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‘आ ‘ का तात्पर्य — विश्व दृष्टिकोण से प्रतिस्पर्धा:
यद्दपि कृपाल का सिद्धांत ‘अ’ मुझे अनुमति देता है प्रतिरक्षा के लिए उन दृष्टिकोणों की विभिन्नता के विषय में, और, अतः, अभिलाषा है विद्द्वानों के विभिन्नता की, उनके ‘आ’ सिद्धांत कहते है कि ये विभिन्न दृष्टिकोण पूर्णत: कदापि सामंजस्य नहीं हो पाएंगे।
ये एक गंभीर प्रश्न को उठता है: इन विभिन्न दृष्टिकोणों में से कौन से, व्यापक रूप से, इस विचारों के विपणन एवं कक्षा में रह पाएंगे, जब दिया गया हो समय और अंतराल के खंड अत्यंत ही लघु हैं, तुलना में, वस्तुओं की प्राप्य पर, अतएव विवेचनात्मक, चयन अनिवार्य होना चाहिए, कि किस घुमाव से हिन्दू धर्म को प्रस्तुत किया जायेI
यहीं पर प्रबल सभ्यता की प्रभुत्वता का उपयोग किया जाता है—क्षात्रवृद्धि के विभाजन के नियंत्रण में, संचार माध्यम एवं कक्षा शिक्षण में——–परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म को अर्थों के विस्तृत श्रेणी में, छाँट-काट कर निचले स्तर पर रखा जा रहा हैI
इस असममित विभाजन को समझने के लिए, ध्यान दीजिये कि किस प्रकार कृपाल निष्कर्ष निकालते हैं ये कहते हुए: “थैंक उ अगेन फॉर गिविंग मी अ वॉइस (आप सबको पुनः धन्यवाद, मेरा समर्थन करने के लिए).”[७९] तथापि, उनको पुनः स्मरण करवाना होगा कि उन्होंने रामकृष्ण मिशन का कदापि समर्थन नहीं किया है जो कुछ भी उनका दृष्टिकोण हो उनकी क्षात्रवृद्धि देने के विषय में.
उन्होंने निस्संदेह बहिष्कार किया स्वामी त्यागानंद के प्रत्युत्तरको प्रकाशित होने से सममूल्य अपने कार्य की तुलना में, इस प्रकार, त्यागानन्द के कार्य की भी तालिका बनती, अनुक्रमणिका बनती एवं उसका वितरण होता उतने ही विस्तार से जैसे उनका हुआ हैI (यह मुझे स्मरण करवाता है कई ईसाईयों के पद के विषय में जो “सह” लेते हैं अन्य धर्मों को किन्तु उनका “सम्मान” नहीं कर सकते, क्यंकि उत्तरवर्ती संभवतः समान न्यायसंगत होगा अपने अधिकारों मेंI ये ऐब्राह्मिक आदिरूप एकान्तिकता प्रतीत होता है कृपाल के निर्णय को बढ़ावा देते हुए जो त्यागनन्द के दृष्टिकोण को नहीं उपलब्ध होने देगा उनकी अपनी धरणा के रहते, और साथ ही साथ, कृपाल घोषणा करते हैं नवाचार, उन्मुक्तता एवं उदारतावाद कीI)
यही हैं वो विशाल मात्रा में पूँजी पानेवाले एवं राजनैतिक समर्थन पानेवाले, प्रकाशन-संघ द्वारा क्षात्रवृद्धि का प्रकाशिन एवं उसका विस्तार करनेवाले, जो न्यायसंगत करते हैं कुछ “छानबीन या विश्लेषण की प्रविधि,” और वो लाता है तिरछा एवं असंतुलित ” फिवशन ऑफ़ होराइज़न (क्षितजों का मेल)I”I “रैडिकलि निव विशन (मूलतः नवीन दृष्टि)”, इसी कारण, रूपांतरित किये जाते हैं ए.ए.आर पुरस्कार द्वारा, और अन्य सम्मान, हारवर्ड नियुक्ति, एवं वेंडी के बच्चों और घनिष्ट मित्रों द्वारा संरक्षण इत्यादि सेI”
यद्दपि क्षात्रवृद्धि का उत्पादन सार्वजानिक है, प्रसारण ही निर्धारित करता है कि किसने प्रभावित किया है मानदंड के आकृति रचने में. हिन्दू धर्म के क्षात्रवृद्धि का प्रसारण का खैबर पास विद्द्वत्परिषद में सावधानी से नियंत्रित किया जाता है कुछ मुट्ठी भर उच्च-मोर्चाबंदी दानव विद्द्वानों द्वारा। इस खैबर पास में दैनिक पत्रिका, महाविद्यालय प्रकाशन, नियुक्ति-समिति, पाठ्यक्रम विकाशन एवं समारोह सम्मिलित हैंI
उदाहरण के लिए, वेंडी की पुस्तकें अधिकतम व्यापक रूप से विद्यालय में हिन्दू धर्म के पाठ्यक्रम में निर्धारित की जाती हैंI वे विश्व धर्मों के विश्वकोश की सम्पादिका भी हैं, जो की प्रभावशाली कार्य निर्देश हैI जनश्रुति की माने तो वे, नवीन हिन्दू धर्म के विश्वकोश की भी सम्पादिका हैं, जो की रूटलेज प्रकाशन द्वारा योजनाबद्ध हैI
रीसा(RISA) के नीतिग्रंथ:
चकित करनेवाला विषय है की: कौन, यदि, निरिक्षण या समीक्षा कर रहा है सत्ते के ढांचे कि एवं रीसा की प्रणाली के और उस से सम्बंधित सत्ताओं के, एक स्वतंत्र एवं स्वायत्त परिदृश्य से?
एक ये भी नीतिपरक प्रश्न उठता है, उन विद्द्वानों पर जो भारतीय परम्पराओं का दुरूपयोग करते हैं अपनी निजी संपत्ति समझकर, या अपने प्रायोजकों के विचारधारा के प्रतिनिधि बन कर, और फलस्वरूप अपनी क्षात्रवृद्धि को खनिज अन्वेषण-यात्रा में परिवर्तित करकेI
वेंडी के बच्चों (वेंडिस चाइल्ड) का परिलक्षण
विकृति विज्ञान:
विद्द्वान, परिवर्जित नहीं कर सकते, अनिच्छापूर्वक अपनी मनोमिति और अपने सभ्यता के अनुबंधन को अपनी क्षात्रवृद्धि पर, पहले से ही अपने रूचि के विषय का चयन करके, आंकड़ों को छान के, आंकड़ों को भाषाविज्ञान और प्रणाली सम्बन्धी दृष्टि से देखते हुए, जो उनके कार्यवाली को या निजी मनोवृत्तिपरक की विनती करे,— ये सभी पूर्व निर्धारित धरणा सूत्रीकरण के करने के उद्देश्य सेI
हम सबको जेफ्फ कृपाल को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने, इन विद्द्वानों के, आचरण के प्रतिलिप के विषय में, शोध के, द्वार खोले, जिसको मैं ने पारिभाषिक किया है वेंडिस चाइल्ड सिंड्रोम (वेंडी के बच्चों का परिलक्षण) नाम सेI अब वे कदाचित ही इस अवस्था में हैं कि वे इस परिक्षण का रुकाव कर पाएँ, या इसे अशिष्ट या अनुचित बोल पाएँ। काली की तुलना में वेंडी अत्यंत बृहत सत्ता की प्रबंधक हैं पश्चिम शैक्षणिक समुदाय में, और पूर्ण रूप से कुछ शैक्षणिक शिक्षण की प्रशंसा करने के लिए, उनके कुल के मनोविकृति पर उनके प्रभाव की क्रीड़ा का अध्ययन अवश्य करना चाहिएI
किसी को भारत के पश्चिमी विद्द्वानों के मनोवृत्तिपरक का वर्गीकरण करना आवश्यक हैI निम्नलिखित पँक्तियों में इस प्रकार की वर्गिकी, का आरम्भ किया गया है, और उत्तरकालीन में, मैं अपेक्षा करता हूँ कि इसका पुनः परिक्षण हो कई बार, सविस्तार लगातार:
१) पश्चिमी महिलाएं, जैसे प्रसिद्द स्वयं महाध्यापिका, जिनका दमन हुआ है पाखंडी एवं ऐबराहमिक धर्मों के उग्रराष्ट्रवादी काल्पनिक-कथा के पुरुष द्वारा, अपने हिन्दू धर्म के अध्ययन में, पाती हैं, एक मार्ग, अपनी अंतरतम अदृश्य वासना का निवारण करने हेतु, किन्तु वे इसको छलकपट द्वारा आत्मकथा का मुखौटा पहना देती हैं, एक “अन्य” का निरूपण करके (इस सन्दर्भ में, अपनी मनोग्रस्ति हिन्दू देवी-देवताओं एवं संतों पर थोपते हुए)I
उदहारण, यहाँ पर वेंडी आभार प्रकट करती हैं अपनी मनोविकृति की प्रक्षेपि अपने क्षात्रवृद्धि परI [८०] “एल्डोस हॉक्सली ने एक बार कहा था कि बुद्धिजीवी वो है जिसने कुछ पता लगाया हो जो काम से भी अत्यंत रुचिकर हो; इंडोलॉजी में, एक बुद्धिजीवी को उस प्रकार का कोई चयन करना ही नहीं चाहिए …… क्या काम शिष्टोक्ति है ईश्वर के लिए? या क्या ईश्वर ही शिष्टोक्ति हैं काम के लिए? या दोनों!”
२) पश्चिम में समलिंगकामुक स्त्री, परुष, की वासना, भी ऐबराहमिक दंडाज्ञा के द्वारा दबायी गयी थी, निजी एवं सार्वजनिक प्रार्थना करके न्यायसंगत बनाया, अतएव, भारतीय प्रस्नागों का विश्लेषण आत्मकथा के उद्देश्य से कियाI
३) यौनसंबंधी प्रताड़ित पश्चिमी महिलाएं, प्रयास कर रही हैं ढूँढने का, अपने क्रोध के निर्गम द्वार को, हिन्दू देवी में पाती हैं स्त्री हिंसा चिन्ह या पुरुष का दमनकारी चिन्ह —– अन्यथा और एक सभ्यता का थोपना।
४) ऐबराहमिक भगवान की अपने शत्रु (राक्षस) के प्रति सनक, द्वैतवाद ‘हम और ओ ‘ एक अनिवार्य ऐबराहमिक धर्मशास्त्र हैI इस शून्य-संचय क्रीड़ा में, पश्चिमी स्त्रीवादी को पुरुषों से अवश्य युद्ध करना चाहिए और पुरुषों को स्वयं से विस्थापित करना चाहिए उनकी भांति बन कर, क्यूंकि पश्चिमी पौराणिक कथाओं में स्त्रियों के लिए कोई भी आदरणीय स्थान नहीं हैI अतः, ये पौराणिक कथा भी एक भूमिका है इस “संरक्षण” सिद्धांत की तुलना में रंगों की स्त्रियों के, जो कि एक गोरी स्त्री के बोझ (व्हाइट विमेंस बर्डेन) के समान हैI ये अत्यंत आधुनिक है भारतीय महिलाओं के प्रवेश के लिए इस लालच में, जिसमें शैक्षिक उपाधि, वृत्ति, प्रकाशन प्रकल्प और अन्य पुरस्कार मिल रहे होंI जितना ही अधिक भारतीय स्त्री प्रजातीय प्रतीत होगी, उतना ही बहुमूल्य उसका आहेर होगा। इसी बीच, सभी आत्मविश्वासी हिन्दू स्त्रियां अस्वीकार की जा रही हैं एक प्रतिमान का भय समझकर—उनको रद्द किया जा रहा है ये कह कर कि वे “वास्तव” में हिन्दू हैं ही नहींI पश्चिमी काल्पनिक कथा की हिन्दू नारी, अतः घास-पात सी, स्त्री है जिसको निर्मित किया गया है, गोरी स्त्रियों के बोझ की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए। कई भारतीय सक्रियतावादी स्त्रियां, जैसे मधु किश्वर, भारतीय स्त्रियों के पश्चिमी स्त्रीवाद चित्रण का कटुता से विरोध करती हैंI
क्षात्रवृद्धि की दोषपूर्ण विधियाँ:
क्षात्रवृद्धि की, हेर्मेनेयुटिक्स या प्रणालियाँ, विद्द्वानों द्वारा प्रसारित जो व्यथित हैं उपरोक्त आस्थाओं से, उनकी विशेषता यहाँ समायोजित हैI जेफ्री कृपाल का विषय, और अन्य विषय का संक्षिप्त में सार प्रस्तुत करते हैं इस निबंध का, स्पष्टता से सचित्र व्याख्या करते हैं प्रत्येक की:
१. कई विद्द्वान पूर्ण ज्ञान के अभाव से गृहस्त हैं, सभ्यता के सन्दर्भ में, और/या भाषा के सन्दर्भ में, जिससे कि वे योग्य हों वैध ढंग से जीवंत परम्परा के विश्वास को पिछड़ने में, और इसके पश्चात् भी वे यही कर रहे हैंI
२) परंपरा के अंतरंग लोग वर्जित हैं समान रूप से, भाग लेने में, उनको विभिन्न प्रकार के मूल निवासी भेदिया बनाकर क्षीण कर दिया है, या, अथवा उनको संरक्षण में लिया है, उनका निरिक्षण किया है या उनको लिया है जो प्राधिकारी हैं जिनके पास अनुज्ञा पत्र है वेंडी के बच्चों वाला। जो विरोध करते हैं उनका व्यवसाय में विकास नहीं करने दिया जाता है. अनुज्ञा पत्र किस छात्र को देना है इसका भी नियंत्रण है क्यूंकि वही प्रामाणिक है भविष्य में इस उद्द्योग के जीवन के लिएI
३. कई समीक्षात्मक शब्दावली को मात्र अनुचित अनुवाद किया है, या सन्दर्भ की सीमा से परे कर दिया हैI जिन शब्दों के अर्थों की विस्तृत सीमाएं हैं उनको संचय कर एकपक्षीय कर के वो अर्थ दे दिया है जो कि अत्यंत ही संवेदनात्मक है और जो उन विद्द्वानों की थीसिस में उपर्युक्त बैठते हैंI
४) प्रायः एक पूर्ण अनादर व्याप्त रहता है परम्पराओं के उच्च कोटि के अर्थों में, और एक नाटकीय प्रयोग होता है उन दृष्टियों का जिसमें से वे कामुकता, सामाजिक दुर्व्यवहार, तर्कहीनता एवं अन्य लक्षणों को देखते हैं और जो परोसते करते हैं परम्पराओं के सत्य दृण कथनों के गंभीर अधिकारहीनता की।
५) विदेशागत कल्पना एवं बॉलिवुड-शैली के प्रभाव को उदारतापूर्वक थोपा गया है, सुदृण चित्रण के माध्यम से, उसको प्रामाणिक सिद्ध करते हुए. बिल गेट्स के सॉफ्टवेयर में, काटो-एवं-चिपकाओ (कट-एंड-पेस्ट) क्षमताओं के निर्माण के पूर्व ही, कुछ पश्चिमी विद्द्वानों ने कुशलता प्राप्त कर ली थी भारतीय ग्रंथों एवं आधुनिक महान गाथाओं के काटो-एवं-चिपकाओ पद्धति में. इस कार्य के साथ ही साथ इसमें उन विद्द्वाओं ने अपनी कल्पनाओं के भी अंशों के छिड़काव करते रहे, विदेशी सभ्यता द्वाराI अंत उत्पादन पर, अति-अनर्थक वचनों की परत चढ़ाई गयी और उसको अचिंतनीय बना कर उसको अग्रणी हेर्मेनोटिक्स अंकितक कर कियाI
६)वो प्रमाण जो खंडित करते हैं उनकी थीसिस को, उसकी वे अवज्ञा करते हैं, उसको दबा देते हैं I
७) अपने निजी उद्देश के लिए, अध्यन की विषय वस्तु का मानदंड किया जाता है विद्द्वानों द्वारा, एक निजी “सम्पति” की भांति जो वे विद्द्वान अपना समझते हैं, अतः वे उसको बड़े संरक्षण आचरण से रखते हैंI जिस जीवंत परंपरा का वो अंश है उस से उसके सम्बन्ध समाप्त कर दिए जाते हैंI अपनी सम्पति समझ कर, वो विद्द्वान प्रचण्डतापूर्वक उसकी प्रतिरक्षा करता है, किन्तु अपने स्वयं इच्छा अनुसार, और कुछ समय पश्चात् भविष्य में उसको प्रतीप मोड़ (उ-टर्न) के अधीन कर देता है। सच्चे अंतरंग को बहिष्कृत कर दिया जाता है या उसको संक्षिप्त में मूल निवासी भेदिया घोषित कर दिया जाता हैI उसको अपनी परम्पराओं के पक्ष में बोलने की क्षमताओं से भी सीमित कर दिया जाता हैI
८) विद्यावाचस्पति की उपाधियाँ, शैक्षिक पत्र, शैक्षिक प्रकाशन पुस्तकें, पुस्तकों पर पुरस्कार, एवं प्रतिष्ठापूर्ण संस्थाओं में कार्य-नियुक्त सभी समिति द्वारा पुरस्कार के रूप में भेंट किया जाता है, उनको जो उस संस्थापन के अंश हैं, और जो प्रायः इन लक्षणों से ग्रहस्त हैंI रिसा की नीतियों एवं कार्य प्रणलियों का कोई स्वतंत्र पुनरीक्षण या लेखा परीक्षण नहीं होता है, जो की अधिकांश महत्वपूर्ण संस्थाओं के लिए सामान्य है उस प्रणाली के विपरीत यहाँ कार्य होता है।
९) यदि उनकी क्षात्रवृद्धि की आलोचना होती है किसी अन्य सदस्य द्वारा जो उनकी सत्ता के नियंत्रण से बाहर है, वे मात्र, उस आलोचना को अनसुना कर देते हैं और सम्बोधित करने से भी सीधे माना कर देते हैंI यदि आलोचना तब भी समाप्त नहीं होती है, तो वे उस पर व्यक्तिगत आक्रमण करते हैं जैसे उदाहरण के लिए, “तुम्हारा साहस कैसे हुआ, एक मूल निवासी भेदिये, इस प्रकार हम को पुनः उत्तर देने का? क्या तुमको अपना स्थान ज्ञात नहीं है?”
१०) कोई भी आलोचना या सुधारवादी क्षात्रवृद्धि, जो बाहर से होती है, इस कुल द्वारा अत्यंत दृणता से, उसको इस प्रकार नियंत्रित किया जाता है कि, उसका जीवन स्वयं ही सर्वोत्तम अल्प-आयु का हो जाता है: उसको किसी प्रमुख ग्रंथालय में स्थापित नहीं किया जाता है, या ऑन-लाइन सूचीपत्र में नहीं सम्मिलित किया जाता है, या उसको विद्यालयों में अध्यन के लिए निर्धारित नहीं किया जाता हैI कई उदाहरणों में तो, इसकी मुख्यधारा फुटकर व्यापारी के समीप, क्रय करने की भी उपलब्धि नहीं होती हैI त्यागनन्द की प्रतिक्रिया यथार्थतः केंद्र बिंदु है: व्यवसाय-संघ द्वारा वितरण का नियंत्रण।
क्यों ये अत्यंत ही महत्वपूर्ण है:
वर्तमान काल में पश्चिमी कल्पित कथा का अध्यन सर्वोच अध्यन है कल्पित कथा का, क्यूंकि पश्चिम केंद्र बिंदु है विश्व-शासन काI वेंडी के बच्चे का लक्षण वही अंश है पश्चिमी कल्पित कथा का जो संभालता है, कामोत्तेजक बनाना किसी “अन्य” काल्पनिक कथा को, अपने स्वयं के आदर्शों को थोपने वाली दृष्टि से, जैसे कि, प्रकृतिप्रत्यात्मकता जो उपरोक्य पंक्तियों में सूचीबद्ध किया है, और स्थूल रूप धारण को परोसना और परिणामस्वरूप पश्चिमी कल्पित कथा को और अधिक शक्तिशाली बनाना।
स्वतंत्र चिंतक ना होकर, विद्द्वान व्यथित हैं वेंडी के बच्चे के लक्षण से और अत्यंत ही चालित हैं वासना के बोझों से अपने स्वयं के अभिनय के लिए इस भूमिका में पश्चिमी कल्पित कथा की सीमा में रहकर. उनके पास अपार अभाव है माध्यम का, जैसे की अपनी कल्पित कथाओं के आदर्श उन्हें बाध्य करते हैं एक पूर्वानुमेय मार्ग से अभिनय करने के लिए.
महाध्यापक नरसिंघ सिल विवरण देते हैं [८१]:
“मेरे परिकल्पना अनुसार ‘अवतार‘ की उतराई, धर्म-प्रचारक पादरियों द्वारा पूर्व काल में, जो ढूढ़ कर लाये दिव्य प्रकश, उस धरती पर जहाँ पिछड़े ईसाई – पूर्वी धार्मिक लोग रहते थे, और इस ढब से उन्हें सभ्य मनुष्य एवं ईसाई बनाया। मैं इन “अवतारों” को एक नए-पादरी के रूप में देखता हूँ जो कि ओले की भांति बरसते हैं महान धर्मनिरपेक्ष मंदिरों से I ये मंदिर, अत्यंत ही अध्ययन लीं, शक्तिशाली एवं साधन-संपन्न पश्चिमी देशों के होते हैं I ये प्रभावशाली प्रत्यायक के आधिपत्य हैं, यथेष्ट निजी सम्मोहित करनेवाले एवं सामाजिक आकर्षण जिसमें उपरोक्त बताये गए सारे गुण सम्मिलित हैं, इसके अतिरिक्त, इनका एक उत्कृष्ट उपहार की संवेष्टन प्रणाली, प्रक्रमण, एवं ज्ञान उत्पन्न करनेवाला गुणI
तदपि, इनके मिलनसार चरित्र एवं शैक्षिक वेश(संवेदना, आधुनिकतावाद के पश्च्यात प्रत्यक्षवादी ज्ञान का संदेहवाद, इत्यादि), के नीचे, वे कठोर व्यापारी हैं जिनका अर्थ व्यवसाय से ही है, वस्तुतः तथा लाक्षणिक रूप, दोनों सेI ये व्यापार, अहः, प्रतिध्वनि है उन सामान्य भावनाओं एवं प्रवृत्त पूर्वजों की उस कार्यावली की जिसमें: एक पृथक-ईसाई के विश्वास को निर्वासित किया जाता था जो किसी दूरस्थ व्याकुल भूमि के विदेशीयता एवं अंतर्भूत में होंI उसको दृढ़तापूर्वक “भिन्न” कहना और साथ ही साथ, अपने पूर्व उद्देश्य के विपरीत, जो आत्माओं के परिवर्तन करने का, अपने नाम को स्थापित करने का, कुछ धन भी अर्जित करने का और साथ में वो दूरस्थ “भिन्न” को प्रसामान्यीकरण एवं सामूहीकरण करके उस “भिन्न” को अपनी सभ्यता की इसी सीध में कर लेने काI “कालीस चाइल्ड” के आस-पास के कोलाहल में इस शैक्षिक अपण अर्थ प्रबन्धन की “लीला” को इस अभिनय से प्रस्तुत किया है जिस से वह जुड़वां लक्ष्य प्राप्त कर सके, एक, मानव(इस सन्दर्भ में समलैंगिकता) रामकृष्ण का आविष्कार करना और दुतीय उसका परिसर संप्रदाय (जहाँ विकल्प कामुकता की स्वीकृति, प्रायः वर्णित की जाती है एक “विचित्र जीवनशैली”, की भांति, जो बन गया है सम्मान का चिन्ह) में पूरे देश भर में विक्रयण करना I
“”कालीस चाइल्ड”, उपज है, सर्वोत्कृष्ट, अपेक्षाकृत नूतन धुन—प्राच्यवाद पश्चात् की। वर्तमान में आधुनिक, स्वंतंत्र एवं उपयोगशून्यतापूर्वक कार्यप्रणाली जो उपयोग की जा रही है, महत्वपूर्ण और साहित्य सिद्धांत द्वारा, जो की उपज है पश्चिम भाँति प्रतिवादी ज्ञानोदय तर्कशक्ति की, वो उत्साही है उसको मैकडॉनल्ड का रूप देने में(और इस प्रकार उसको एकरूपता प्रदान करने में) मानक और मान्यताएं “अन्य” सभ्यता और विश्व विचारों कीI ये कार्यसूची अक्षांश रेखा के समान्तर है राजनीती और आर्थिक रूप से विश्व को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने का जहाँ का “मन्त्र” है स्वतंत्र आपण और लोकतंत्र का — पूर्वी देश के ईसा पूर्वी भिन्न धर्म को मानने वाले लोगों का एक अनपेक्षित लाभ जो साम्राज्यवादी ईसाई धर्म परवर्तन कार्यकरताओं से मिलाI अतएव “कालीस चाइल्ड” की रचयिता की रोगविज्ञान के प्रति रुचि का कारण यही हैI“
एडवर्ड सईद ने भी व्यक्त किया है कि, भूराजनीतिक अन्याय जो इस क्षात्रवृद्धि विधा, द्वारा हुआ है: “इस जड़पूजा एवं कठोर धूमधाम “अंतर्” एवं “अन्य” का… “इस मानव-शास्त्र का भव्य प्रदर्शन”…… सरलता से विशिष्ट नहीं किया जा सकता एक साम्राज्य के प्रक्रम से।”[८२]
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Translator: Vandana Mishra.
Original Article: RISA Lila – 1: Wendy’s Child Syndrome
URL: https://rajivmalhotra.com/library/articles/risa-lila-1-wendys-child-syndrome/