रीसा लीला-१: वेंडी का बाल-परिलक्षण – 7

भारत विखंडन

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रानी(क्विन) का प्रभाव:

इनके विद्यार्थियों को प्रोत्साहन दिया गया है भारत में जाकर एक विशेष उद्देश्य से, जिसमें इनको वो आंकड़े ढूंढने हैं जहाँ “भारत में ईसाईयों का उत्पीड़न” होता है I जबकि सभी को ज्ञात है कि एक सच्चा विद्द्वान सम्मिलित नहीं हो सकता है उस शोध में जिसका निष्कर्ष पूर्व ही निश्चित कर दिया गया हो [७१] I अधिकांश सक्रियतावाद, क्षात्रवृद्धि के मुखौटे के पीछे छिपा है I

विपरीत मानव-शास्त्र एवं मनोविश्लेषण

चलिए हम कृपाल के सिद्धांतों को मान लेते हैं:

मैं आशा करता हूँ कृपाल की पदवी का प्रयोग करते हुए इस क्षात्रवृद्धि की नूतन शैली पर, किन्तु इस प्रकार से की समुदाय की भूमिका विपरीत होI मैं समान पद्यतियों का प्रयोग करना चाहता हूँ, मनोविश्लेषण एवं विखंडन करने के लिए इन यूरोकेन्द्रिय विद्द्वानों के अपने समुदाय परI निःसन्देह, मेरा अंवेषण अन्तर-सांस्कृतिक समानता के लिए नकारा नहीं जा सकता हैI चलिए कुछ उलझावों के परीक्षण करते हैं.

कृपाल लिखते हैं:

““गेडेमीर के संग “ फयूशन ऑफ़ होराइज़ंस (सीमा का मेल)” हम बड़ी सरलता से देख सकते हैं कि क्यों मात्र हेर्मेनेयुटिक्स (बाइबिल पढ़ने की विशेष विधि) संभवतः वास्तव में न्ययसंगत से समझ सकते हैं उन प्रसंग को भिन्न प्रकार से, उनकी तुलना में जो वास्तविक संपादक हैं उस सभ्यता के: वस्तुतः इतिहासकार प्रस्तुत करता है जीवन-विश्व एवं वर्ग जो प्रदान करते हैं अनुसंधान या प्रविधि, विश्लेषण की, जो मात्र अस्तित्वहीन थे इन अर्थ-क्षितिज प्रसंग के भूतपूर्व में I अर्थों के ये वर्त्तमान क्षितिज जो मिश्रित होते हैं प्रसंग के भूतपूर्व क्षितिज से, उत्पन्न करते हैं एक तृतीय, अद्वितीय अन्तरिक्ष जिसमें नूतन अभिप्राय एवं संभावनाएं प्रकट होती हैं परिज्ञान की I अतः गेडेमीर लिख सकते हैं “प्रसंग के अभिप्राय, संपादक के नियंत्रण से बहार, ना मात्र कदाचित, बल्कि सदैव। प्रज्ञा अतः मात्र प्रजननीय ही नहीं है बल्कि उत्पादक भी है”(ओरमिस्टों और शक्रिफ़्ट २२४[७२]) …. आधुनिक अध्ययन रामकृष्ण की विस्तृत है एवं प्रसंगों के अपने इतिहास का उग्र सुधारवाद है विभिन्न क्षितिज के मिश्रणों द्वारा जिसका वो अभिनय करता है अपने प्रसंगों में एवं आलोचनात्मक कार्यप्रणाली से (लिंग अध्ययन, मनोविश्लेषण, मार्क्सवाद, नारीवाद इत्यादि)I ऐसे तो अवशय ही, हम अंततः एक सुधारवादी नूतन दृश्टिकोण पर पहुंचेंगे कि, कौन थे रामकृष्ण और उनके जीवन का क्या अर्थ था, जो कि थोड़ा चौंकानेवाला है कई लोगों को, जो बंद हैं मात्र एक ही अर्थ के क्षितिज में (जो है, एक सर्वव्यापी दृश्टिकोण सभयता पूरे विश्व की, भूतकाल में या वर्त्तमान काल में) किन्तु पूर्णरूप से सम्भाव्य उनके लिए है जो दूसरों को बसाते हैं……..क्यो, तब मेरे जैसा अमेरिकावासी, जो इतनी गहरायी से हिन्दू धर्म और परंपरा से प्रेरित है, उनके विषय में अपने धार्मिक वर्गों एवं बुद्धिजीवी अभ्यासों के अनुसार ऐसा नहीं सोचता?”[७३]

वास्तव में मैं विश्वास नहीं करता कि, कई महत्वपूर्ण अंतर्, जो बन गए हैं प्रत्यक्ष, इस विवाद द्वारा, पूर्णरूप से सुलझाए जा सकते हैं यहाँ या किसी अन्य प्रारूप में, क्यूंकि हम में से कई लोग स्पष्ट रूप से परिचालन कर रहे हैं सुधारवादी विचारों के विभिन्न विश्व दृश्टिकोणों से, नैतिकता, एवं मानव कामुकता और भाषा की समझदारी से.”[७४]

यहाँ पर मेरा पुनः कथन प्रस्तुत है कृपाल की पदवी का:

अ) गेडेमीर की “फयूशन ऑफ़ होराइज़ंस (सीमा का मेल)” एक ढंग है, जिस से वर्तमान में लोग संभवतः, पुनःव्याख्या कर रहे हैं शास्त्रीय ग्रंथों का, इस प्रकार से, कि वे भिन्न हैं वास्तविक ग्रंथकर्ता के उद्देश्य से, और इस प्रकार के नवीन अनुवाद न्यायसंगत हैं, क्यूंकि वे दकियानूसी अर्थों का विस्तार करते हैं “नूतन अर्थ एवं नूतन परिज्ञान की सम्भावनाओं सेI”

आ) महत्वपूर्ण भेदों को, विश्व के विभिन्न दृश्टिकोण वाले लोगों के मध्य, पूर्णरूप से विभाजित नहीं किया जा सकता हैI

‘()का आशयअनुवाद की नवीन पद्धति:

सिद्धांत ‘अ’ से सहमत होते हुए, मेरी इच्छा है जानने की, कि क्यों, तब हिन्दू विद्द्वानों को कलंकित किया जाता है जब वे आवेदन पत्र भेजते हैं “विश्लेषण के अनुसंधान एवं प्रविधि,” जैसा की खगोल-विद्या-संबंधी आंकड़ों का प्रयोग भारतीय पौराणिक ग्रंथों में किया गया है, ये दर्शाने के लिए कि “क्षितिज का मेल” एवं “मौलिक रूप से नूतन दृष्टिकोण” जो इंडिक परंपरा से सम्बंधित हो?[७४] क्या ये निर्मल निष्कर्ष “चौंका देनेवाले हैं किसी को जो के बंद हैं एक ही अर्थ के क्षितिज में”—अर्थात, स्वयं रीसा (RISA) दल की मानसिक कठघरे में? क्यों नहीं वे पहले इस नूतन दृण कथन को सूक्ष्मता से परीक्षण कर लेते हैं, बिना शीघ्रता से दौड़कर निंदा करते हुए इन विद्द्वानों की, जिनको नूतन-फासीवादी, रूढ़िवादी, हिंदू राष्ट्रीयवादी और अन्य कई चयनित अपशब्दों से, बिना किसी आधार के? या, नविन हेर्मेनेयुटिक्स पर आधारित गेडेमीर के सिद्धांत एक ही दिशा में कार्य करते हैं—वो दिशा जिसमें की प्रबल सभ्यता, अपने विदेशी आयातित हेर्मेनेयुटिक्स, चाहती है मूलनिवेशी निष्कर्षों की पद्धति के विरुद्ध स्थापना करना उपनिवेशी सभ्यता का?

इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए, क्यों नहीं हिन्दुओं के स्वयं नविन धार्मिक निष्कर्षों को विश्वासनीयता दी जाती है और क्यों उस प्रकार के निष्कर्षों को अस्वीकृत किया जाता है अधिप्रमाणित ना मानते हुए——प्रायः इस घमंडी, स्वयं-चयनकरता विद्द्वानों के कुल द्वारा? क्या जिन लोगों का रंग गोरा नहीं हैं, उनको समान अधिकार नहीं है पुनःनिष्कर्ष निकलने का, बिना प्रबल सभ्यता के पर्यवेक्षण के, और ना मात्र प्रतिनिधि के रूप में?

इसके अतिरिक्त, क्यों मुझ पर आक्रमण होता है जब मैं ‘अ’ का प्रयोग करता हूँ रिसा (RISA) के कुछ सदस्यों के विचारों का पुनः निर्माण करने के लिए, जबकी मैं उसी प्रणाली का प्रयोग करता हूँ जो उन्होंने स्वयं किये हैं? क्या ऐसा है कि मेरे निष्कर्ष “कुछ लोगों को चौंका देनेवाले हैं जो बंदी हैं मात्र एक ही अर्थ के क्षितिज में?

अंततः, कौन–और किस आधार पे—निश्चय करेंगे कि किसकी हेर्मेनेयुटिक्स प्रामाणिक है और किसकी नहीं? ये मात्र पूर्व उपयोग का विषय नहीं है या प्रबल ढांचे द्वारा स्वीकृती मिलने का, क्यूंकि तब वो संभवतः चिरायु आधिपत्य और नवपरिवर्तन के विरुद्ध होगा जिसका कृपाल पक्ष लेते हैं I व्यवहारिक रूप से, कैसे कोई मना करता है अधिकार का हड़पना किसी प्रबल मंडल द्वारा जो की अधिकांश अशिष्ट सत्ता पर आधारित हो? रिसा ने इस चर्चा को सार्वजनिक ढंग में प्रायः टाला है!

संदेह को हटाते हुए, मुझे ये स्पष्ट करने दीजिये कि, कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें संस्था को स्वीकृति नहीं मिलती व्यक्तिगत उन्मुक्त विचारों की, दोनों पक्षों की वामपंथ/दक्षिणपंथ विभाजन की ओर सेI इसी कारण कट्टरपंथी वर्गीकरण अब उपयोगी नहीं रहे I उदाहरण के लिए, मुझे नूतनकाल ही में किसी से आलोचन मिली है, जो स्वयं-परिभाषित “धर्मनिरपेक्ष…..” हैंI उनका कथन है कि ये अनुचित है मेरे लिए दोनों का एक साथ विरोध करना (अ)हिंदुत्व की राजनैतिक विचारधाराओं का एवं, इसका भी (आ)जो धर्मनिरपेक्षतावादी-ईसाईवादी-मार्क्सवादी के धुरी पर टिके हैंI दुर्भाग्यवश, कई लोग अटके हुए हैं विभिन्न प्रकार की एक स्थिर विचारधाराओं में, और असमर्थ हैं प्रशंसा करने में, कि उनकी सरल-निर्मित यन्त्रपेटी नहीं समाविष्ट कर सकती संभावनाओं का परिपूर्ण समूह, विशेषतः उसको जिसको विश्वास ही ना हो हठधर्मिता के अंत परI क्यों इस व्यजन-सूची को प्रतिबन्धित किया है?

मैं स्वागत करता हूँ ‘अ’ सिद्धांत का, यदि वो हर किसी को उपलब्ध हो तोI

चक्र एक इंडिक(भारतीय) हेर्मेनेयुटिक्स की भांति:

एक विधि है जिस से हम भारतीय (इंडिक) ढांचे में विचार कर सकते हैं, और वो है हिन्दू- बुद्ध चक्र प्रणाली – जैसे ७ परतों की हेर्मेनेयुटिक्स। कल्पना कीजिये प्रत्येक चक्र एक साँचा हो परिस्थित का, जो की कई आशयों में प्रयोग किया जाता होI जब कोई घटना-क्रिया का विश्लेषण किया जाता है या किसी चक्र से संसाधित किया जाता है, वह उस चक्र के अनुकूल परिपेक्ष्य प्रदान करता हैI चक्र के दैहिक स्थान प्रसंगोचित हैं योगी या तंत्री के रूपान्तरिक कार्यप्रणालियों से, जबकि यहाँ मेरी, उनके आद्यप्ररूपीय अर्थों में रूचि हैI

अतिसरलता के संकट को ध्यान में रखते हुए, मैं कल्पना करता हूँ की ७ चक्रों को संभवतः निम्नलिखित रूप में विभाजित किया गया है:

  • न्यूनातिन्यून: नीचे के ३ चक्र एकमत हैं पाशविक प्रवृति से. सर्वोच्च नीचे का प्रथम चक्र, जो गुदा के निकट है, वो निर्भयता से सम्बन्धी हैI उसके ऊपरवाला दूतीय चक्र, जो गुप्तांग के समीप है, वो उपभोग एवं पुनरुत्पत्ति के लिए हैI तृतीय चक्र, जो नाभि के निकट है, वो है अन्य लोगों पर अपने अधिपति के लिए हैI
  • माध्यम: चौथा, पांचवा और छटा चक्र, प्रतिनिधित्व हैं सकारात्मक मानव जाती के गुणों के, जैसे प्रेम, अंतःसंबध एवं बंधन के, परोपकारी दृष्टि, इत्यादिI दुसरे शब्दों में, ये सभी उच्च गुणों को दर्शाती हैं जो सभी धर्मों में व्याप्त हैंI व्यवहारवाद या कोई अन्य दृण संवेदनाहीन विश्व दृष्टिकोण, जो वंचित है आध्यात्मिकता से, उसका सामर्थ्य नहीं है इनको मान्यता देने के लिए और अपने आपको सीमित कर देता है मानव आवश्यकताओं एवं इच्छाओं से, जो नीचे के चक्रों के अनुरूप हैंI
  • सर्वोच्च: मुकुट चक्र अनुरूप है अद् वैतवाद एवं परात्परता से—मोक्ष, निर्वाण, इत्यादि। अधिकतम भारतीय(इंडिक) परम्पाराओं का समापन इस अवस्था में होता हैI एब्राह्मिक धर्मों के लिए, मुख्यधारा रूढ़िवादी विश्व दृष्टिकोण अस्वीकार करता है इस प्रकार की किसी भी संभावनाओं का, किन्तु कुछ सीमांत अलप सांख्यिक दृश्टिकोण हैं उस रहसयवाद का, जिनको पाषंडी कहा जाता है उनके परम्परा अनुसार, वो सातवें चक्र के अनुरूप हैंI [७६] हिन्दू-बुद्ध चक्रों पर प्रकोप का कारण कई विद्द्वानों द्वारा संभवतः परिणामस्वरूप कसाव से उत्पन्न है, एक ओर उनके अपधर्म की मूल परंपराओं के मध्य एवं दूसरी ओर उनकी प्रबल इच्छा हड़पने की भारतीय पारिभाषिकी अध्यात्म-विद्या काI

किसी भी विद्द्वान की मानसिक अवस्था किधर स्थित है, उसके सन्दर्भों के पदक्रम में, वस्तुएं प्रकट होंगी सांचे के अनुकूल, उसके अनुरूप चक्र सेI अर्थात एक ही वास्तु कई स्तरों से देखी जा सकती है—-जो की यथार्त रूप से, हिन्दू धर्म का घोर क्ष्रम हैI

उदाहरण के लिए, कोई भी बिना भय के कह सकता है कि वेंडी के बच्चे जिनका उपरोक्त पंक्तियों में उल्लेख किया है, वे नीचेवाले दो चक्रों में रहते हैं, न्यूनातिन्यून अपने क्षेत्र वृद्धि मेंI कृपाल हिन्दू धर्म को गुदा-सम्बन्धी परिदृश्य से देख रहे हैं(समलैंगिक लोगों के प्रति विशेष घृणा, और अपने रोमा परम्परा से असुरक्षा), जो की एक पुष्ट दृष्टिकोण है, किन्तु किसी भी स्थिति में “सत्य” नहीं हैI ये मात्र एक ही परिदृश्य, और ना की उच्चतम लाभप्रद अवसर, और ना ही ये वो स्थान है जहाँ पर कोई अनन्ततकाल तक अटका रहेI उस प्रकार जैसे डॉनिगर एवं काल्डवेल प्रतीत होते हैं झूलते हुए गुदा चक्र और गुप्तांग चक्र के मध्य मेंI इसी कारण उनकी रूचि और चित्रण हिन्दू धर्म के विषय में उस प्रकार की हैI

दूसरी ओर, अन्य रीसा विद्द्वान जैसे फादर क्लूनी, क्रिस चैपल, इआन विचर, एडविन ब्रयांट और अन्य कई हिन्दू धर्म को मध्य के चक्रों से देखते हैं, और सातवें चक्र के विषय में भी विश्वासनीय आचरण से सिद्धांत रचते हैंI वे परिक्षण करते हैं उन प्रथाओं का जिसमें प्रेम, भक्ति, क्लेश-निवारण (नकारात्मक स्थिति), और अनुष्ठान के परिदृश्य से आध्यात्मिक उन्नति होती है। वे समान वस्तुओं को भिन्न नेत्रों से देखते हैं अपेक्षाकृत वेंडी के बच्चों के नेत्रों सेI

ध्यान दीजिये कि ये चक्र पूर्ण रूप से एक दुसरे से भिन्न नहीं हैंI एक लाक्षणिक अनुभव किसी व्यक्ति द्वारा समिल्लित करता है कई चक्रों के अनुभवों के मिश्रण से, और ये मिश्रण परिवर्तित होता है एक अनुभव से दुसरे अनुभव मेंI

अपि ध्यान दीजिये कि मेरे चक्र के उपयोग इस ज्ञानमीमांसा आचरण में, रूढ़िमुक्त है, क्यूंकि वे रीति अनुसार, एक परिवर्तन यंत्र की भाँति आध्यात्मिक उन्नंती के लिए उपयोग किये जाते हैंI

पश्चिमी मनोविज्ञान का ऐतिहासिक वर्गीकरण संभवतः इन तृतीया चक्रों की श्रेणियों के उपयोग से किया जा सकता है:

  • फ्रेयड ने अपना पूर्ण जीवन चक्र १ और २ में अटके हुए बिता दिया: अतः उनकी धुन रही है सर्वदा प्रत्येक वस्तु को कामुक असंगति दर्शाने कीI
  • तत्पश्चात, युँग ने हिन्दू धर्म का घोर अध्ययन किया, योग अभ्यास किया जो पणिनि के ग्रन्थ पर आधारित थे, और दृण कथन से स्पष्ट किया कि उन्होंने चौथे और पाँचवे चक्र को प्राप्त कर लिया हैI इसने उन्हें सामर्थ्य दिया फ्रेयड से भिन्न होने का (एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक उन्नति पश्चिमी संसार के विचारों में),पाश्चात्य विज्ञानं को आध्यात्मिक बनाने के लिए, और ईसाई कथाओं का पुनः व्याख्या करने का नूतन हिन्दू विश्व दृष्टिकोण का उपयोग कर के[७७]I उनका विशाल प्रभाव कई प्रमुख पश्चिमी चिंतकों पर कई दशकों तक रहा, उन्होंने पश्चिमी चिंतन को मूलतः परिवर्तित कर दिया भारतीय सिद्धांतों को हड़प के [७८]I यद्दपि, उनके आगामी अनुन्यायियों ने उनके भारतीय प्रभावों को मिटा दिया, और उन्होंने भी, भारतीय उपमाओं को ग्रीक-ऐब्राह्मिक से और अपने उपमाओं से, परिवर्तित कर दिया। अन्तः, उन्होंने उच्च चक्र के अस्तित्व को नकारा, क्यूंकि अद्द्वैता एवं परात्परता उनके आनुभविक सीमा के स्वीकृति से पार चली गयी थीI
  • नूतनकालीन, केन विल्बर, ने श्री औरोबिन्दो, तंत्र एवं कश्मीर शैव धर्म के विषय में दशकों के अध्ययन के पश्चात्, अद्द्वैत अवस्था को समझा है— न्यूनातिन्यून बुद्धितः। अतएव, वे प्रमुख प्रस्तावक बन चुके हैं पश्चिम में, कि क्या फलस्वरूप दृष्टि है सातवें चक्र की, इस समयI

भारतीय परम्पराओं का, पश्चिमी मानवशास्त्रीय एवं समाजशास्त्रीय विच्छेदन, केंद्रित है तृतीय चक्र पर—-जिसका लेन-देन, जातियों, लिंगों, नूतन राजनैतिक आंदोलन इत्यादि अन्य कई इसी प्रकार के मध्य सत्ता-नाटक से हैI तलवार चलनेवाले यौद्धा का संस्कार(आदर्श), अतः रीसा के कई विद्द्वानों के यहीं पर स्थित हैI ये चित्रण, समान प्रकार के उसी दृष्टिकोण से, जो चक्र १ और २ से उत्पन्न हैं, और मूलतः वही नहीं हैं हिन्दू धर्म के ग्रन्थों में जिसको व्यक्त करने का वे प्रयत्न कर रहे हैं, किन्तु प्रायः इसको हास्य चित्र बनाकर उपयुक्त कार्यावली के लिए निर्मित किया जाता हैI

इन निर्देशों के साँचों के अनुसार, मैं मानूँगा की वेंडिस चिलेरेन(वेंडी के बच्चे) विद्द्वान होंगे जो परिचालक होंगे गुदे एवं गुप्तांग परिदृश्य केI कालिस चाइल्ड (काली के बच्चे, वेंडी द्वारा लिखी गयी एक पुस्तक है) पुस्तक के शीर्षक के कुछ अंश में इस प्रकार का संशोधन होना चाहिए: “एन ऐनल पेर्स्पेक्टिव ऑफ़ रामकृष्ण (रामकृष्ण का गुदा सम्बन्धी दृश्टिकोण)”I इसी प्रकार, समानरूप से कई अन्य लोगों के भी कई और कार्य हैंI

वो क्षात्रवृद्धि जिसका प्रकाशन वेंडिस चिलेरेन (वेंडी के बच्चों) ने किया था, जिसमें विश्व दृष्टिकोण आधारित था सर्वोच्च निचले वाले चक्र पर विश्राम करते हुए, वो अपने क्षात्रों को अवसर नहीं प्रदान करता है, मुक्ति क्षणमात्र भी, उच्चतर चक्रों द्वारा। वे हिन्दू धर्म का सारवाद करते हैं उसकी छंटनी करके अपने (स्वयं-लागू किये गए) स्थानक पर जहाँ सर्वोच्च निचला चक्र हैI

इस्लाम वर्तमान काल में नाटकीय ढंग से पुनः संवेष्टन किये जा रहा है पश्चिमी दर्शकों के लिए जिससे की उसके उच्च स्तरों के अर्थों की प्रमुखता बताई जा सके———जबकि असंख्य समूह 1.२ अरब मुसलमान विश्व भर में कट्टरपंथी दृष्टिकोण से चिपके हुए हैंI यद्दपि, कई अर्थों के स्तरों का विषय अपेक्षाकृत निर्बल है किसी भी सिद्धांत में जो आधारित है एक ही पुस्तक पर, अप्रतिम ऐतिहासिक घटना पर, एवं एकमात्र दृण कथन जो सिद्धांत को अंतिम घोषित करके अंतकाल के लिए उसको बंद कर देI इसके पश्चात् भी, पुन: संवेष्‍टन एक गंभीर सक्रीयता है—–जो मेरे अनुभव अनुसार एक उत्तम विचार हैI किन्तु एक भिन्न प्रकार का मापदंड हिन्दू धर्म पर लागु किया जा रहा है, इस सत्य के विरुद्ध भी, कि इसका इतिहास एवं प्रसंगों के पुस्तकालय स्पष्ट रूप से चिल्ला चिल्ला कर घोषणा करते हैं की वे समर्थक हैं कई अर्थों के स्तरों के और कई गुणा व्याख्यात्मक प्रसंगों में. हिन्दुओं को अनायास ही उनकी संस्था से बहिष्कृत किया जा रहा हैI

हिन्दू प्रसंगों के विभिन्न स्तरों के कथात्मक अनुवाद के लिए जैसे, लिंगम, काली, तंत्र, चिन्ह एवं अन्य कई समारोह एवं रीति विधि का उपयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब मध्य के चक्रों से देखेंगें, तब ज्ञांत होगा कि मस्तक अहंकार का प्रतिनिधि है ,एवं “मस्तक का कटना” अहंकार के विनाश का प्रतीक हैI परन्तु, वेंडी के बच्चे (वेंडिस चिल्ड्रन) मस्तक को गुप्तांग की भांति देखते हैं, और उसके कटने को एक पुंसत्वहरण का सन्देश मानते हैं, क्यूंकि वे गुदे-गुप्तांग वाला परिदृश्य देखते हैंI ये सम्भवतः अलप कष्टदायक होता यदि वे आभार प्रकट करते कि, उनका ये विस्तारपूर्ण दृष्टिकोण नहीं है, और ये ना ही उनका सामर्थ्य है, जो सर्वोच्च मनभाउ है या योग्य दृष्टिकोण है विद्द्यार्थियों के लिएI

पतन होते हुए हिन्दू प्रसंग, उनके पालन विधि का अभ्यास एवं प्रतीकात्मक चिन्ह एक यूरोकेन्द्रिक निचले स्तर पर अत्यधिक हिंसा है परंपरा कीI यही समस्या है इन विद्द्वानों के साथ, ना कि वे कामुक चिन्हों का चयन करते हैं निष्कर्षों के लिएI ए.के रामानुजन का बहुचर्चित लेख जो भारतीय विचारधरा के सन्दर्भ-सम्बन्धी अर्थों पर अत्यधिक ध्यान, शैक्षिक विश्व में ग्रहण करता है, किन्तु उनका उद्देश्य क्षात्रवृद्धि में, लुप्त होते हुए, प्रतीत होता हैI

यद्दपि, ऊपरी चक्रों की व्याख्या शीघ्रता से चुराई जा रही है प्रत्येक प्रकार के नूतन काल, जुडिओ-ईसाई एवं “पाश्चात्य” वैज्ञानिक शब्दावली, हिन्दू धर्म के विद्द्वत्परिषद को मात्र सीमित किया जा रहा है नीचलेवाले चक्रों के दृष्टिकोण के निकटI कैरोलाइन माइस ने दृणतापूर्वक कहा है, जो कि उनके अप्रसिद्ध ईसाई प्रसंग के अत्यधिक विस्तृत अध्ययन पर, आधारित है, कि चक्र ईसाई धर्म के हैं—उसको वे ७ गिरिजाघरों के समान मानती हैं, और सर्वोच्च उपरी चक्र को वे क्राइस्ट-चक्र कहती हैंI उसी प्रकार, मस्लोव ने इस प्रणाली का अध्ययन करके, अपने मानव व्यक्तित्व एवं आवश्यकताओं के गुणाकार स्तरों का, हिन्दू-बुद्ध चक्र के स्तरों के अनुकूल निर्माण किया—-किन्तु उनके कुछ पाठकों को वर्तमान काल में ज्ञात हो गया है कि उनके गुरु कहाँ से प्रभावित हुए थेI

विद्द्वानों के लिए ये विशेषकर अनैतिक है, कि वे निचले चक्र के दृष्टिकोण को ऊपरी चक्र के विश्लेषण के लिए लागु करें—-रहस्य्मयी अनुभवों को देखते हुए एक “उन्मत्तता”, विचित्रता, या विभिन्न प्रकार की कामुक रोग लक्षण विद्या के रूप मेंI

अतएव, गैडमिर से एकमत होते हुए, हिन्दुओं को चक्र हेर्मेनेयुटिक्स का प्रयोग उसी प्रकार करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए जिस प्रकार उपरोक्त पंक्तियों में बताया गया हैI

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Translator: Vandana Mishra.
Original Article:
RISA Lila – 1: Wendy’s Child Syndrome
URL: https://rajivmalhotra.com/library/articles/risa-lila-1-wendys-child-syndrome/

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