गीता का आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध — 1

हिन्दू धर्म

Translation Credit: Vandana Mishra.

भगवत गीता में, ईश्वार प्रकट होते हैं मनुष्य के रूप में, कृष्ण के रूप में, अर्जुन को मार्ग दर्शन देने के लिए कि, युद्ध हो / युद्ध ना हो की असमंजस पूर्ण स्थिति, जिसका अर्जुन सामना कर रहे थे I संभवतः हिन्दुओं के ये १८ सर्वोच्च पावन पाठ क्या शिक्षा देते हैं, वर्तमान युग में, जब हम विश्वव्यापी आतंकवादी भंवरजाल का समाना कर रहे हैं? कृष्ण जी का सुझाव दोनों ही चरम सीमाओं में उपयुक्त नहीं बैठता है, जिसकी वर्तमान में दमनकारी संचार माध्यम चर्चा कर रहे हैं: एक ओर है बहुसंख्यक अमरीकी जो प्रतिशोध लेने के लिए प्रोत्साहन दे रहे हैं, आंतकवाद को मिटने के लिए एक न्यायसंगत धारणा सिद्ध करते हुए — जैसे को तैसा। और दूसरी ओर हैं अल्पसंख्यक युद्ध-विरोधी कार्यकर्ताएं जिन्हें किसी भी प्रकार की हिंसा की इच्छा नहीं है, बल्कि  वे पक्ष-समर्थन करते हैं कि, यू.एस को अपने ऊपर लगे आरोप को मान लेना चाहिए कि, उन्होंने स्वयं के विरुद्ध घृणा को जन्म दिया I गीता के उपदेश दोनों को ही नकार देते हैं I  उनके अल्पावधि सन्देश, इस परिस्थिति के लिए संबद्धित हैं युद्ध के आचारनीति से, और उनके दीर्घावधि सन्देश, इस परिस्थिति का व्यवस्थित परिवर्तन चाहते हैं दोनों से, इस्लाम और पश्चिमियों से, जिससे की मानवता में सामंजस्य स्थापित कर सकें I

धार्मिक युद्ध

कृष्ण जी अर्जुन पर क्रोधित होते हैं, उनकी प्रारंभिक परित्याग के स्वभाव पर, ये कहते हुए कि, एक विश्वव्यापी दुष्ट है जिसका समाना करना ही है; अर्जुन ही सर्वोत्तम हैं इस के विरोध में युद्ध करने के लिए उनके प्रशिक्षण, योग्यतायें और पदवी को ध्यान में रखते हुए I ये ईश्वार का कार्य है, ना कि, उनका अपना I अनुरूपता से, ये चर्चा की जा सकती है कि, यू.एस को अर्जुन की भूमिका का अभिनय करना चाहिए, जो एकमात्र ऐसी पदवी पर है, जो सर्व शक्तिशाली है और जिसके पास सभी साधन हैं इस कार्य को करने के लिए I हिन्दू धर्म में, शासक पर आबन्ध होता है अपने समाज की रक्षा का इस प्रकार के संकट से, और अपने कर्तव्य का पालन ना करना संभवतः दायित्वहीन कहलाता है I ईश्वर का उपदेश अर्जुन को ये है कि: “युद्ध में समभाव से भागिदार बनो और बिना पूर्णतया पराजित हुए, इन हर्ष की चरम सीमाओं से, दुःख से, लाभ से, हानि से, और, तब तुम पर कोई पाप नहीं लगेगा I”

मात्र युद्ध (“धर्म-युद्ध” = युद्ध-एक-कर्तव्य) को प्रतिशोध के लिए नहीं होना चाहिए बल्कि भविष्य में आतंकवाद से निवारण के लिए होना चाहिए. न्याय की धारणा हिन्दू विचार के अनुसार कार्मिक परिणाम के रूप में व्याप्त है; किन्तु ये परिणाम ईश्वर द्वारा ध्यान रखे जाते हैं, जब भी और जैसा भी वे चयन करें। गीता महत्त्व देती है व्यक्ति के यथोचित कार्यकलाप पर, किन्तु उसका फल सर्वदा ईश्वार के सचेत में होता है I अतः, राष्‍ट्रपति बुश से लेकर विमानचालक तक जो भी आक्रमण कर रहे हैं, उनकी अभिवृत्‍ति, समाज से दुष्टता का नाश करने के कर्तव्य की भावना से होना चाहिये, और ना कि, प्रतिशोध से। 

इसके अतिरिक्त, प्रतिक्रियाओं को प्रसंगोचित एवं सन्तुलित होना चाहिए। गीता क्षमा नहीं करती है अंधाधुंध “बम गिराने” जैसे कार्य को I चूँकि कर्म व्यक्तिगत है और योग्यता पर आधारित है, इस कारण किसी के विरोध में कोई भी कुल वंश रूपरेखा नहीं हो सकती है I

ये भी सुपष्ट कर दिया गया है गीता में कि, अर्जुन को व्यक्तिगत रूप से कोई लाभ नहीं होगा विजय से I उनको कोई सत्ता, धन, प्रसिद्धि या यश नहीं मिलता है. अतएव, ये कार्य अभिमान से नहीं बल्कि निःस्वार्थ भावना से करने योग्य है. इसी को यदि वर्तमान की द्विविधा में लागू किया जाए, तो किंचित आशय हैं:

यू.एस को तेल की आपूर्ति के लिए उत्प्रेरित नहीं होना चाहिए, क्यूंकि तब वह एक स्वार्थ पूर्ण कार्य कहलाया जायेगा I 

यू.एस को मात्र उसी आतंकवाद पर केंद्रित नहीं करना चाहिए जो मात्र उसके विरोध में ही है, बल्कि अपेक्षाकृत, उसको समानरूप से सभी आतंकवादों की कार्यवाही करना चाहिए जो किसी को भी इस विश्व में आघात पहुंचाए, और उन निर्जन स्थानों को भी सम्मिलित करना चाहिए जहाँ यू एस अपने प्रत्यक्ष निजी स्वार्थ की रूचि वर्तमान में ना रखता हो I सभी कुछ पूर्ण रूप से परस्पर संबद्धित है भारतीय ब्रह्माण्डोत्पत्ति के अनुसार, और यू.एस के स्वार्थ हितों को पृथक करना शेष मानवता के हितों से विस्तृत रूप में, कोई नैतिकता का विषय नहीं है I दुर्भाग्यवश,  सभासद केर्री, जो की प्रमुख हैं सेनेट फॉरेन रिलेशन्स कमिटी (सभासद विदेशी सम्ब्नध संगठन) के कई नीति निर्धारकों में से एक, उन्होंने परिभाषित किया है यू.एस के हितों को अफ़ग़ानिस्तान से लेकर साऊदी अरेबिया तक, जिसका अर्थ है कि, भारतीय उपमहाद्वीप के इस्लामी आतंकवाद अन्ध बिन्दु की भाँती अवशेष हैं I यू.एस आतंकवादियों की एक वर्ष सहायता नहीं कर सकता, ये कह कर कि, वे यू.एस के शत्रुओं के विरुद्ध स्वतंत्रता सेनानी हैं, और अगले वर्ष उन्हीं से युद्ध करे जब उनके आपस के सम्बन्ध खट्टे हों I 

अर्जुन का सात्त्विक विधि के अनुसार आचरण अपेक्षित है (अर्थात; शुद्धता की अभिवृत्‍ति) यद्द्यपि वो हिंसात्मक आक्रमण कर रहे हों दुष्ट के विरुद्ध में I यू.एस को अवश्य ये ध्यान देना चाहिए कि, दुष्ट से उसकी कूटसंविद, सात्त्विक नहीं हो सकती है, और ये भी कि, इस प्रकार के कूटसंविद का अंत कदापि उचित नहीं होता है, और कृत्य स्वयं ही कलंकित हो जाता है इस प्रकार के संबद्धीकरण से I गीता के अनुसार हमें अपने परम मित्र का भी परित्याग कर देना चाहिए, यदि वे अनुचित कार्य करते हैं I यदि हम, यू.एस वासियों में, क्या ये निर्भयता है जिससे हम उन ‘मित्रों’ का परित्याग कर सकें जो स्पष्ट रूप से समस्या का अंश हैं? सात्त्विक कार्यों के लिए, हमें दो देश का पुनः परीक्षण करना चाहिए जिनको हम मित्र मानते हैं, एक वो जो आतंकवादियों को आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं और दुसरे वो जो उनको प्रशिक्षण देते हैं:

कई दशकों से, साउदी अरैबिआ ने वहाबी इस्लाम को प्रायोजित किया है, एक कट्टरवादी प्रकार का इस्लाम, और मदरसों को आर्थिक सहायता दिया है (धार्मिक विद्यालय) अपने इस्लम्म को निर्धन देशों की मण्डी में अधिकांश रूप से विस्तृत करने के लिए। मदरसे प्रायः इस्लामिक चरमपंथ एवं विजय संबंधी उल्ल्हास की शिक्षा देते हैं, और तत्पश्च्यात कई युवा जिहाद उपदेशक के हाँथों में चले जाते हैं जो मदरसों से जुड़े हुए होते हैं, चाहे पूर्ण रूप से अधिकारी ना हों I इसके पश्चात् भी, क्यूंकि उनका महत्त्व है यू.एस के तेल पूर्ति करने में है, इसीलिए साउदीयों को अभी तक दंड नहीं दिया गया है I

पाकिस्तान ने तालिबान का निर्माण किया, यूएस की आर्थिक सहायता और हथियारों की सहायता से, सोवियत के विरुद्ध जिहाद करने के लिए I ये वर्तमान में यू.एस के संचार माध्यम में नहीं दर्शाया जाता है, क्यूंकि ये संभवतः पूर्वी अध्यक्षपद धारियों को लज्जित करेगी और उनके किंचित वर्तमान के वरिष्ठ मंत्रिमंडल को भी, जिन्होंने उस सरकार में भूमिका की थी I हमको अनिवार्य रूप से ये पूंछना चाहिए कि, क्या पाकिस्तान में आदेशपूर्ण सेना शासन को और शक्तिशाली करना चाहिए, और क्या ऐसा करके प्रजातन्त्र का विनाश करना चाहिए, जो की पाक्सितान की जनता के, क्या हित में होगा I  यूएस के संचार माध्यम ने कहा है कि, पाकिस्तान के १५% से २०% तालिबानी हो चुके हैं, और उसकी जनसँख्या को यदि देखें तो वो, १४० मिलियन है, जो की पूरे अफ़ग़ानिस्तान की कुल जनसँख्या से भी अत्यधिक है I पकिस्तान ने प्रकट रूप से बिन लादेन की परिचालन क्षारक का आतिथेय किया था, भारतीय जन सामान्य को लक्ष्य बनाकर आक्रमण करने के लिए, जिसमें पिछले ५ वर्षों पूर्व से  किसी और देश की तुलना में, अभी तक सर्वाधिक भारतीय आतंकवाद से मारे गए हैंI

साउदियों का तेल और पाकिस्तान का भूगोल, यू.एस को अनूठा मूल्य देता है, उसकी अल्पकालिक रणकौशल की लागत से दीर्घकालिक दृष्टि की तुलना में I गीता कदापि इस प्रकार की कूटसंविद की संस्तुति नहीं करती है, उन शक्तिओं के साथ, जो स्वयं ही उत्तरदायी हों दुष्ट से युद्ध करने में I कोई भी इस प्रकार का युद्ध संभवतः एक सर्वोत्तम कामचलाऊ प्रबन्ध होगा, और अंततोगत्वा यूएस उन्हीं दुष्टों के हांथों की कठपुतली बन चुका होगा जिनकी शक्तियों को वह निर्मूल करने की इच्छा रखता है I यू.एस को अनिवार्य रूप से उदार इस्लामी विद्द्वानों को प्रोत्साहन देना चाहिए, सर्वसत्तावादी इस्लामी शासकों के व्यय से; उसको सक्रियता से इस्लामी विजयी सम्बन्धी उल्ल्हास का हतोत्साह करना चाहिए, जो इस्लामी संस्थाओं के संचालक हैं I

धार्मिक युद्ध जिहाद है

ये भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि, गीता का उपदेश एक विषमता है जिहाद के उपदेश से, क्यूंकि कई पश्चिमी विद्वानों ने इन दोनों में समान चित्रण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है:

गीता का अर्जुन को आह्वान किसी ऐसे देश को नहीं था जो मिलों दूरस्थ हो और उन्होंने कदापि किसी को इतिहास में सैन्य दृष्टि से भयभीत नहीं किया।

संयत मुसलमानों के विश्लेषण अनुसार जिहाद का अर्थ है आंतरिक युद्ध, उस दुष्टता से जो स्वयं के भीतर विद्दमान है, और इसी कारण तालिबान की  वैधता को वे अस्वीकार करते हैं I इस कथन के पीछे श्रेय है I तथापि, १३०० वर्षों से, कई महान व्यक्तियों, समाजों एवं शासकों ने जिहाद का विश्लेषण अनीश्वरवादीयों को मारने के लिए आज्ञा पत्र की भाँती उपयोग किया है और अपने विस्तार के लिए अनिवार्य माना है I  ७ वीं शताब्दी का आक्रमण जो सिंध (भारत) पर किया गया था अरब वासियों द्वारा, उसको स्पष्टतया जिहाद के रूप में मनाया गया, और इतिहास भरा पड़ा है इस्लामी लूट मार दमन कार्य के कई अनेकों सत्य से, जो भारत के ऊपर, एक के पश्चात् एक हुए I तालिबान की क्रूरता सुसाध्य दिखती है तुलयात्मक रूप से I ये इस्लामी जिहाद, जैसा की ग़ज़नी, घौरी के मोहम्मद ने किया था, और तत्पश्चात औरंगज़ेब तक सभी ने किया था, वह न्यायसंगत नहीं किया जा सका आक्रमणकारियों द्वारा ये कह कर कि, वे आक्रमण किसी आतंक के विरुद्ध या किसी प्रतिवाद के कारण किये गए थे I अपेक्षाकृत, इन युद्धों को न्यायसंगत सिद्ध किया गया अनीश्वरवादियों को मारने और उनकी मूर्तियों को नष्ट करने के लिए I अतऐव, आतंकवाद को भी न्यायसंगत सिद्ध किया जाता है यूएस पर आरोप लगा कर और इस्राइल की नीतियाँ अनदेखा करती है जिहाद के इतिहास को जो अग्रगामी थे यूएस और इस्राइल के अस्तित्व से पूर्व I

महाभारत के युद्ध में, जहाँ पर गीता की शिक्षा प्रकट की गयी थी, श्री कृष्णा ने स्वयं ही, सर्वत्र प्रकार से शांति के लिए मोल भाव करके और अवस्थापन करने के प्रयास के पश्चात् ही इसका दायित्व लिया था, एक प्रमुख उपराजदूत की भाँती I जिहाद के धर्मशास्त्र इस प्रकार के किसी भी प्रयास की आवश्यकता नहीं समझते हैं, क्यूंकि वे मात्र मुसलमान ना होने के कारण ही लागू कर दिए जाते हैं I

अर्जुन ने युद्ध के नीतिशास्त्रों का सर्वदा अनुपालन किया: उन्होंने कोई भी पत्याश्रिता का कार्य नहीं किया; उन्होंने युद्ध की घोषणा की, संबंधित लोगों को चेतावनी दी, उन्होंने उनको निवर्तन करने की छूट दी, रात्रि पहर में उनको विश्राम करने की आज्ञा तक दी और किसी भी निर्दोष को आघात नहीं पहुँचाया I उन्होंने कदापि किसी नगर को या किसी के घर, जिसमें निर्दोष लोग निवास कर रहे हों या शत्रु भी यदि, निवास रहे हों तभी, उनको आग में नहीं झोंक दिया। उन्होंने ने निर्दोषों की मृत्यु को “संपार्श्विक हानि” नहीं माना।

शताब्दियों से कई आक्रमणकारियों और इस्लामी जिहादियों द्वारा विश्लेषण के अनुसार, पुण्य योद्धाओं को  लूटपाट के उपहारों को फलों की भाँती उनका आनंद लेने के लिए कहा गया, जिसमें लूट के सर्वत्र सामग्री, कई दास और स्त्रियां भी सम्मिलित हैं I ये धर्म-पुस्तक-संबंधी अधिकार कई बार स्मरण करवाए गए हैं इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा भारत में बारंबार, सूचि पत्र में अपराधियों के नाम वेतन-भोगी बता कर लिखे गए, जिनका जीवन स्वतंत्र हो गया और वे उचित जीवनयापन करने लगे भारत पर लाभदायक छापा डालने के पश्चात्। इस प्रकार के जिहाद स्वार्थी उपक्रम थे, जो जनजातीय प्रमुखों द्वारा प्रायोजित किये जाते थे, किन्तु इस्लामी धर्मशास्त्र का उपयोग और प्रचार करके I दुष्टता  से युद्ध करने के विरुद्ध में, इस प्रकार के किसी भी, लूट, दासत्व या भिन्न प्रकार के महापाप के, विलास उपभोगता को, गीता में न्यायसंगत नहीं बताया गया है I अर्जुन को स्वर्ग की इच्छा नहीं थी, जिसमें उन्हें कई कुँवारी कन्याएं, पुरस्कार के रूप में प्राप्त होतीं I

यूरोकेन्द्रिक से प्रश्न

युद्ध के धर्म के पार भी, कई अनेकों शिक्षाए व्याप्त हैं हिन्दू धर्म में, जो दोनों पक्षों, इस्लामी कट्टरपंथी और पश्चिमी, के हितसंघर्ष के मध्य प्रदान करते हैं I यू.एस को स्वयं अपनी बौद्धिक उग्रराष्ट्रीयता का पहले आत्‍मनिरीक्षण करना चाहिए, जो उनकी पश्चिमी -भिन्न सभ्यताओं के विषय में है, जिसमें सर्वत्र पश्चिमी – भिन्न लोग सम्मिलित हैं और ना की मात्र अरबी और मुसलमान:

उग्रराष्ट्रीयता: पश्चिमी विद्द्वानों ने प्रायः अन्य की सभ्यताओं की वैद्यता का विनाश किया है I अधिकांश जो पश्चिमियों ने अन्य से हड़पा है, वह पश्चिमी श्रेष्ठता की मान्यता का परिणाम है I इसमें मूल अमरीकी निवासियों से लूटी हुई भूमि, स्वर्ण, अफ्रीका से लाये गए निःशुल्क कर्मचारी, भारत से ट्रिलियन्स (असंख्य) डॉलर्स (वर्तमान काल में रुपये का मूल्य) धन राशि जो अंग्रेज़ों के द्वारा पहुँचायी गयी, प्रचुर मात्रा में भारत से विज्ञानं और प्रौद्योगिकी (प्रायः अरबी/फारसी अनुवादों के माध्यम से), चीनी विद्द्या, इत्यादि I  गीता अभिलाषीना होती सर्वदा ही प्रत्येक सभ्यताओं के सत्य पूर्ण चित्रण के योगदान से I

असंयमित सत्ता: सत्ता से सहजीवी सम्बन्ध रहा है यूरोकेन्द्रिक सभ्यताओं का, जिसमें एक पक्ष अन्य पक्ष का भरण-पोषण करता है I एक यूरोकेन्द्रिक चित्रण, किसी भिन्न सभयता के इतिहास, समाज शास्त्र, विज्ञानं और प्रौद्योगिकी में, और सभ्यता की कथा, प्रायः उपयोग किया जाता सर्वांगी असमानता से जो विश्वव्यापी है उसको न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए, और ईसाई धर्म का प्राधान्य दर्शाने के लिए, जो धर्मांतरण के द्वारा किया जाता है I एक सच्ची आत्मा से भारतीय दर्शन शास्त्रों (वाद विवाद की प्रणाली का निरूपण ), ने सभवतः समान आत्म-निरूपण किया होता, आधुनिक संलाप में,  सभी प्रमुख सभ्यताओं का I 

धार्मिक अनुकम्पा: एक नूतन नैतिकता नियम होना चाहिए सार्भौमिक्ता में, जो कि, मानव – एकता पर केंद्रित हो और ना कि, राजनीती में I धार्मिक अनुकम्पा को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की आवश्यकता है, नीति निर्माण के हर चरणों में, और इसको “हम” और “अन्य” की की धारणा को अवश्य ऊंचा उठना होगा। उदाहरण के  लिए, क्या ये नैतिकता है, चीनियों का तिबत्तियों के विरुद्ध, मानव अधिकार के उलंघन को अनदेखा करना, मात्र इसलिए कि, तिब्बत के पास तेल या अन्य युक्‍तिपूर्ण मूल्य, यूएस को देने के लिए नहीं है?

सर्वत्र धर्मों के मध्य में सहयोग:  मात्र सर्वत्र धर्मों के मध्य सहिष्णुता, के स्थान पर सर्वत्र धर्मों का सम्मान, कर देना चाहिए, और विश्व को निवेश करना चाहिए विविध सभयताओं के परिरक्षण में I धार्मिक एकान्तिकता, धर्म के विरुद्ध है, क्यूंकि इसका प्रतिफल सांस्कृतिक उग्रराष्ट्रीयता में परिवर्तित होना है और एक की विचारधारा को अन्य पर थोपने   के लिए किया जाता है, इस छल उपदेश से कि, ‘अन्य का संरक्षण किया जा रहा है, उन्हीं की अपनी परम्पराओं से’ I एकेश्वरवाद प्रायः मेरे-ईश्वरवाद बन चूका है. ईश्वर के पारितोषिक अंकों को प्राप्त करने के लिए स्पर्धा नहीं होना चाहिए, क्यूंकि वह आस्थाओं को शिविरों में विभाजित करता है जो विश्व रुपी मंडी में अपनी भागीदारी को, विस्तृत करने में लगे हुए हैं I

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