्त अर्थव्यवस्था में अपने प्रतिद्वंदी की ठीक से खबर ले सकते हैं अगर वह अनुचित प्रतिद्वंद्विता करे और आपकी अनुचित बदनामी करे.
पर क्या आप एक प्रतिद्वंदी पंथ की खबर ले सकते हैं, क्योंकि वह आपकी अनुचित बदनामी कर रहा है? नहीं.
तो मेरा पहला बिंदु है कि अगर आपको पंथ प्रचार के क्षेत्र में समान अवसर चाहिए तो आपको पंथ के क्षेत्र में जवाबदेही (accountability) भी तय करनी चाहिए.
तो अगर आप कॉर्पोरेट मॉडल को यहाँ लगाना चाहते हैं तो पूरी तरह लगाइए. कॉर्पोरेट की तरह हमें पारदर्शिता (transparency) भी लानी होगी, और कॉर्पोरेट प्रकटन (disclosure) भी लाना होगा.
आपको बताना होगा कि पैसा कहाँ से आ रहा है और आप उस पैसे का क्या इस्तेमाल करते हो. आपको बताना होगा कि आपकी कार्यपद्धति नैतिक है कि अनैतिक है?
यह तो बात हुई समान अवसर / आज़ादी की.
अब आते हैं दूसरे बिंदु पर – यह बड़ा आम तर्क है – कि अगर गरीब लोग हैं, तो मैं उनका शोषण कर सकता हूँ – मुझे इसकी आज़ादी है – आखिर मैं एक प्रस्ताव ही तो दे रहा हूँ – लोग चाहे तो मेरा प्रस्ताव ठुकरा दें.
मगर इसी तरह के तर्क से आप नशीली दवाओं का भी प्रचार कर सकते हैं. या आप लोगों को गुलाम बना सकते हैं या उन्हें वैश्यावृत्ति के लिए उकसा सकते हैं – और आप यह कह सकते हैं – कि यह तो मुक्त अर्थव्यवस्था है – मैं कोई ज़बरदस्ती तो कर नहीं रहा हूँ. अब अगर वे लोग मेरे प्रस्ताव मान ले रहे हैं क्योंकि वे गरीब हैं तो इसमें मेरा क्या दोष? इसमें दोष तो उनकी गरीबी का है. या आप यह कह सकते हैं, कि गलती तो सरकार की है जिसने उन्हें पर्याप्त अवसर नहीं दिए, इसलिए मैं तो उनका शोषण करने के लिए स्वतंत्र हूँ.
इसलिए मेरा यह दृढ़ता से मानना है कि जिस तरह का शोषण यह तथाकथित “फर्स्ट वर्ल्ड” के चर्च इन तथाकथित तीसरे दर्जे के नागरिकों का करते हैं – जिस तरह से उनकी गरीबी को उनके ही खिलाफ इस्तेमाल करते हैं – यह पूरी तरह अनैतिक है.
एक और बात. आप उन गरीब देशों की सरकारों पर दोषारोपण कर सकते हैं मगर इन देशों का औपनिवेशिक (colonial) इतिहास रहा है. इन देशों कि विकास दर ५ % से ८ % तक रही है , और अगर वे १० % की दर से भी तरक्की करें तब भी उन्हें गरीबी से बाहर निकलने में कम से कम १०० साल लग जायेंगे. तो ऐसा नहीं है कि फर्स्ट वर्ल्ड के देश और थर्ड वर्ल्ड के देश शुरुआत में एक समान थे. इन तथाकथित फर्स्ट वर्ल्ड के देशों ने सैनिक अभियानों द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में नयी जमीनों / देशों पर कब्ज़ा किया था. आपको पता ही है किस तरह उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका में ज़मीनों पर कब्ज़ा किया – मैं उस इतिहास में नहीं जाना चाहता.
आज अगर इन देशों के पास पैसा है तो ऐसा नहीं है की वो पैसा आसमान से आ गया था, बल्कि इसका कारण है सोची समझी और हिंसक औपनिवेशिक (colonial) नीति. अब अगर यह देश कहें कि देखो हम इतने अमीर हैं, और तुम लोग गरीब हो और इसलिए हम तुम्हारे साथ जो चाहे कर सकते हैं – यह नैतिक दृष्टि से सही नहीं है.
कुछ तथ्य: भारत में सरकार के बाद सबसे ज्यादा जमीन चर्च के पास है. यह ज़मीन उन्होंने कोई बाज़ार से पैसा देकर नहीं खरीदी थी. ब्रिटिश राज के समय अंग्रेजों ने बड़ी बड़ी ज़मीनें इन चर्चों को दे दी थीं. आप देखिये यह सभी चर्च एकदम प्रीमियम जगह बने हैं, इनके स्कूल, सेमिनरी आदि भी सबसे महंगी ज़मीन पर बने हैं.
तो अगर ईसाई मिशनरी के पास पैसा है या पश्चिमी देशों के पास पैसा है तो क्या यह पैसा उन्होंने प्रतिस्पर्धा कर के कमाया है या अनैतिक तरीके से कमाया है?
इसलिए जब हम धार्मिक स्वतंत्रता की बात करें तो हमें नैतिक ज़िम्मेदारी की भी बात करनी होगी. अगर कोई भी दावा किया जाये तो वो नैतिक दृष्टि से सही होना चाहिए, कोई गरीब है तो इस बात का फायदा नहीं उठाना चाहिए, दूसरे विचारों के लिए द्वेषपूर्ण भाषण (hate speech) नहीं देनी चाहिए. मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि भारत में चर्च के लिए सम्मानपूर्वक बात होगी कि वह यह ज़मीन लौटा दें. अगर भारत में २.५ % ईसाई हैं तो चर्च को केवल २.५ % ज़मीन (सभी पंथों के पास जो ज़मीन हो) रखकर बाकी लौटा देनी चाहिए – और यह कहना चाहिए कि देखो हम नैतिक तरीके से अपना कार्य करते हैं.
अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो इस तरह की बात करना कि अरे हम तो समान अवसर में यकीन रखते हैं और क्योंकि आप गरीब हो और आपकी सरकार आपकी समस्या नहीं सुलझा पा रही तो हम आपकी इस दशा का फायदा उठा सकते हैं – यह तो बड़ी अनैतिक बात है.
डॉ. सुब्रमनियन स्वामी – भारत में जो धर्मान्तरण की गतिविधियाँ चल रही हैं उन्हें भारतीय चर्च नहीं चला रहे हैं. कई भारतीय चर्च और कई ईसाई यह कहते भी हैं कि इस तरह का धर्मान्तरण एक बड़े स्तर पर विदेशी पैसे से चलता हुआ कारोबार है.