वन और मरुस्थल की सभ्याता

भारतीय सभ्यता विशिष्ट

Translation Credit: Vandana Mishra.

मेरी नूतनकालीन पुस्तक, बीइंग डिफरेंट: पश्चिमी सार्वभौमिकता को एक भारतीय चुनौती (२०११, हार्पर कॉलिंस, भारत) में, मैंने चर्चा किया है कि, कैसे लगातार “अव्यवस्था” और “व्यवस्था” के बीच की शक्तियों में संतुलन एवं साम्यावस्था को स्थापित करने का प्रयास किया जाता है (अपेक्षाकृत, पूर्ण अव्यवस्था का विध्वंस) जो कि, पारगमनीय है भारतीय दर्शनशास्त्र, कला, पाक-प्रणाली, संगीत और काम-साहित्य में और यही भारतीय सभ्याता को पश्चिमी तद्रूप से पृथक करती है I ये परिवर्जन करती है पश्चिमी पवित्र साहित्य के निंरकुशता का जिसका दृष्‍टिकोण पक्ष है २ स्तंभों को, एक ऐसे शुन्य-संयुक्त युद्ध क्षेत्र की क्रीड़ा, में बंद कर दिया जाये जिसमें “व्यवस्था” ही संभवतः विजयी हो I ये चिरस्थायी क्रमांतरण, भारतीय सभ्याता का मूल सिद्धान्त एवं धर्म है, जिसने विशेषाधिकृत किया है उत्साह एवं सृजनात्मकता का, और उत्पन्न किया बहुरूपता को जो सुस्पष्ट है भारतीय जीवन और सभ्याता शिल्पकृतियों में I 

व्यवस्था और अव्यवस्था के भेदों की प्रवृत्ति, ही प्रमुख्य विभिन्नता है, जिसके विषय में पुस्तक में अति विस्तार से वाद-विवाद किया है I ये विचारणीय योग्य है कि, क्यों भारतीय धार्मिक कल्पनाओं ने इतनी स्पष्टतया से आलिंगन किया बहुरूपता एवं बाहुल्य कि धारणा को जबकि अन्य ने इतनी समतुल्य सीमा तक नहीं किया I चूँकि सर्वत्र सभ्यताओं ने प्रयत्न किया है इस अस्तित्वपरक प्रश्न का उत्तर देने के लिए कि, हम कौन हैं, क्यों हम यहाँ हैं, ईश्वरीय एवं ब्रह्माण्ड कि प्रवृति क्या है इत्यादि., क्यों किंचित भारतीय के उत्तर अब्राहमिक उत्तरों से इतने सुस्पष्ट रूप से भिन्न हैं?

श्री औरोबिन्दो हमें एक संकेत प्रदान करते हैं I धार्मिक परम्पराओं में, एकता का अधिष्‍ठान अभंजित-एक के बोध में व्याप्त है, और विशाल बाहुल्यता है बिना किसी “अवखण्डन एवं अव्यवस्था के निपात” के भय का I वे सुझाव देते हैं कि, “वन” जिसमें “वनस्पति प्रवर्धन की संपनन्नता एवं प्रचुरता” है वह, भारतीय आध्यात्मिक दृष्टिकोण के लिए, प्रेरणा और रूपकालंकार, दोनों ही है I सर्वत्र विश्व की सभ्यताओं और संस्कृतियों पर, एक तत्काल दृष्टि डालने पर, ये ज्ञात होता है कि, कैसे पूर्णतया से भूगोल और उसके प्रति मानव जाती कि प्रतिक्रियाओं ने, उन सभ्यताओं पर प्रभाव डाला है I तो ये उचित रूप से संभव है कि, जो प्राकृतिक विशेषताएँ एवं गुण उस उपमहाद्वीप की, एक युग में प्रचुर थीं उष्णकटिबन्धीय वनों में, उसने भी योगदान दिया उसकी अत्यंत गहरायिओं की आध्यात्मिक मूल्यों में (अपेक्षाकृत जो जन्में, जैसे अब्राहमिक धर्म हैं, मरुस्थल के परिवेश में) I

वन सर्वदा ही भारत में एक उपकारिता का चिन्ह रहे हैं — उष्णता से संरक्षण, और चिंतन ग्रस्त जीवन के भरण पोषण के लिए, पर्याप्त परिपूर्ण रहे हैं बिना उत्तरजीविता की चिंता किये हुए जब सांसारिक बंधनों को

पृथक किया जाता था, आध्यात्मिक लक्ष्यों के अनुगमन के लिए I (व्यक्तिगत जीवन के पक्षसमर्थन के लिए उपांतिम चरण जो धार्मिक परम्पराओं में व्याप्त है उसको “वनप्रस्थ” या “जीवन का वन चरण काल”) कहते हैं I वन कई सहस्त्र प्रजातियों के संरक्षण करते हैं जो उत्तरजीवी होते हैं अन्योन्याश्रित रूप से और जटिल जीवन एवं जीवविज्ञान को सम्मिलित करते हैं जो कि, जैविक रूप से परिवर्तन और विकास करते हैं I वन प्राणी सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं; वे परिवर्तित होते हैं और एकरूप हो जाते हैं बड़ी सरलता से नए ढाँचों में I वन को आतिथेय बनना प्रिय है; नूतन जीव वनों में प्रवासी के रूप में निवास करते हैं और मूल रूप से पुनर्वासित हो जाते हैं I वन सर्वदा ही उद्विकासी रहते हैं, उनका नृत्य कदापि अंतिम या पूर्ण नहीं होता है I

भारतीय विचार, तुलनात्मक रूप से, आधिक्य, अनुकूलता, परस्पराधीनता एवं क्रमिक विकास का समर्थक है I विविधता प्राकृतिक, सामान्य, और एषणीय है, वास्तव में एक अभिव्यक्ति है ईश्वार के व्याप्तिवाद की I जिस प्रकार वस्तुतः अनगिनत जीव जातियाँ हैं और क्रियाएं हैं वन में, उसी प्रकार कई अनंत मार्ग हैं धार्मिक अभ्यासों के जिनमें ईश्वार से संपर्क करने की भी अनेकों विधियाँ सम्मिलित हैं I विभिन्न धर्मग्रंथों, विधिशास्त्रों, देवी-देवतातों, त्योहारों और परम्पराओं की बहुलता को “अव्यवस्था” के रूप में नहीं देखते हैं बल्कि सामंजस्य के साथ अंतर्वयन, स्वयं को पुनः रूपांतर करके जैविक रूप से समय अनुसार और स्थान के आदेशानुसार देखते हैं I जीवन-दायी वन और प्रकृति मानव जाती के “उपनिवेश” के लिए नहीं अभीष्ट हैं (जैसा की अब्राहमिक रिलीजनों में उनको माना गया है) बल्कि उसकी ब्रह्माण्ड के सदस्य हैं जैसे मानव जाती है I श्री औरोबिन्दो व्याख्या करते हैं इस प्राकृतिक पूर्वानुकूलता को अनेकता की स्थिति के समरूप से, जो भारतीय धार्मिक मानसिकता में व्याप्त है जहाँ “असीम को अपने आपको सर्वदा अनंत विभिन्न रूपों में व्यक्त करना अनिवार्य है” और इसके विपरीत पश्चिमी रिलिजियन मानसिकता में, जिसने कि, विशेषाधिकार दिया है एक मात्र रिलिजन को, सर्वत्र मानव जाती के लिए[…], एक ही धर्मसिद्धान्तों के समूह, एक ही संप्रदाय, एक ही शिष्टाचारों की प्रणाली, एक ही समूह की निषेधाज्ञा एवं आज्ञापत्र, एक ही गिरजाघर संबंधी अध्यादेश” व्याप्त है I बीइंग डिफरेंट पुस्तक में, मैंने अवस्थिति किया है कि, जैसे वनों ने प्रेरित किया और रचा धार्मिक विचारों को, उसी प्रकार मरुस्थल ने भी किया, मध्य पूर्वी देश के प्रभावशाली भूदृश्य जहाँ से अब्राहमिक आस्थाओं की उत्पत्ति हुई, उसने अपने स्वभाव उन आस्थाओं पर अंकित किये I

मरुस्थल प्रतिरोधी स्थान हो सकते हैं और सर्वदा सरलतम  स्थायी रूप से निवास करने योग्य नहीं होते हैं, या अचम्भित होते हैं जीवन की विविधता से I मरुस्थल की अत्यंत विस्तीर्ण एवं अनूठी सुंदरता अवश्य ही चित्त और नम्रता पर प्रभाव डालती है, किन्तु भय भी उत्पान करती है I अधिकतर मरुस्थल कठोरतापूर्ण सादगी का भाव बतलाते हैं, जीवन की न्यूनता दर्शाते हैं, क्रूर वातावरण और संकट सूचित करते हैं। सामान्य रूप से मरुस्थल में न्यूनतम प्रकार के जीवन हैं और अल्प बाहुल्य। मरुस्थल निवासी गॉड की ओर ऊपर देखते हैं अपनी क्रूर परिस्थितियों को परास्त करने के लिए अब्राहमिक रिलीजोनों के लोकाचार इस श्रद्धायुक्त भय एवं आशंका पर आधारित हैं. प्रकृति समर्थक नहीं है बल्कि पूर्णतया भय सूचक है — ये वो शत्रु है जिसको साधित, शिष्ट एवं नियंत्रित करना है I दिव्य, अल्प लालन-पालन माँ की भाँति है, और अधिकतर, एक कठोर और प्रायः क्रोधित रहनेवाले पिता के सामान है I मरुस्थल, अपने जलवायु के अनुसार, प्रतीत होते हैं अपने आपको चरमसीमा तक रिलीजॉनों के अनुभवों के लिए उधार दे देते हैं I गॉड रक्षा करते हैं मनुष्य की १० कठोर एवं अपरिवर्तनशील, क्या करें और क्या नहीं के नियमों द्वारा —– १० धर्मादेश (१० कमांडमेंट्स) I उनके आज्ञाकारिता के लिए, वे कृपा एवं दया करते हैं मनुष्यों पर, किन्तु एक गंभीरपूर्ण ग्लानि एवं क्षतिपूर्ति की अपेक्षा करते हैं। जो इसकी अवज्ञा करते हैं उन्हें  निष्ठुर रूप से दंड मिलता है, और उनके पास मात्र एक ही जीवन है जिसमें उन्हें स्वयं को सिद्ध करना है बिना किसी अन्य अवसर के पुनर्जन्म द्वारा। 

भूगोल तथापि, मात्र एक ही योगदाता है भारतीय और पश्चिमी विचारधाराओं की विभिन्नता में I मेरे आगामी ब्लॉग में, मैं चर्चा करूँगा कि, किस प्रकार भारतीय और पश्चिमियों के ऐतिहासिक दृष्टिकोणों में भी अंतर भी है I

Featured Image Credit: https://www.patheos.com/blogs/beingdifferent/2012/03/civilizations-of-the-forest-and-desert/

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