नूतन उपनिवेशिता की अक्षरेखा – 2

भारत विखंडन

Translation Credit: Vandana Mishra.

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पश्चिमी शैक्षिक परिषद् में भारतीय परंपरायें:

आनंद का विषय ये है कि, पश्चिमी शैक्षिक परिषद् नियुक्त करती है कई भारतीय विद्द्वानों को, कई अन्य मानविकी शास्त्रों में से, अंग्रेजी साहित्य, इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाज शास्त्र एवं राजनैतिक विज्ञानं के विभाग में से I तथापि, जैसा कि पश्चिमी दर्शक उन्हें भारतीय परम्पराओं का प्रवक्ता समझते हैं, उनमें से बहुसंख्यक लोग अनिच्छुक एवं अयोग्य हैं भारतीय श्रेष्ठ ग्रन्थ को गंभीरता से समझने में I  किन्तु उनके पश्चिमी आतिथेय एवं सहकर्मी प्रायः कई भारतीय विद्द्वानों में, इस आभाव के विषय में अपरिचित हैं I इस भारतीय विद्द्वान के आभाव को सार्वजनिक होना एक लघु कलंक के तुल्य है, क्यूंकि वे अपने अधिकतर चिथड़े झूठी अभिज्ञता से बटोरते हैं और कहते हैं कि, यही है भारतीय विचारों के प्रतिनिधि I

उनकी अज्ञानता को ढंकने के लिए, कई उत्कृष्ट भारतीय युक्ति करते हैं भारतीय सभ्यता के विषय में, यूरोकेन्द्रिक एवं मार्क्सवाद आलंकारिक के मिश्रण का —- भारत की, कास्ट, गाय और कढ़ी (कास्ट, काउस एंड कर्री) सिद्धांत I वे भारत के, प्राच्यविद् वृत्तांत का उद्धरण करते हैं और स्वयं अपनी छात्रवृद्धि को उसका विस्तारण एवं उपनिवेशी लेखों का संजात मानते हैं जो मार्क्ससवाद की परत ओढ़े हुए है I एक ओर, उपनिवेशी-पश्चात् अध्ययन उनके  ह्रदय के विशिष्टीकरण एवं आजीविका मार्ग के अत्यंत निकट होता है किन्तु दूसरी ओर, वे यूरो-केन्द्रिक भाष्य विज्ञान एवं प्रणाली में ही मात्र प्रशिक्षित होते हैं I अतः, वे यूरोकेंद्रिकपन को पश्चिमी प्रणाली द्वारा विखण्डित करने में सफल होते हैं, किन्तु पूर्णतः अकुशल हैं भारतीय वर्गों और दृष्टिकोणों को लागू करने में वे यूरोकेंद्रिक प्रतिनिधित्व के ढांचे का विस्थापन नहीं कर सकते किसी भी भारीतय स्वदेशीय वास्तु से I  उपनिवेशी-पश्चात् अध्ययन प्रायः नूतन-उपनिवेशियों द्वारा प्राच्य-विद्या में परिणित हो जाता है ।

इसके विषमता में अरबी विद्द्वान जैसे एडवर्ड सईद और अबू-लुघोद, जिन्होंने यूरोकेन्द्रिकपन का विखंडन किया, ना मात्र जातिगत रूप से बल्कि विशेषकर इस्लामी और अरबी सभ्यता की ओर से भी I परिणामस्वरूप, युरोकेन्द्रिक इतिहास की पुस्तकों को वर्तमान में मध्य – पूर्वी क्षेत्रों के वृत्तांत की ओर केंद्रित किया जाना, ये एक आधुनिकता बनती जा रही है, पुनः मध्य-युग में पीछे की ओर जाना। उसी प्रकार, नेल्ल पेंटर, अफ्रीकियों की ओर से यूरोकेन्द्रिक के प्रमुख आलोचकों में से एक हैं. एनरिक डस्सेल कई प्रमुख लैटिन अमरीकियों में से हैं जो एउरोकेन्द्रिक ढांचे पर आक्रमण करते हैं I

जबकि, विशेषकर, युरोकेन्द्रिक के भारतीय विखंडन के सन्दर्भ में, जो अत्यंत शिष्ट शैक्षिक चुनौती है वह प्रायः पश्चिमियों द्वारा प्रदान दी जाती है, जैसे रोनाल्ड इंडेन एवं निकोलस डिर्क्स। कई भारतीय विद्द्वान जो मोर्चा करते हैं पश्चिमी शैक्षिक परिषद के मानविकी विभाग में, वे अनिच्छुक हैं अपनी निष्ठा के मूल्यों को संकट में डालने के लिए और कई सन्दर्भों में तो वे, सरलता से अत्यंत ही, अपने स्वयं की धरोहर के विषय में अज्ञानी होते हैं और उन्होंने इसी अज्ञानता के कारण अपनी ही धरोहर पर आक्रमण करने के लिए पूँजी निवेश किया हुआ है I

यद्यपि यूरोकेन्द्रिक को, इस प्रकार की भारतीय चुनौतियाँ देनेवालों का बटुआ विद्यमान है, किन्तु वे सशक्त नहीं हैं कोई क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में धर्म, इतिहास, समाज-शास्त्र, मानव-शास्त्र, नारी-अध्ययन, एशियाई अध्ययन, साहित्य एवं कला के क्षेत्रों में I वे कदाचित अपना एक प्रतीकात्मक ‘न्यायालय में एक दिवस’ पाते हैं, किन्तु वो प्रायः केंद्र न्यायलय नहीं होता है, जहाँ पर वास्तविक विषयवस्तु हो [७] I

भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद पश्चिमी धर्मनिरपेक्षवाद:

एक गंभीर मिथ्याबोध जो उच्छिष्टवर्गवादी भारतिय प्रतिवेश में व्याप्त है वो, उनकी अस्पष्ट धर्मनिरपेक्षवाद की व्याख्या है I भारत के धर्मनिरपेक्षवाद के सन्दर्भ में, यू.एस.ए  एक उत्तम देश है तुलना करने हेतु I वह धर्मनिरपेक्षवाद की परिभाषा को अपनी परमपरों से पृथक नहीं करता है I यद्दपि, अमरीकी सभ्यता का अनुरेखण ग्रीक तक करना एक बृहत खिंचाव है, इसके संपर्क और निरंतरता पर महत्त्व दिया जाता है I निस्संदेह, अमेरिकियों की जुडियो -ईसाई नीव को अत्यंत ही प्रबल सपष्ट एवं बनाया गया है I नूतन काल ही में, एक नविन आंदोलन आरम्भ हुआ है मूलनिवासी अमरीकियों का  पुनः-आविष्कार करना और उन्हें नूतन अमरीकियों में सम्मिलित करना I दूसरी ओर, भारत में धर्मनिरपेक्षवाद का अर्थ ये है वह परंपरा-विरोधी है, विशेषकर हिन्दुधर्म विरोधी I

अपने आपको प्रमाणित करने के लिए कि, वे धर्मनिरपेक्ष हैं, कई भारतीय पंक्तियों में खड़े हैं यह सिद्ध करने के लिए कि, वे हिन्दू धर्म से कितनी घृणा करते हैं, या न्यूनातिन्यून वे कितने दूरस्थ हैं जिससे वे कलंकित व्यष्टित्व का अनुभव करते हैं I इतिहासकार, रोनाल्ड इंडेन इस रोग का मूल-कारण समझाते हैं:

नेहरू का भारत धर्मनिरपेक्षवादमानने के लिए समर्पित था I यहाँ उसकी निर्बल सार्वजनिक रूप के ढांचे का बारम्बार दुहराना कि, सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी किसी के व्यक्त्तिगतधार्मिक विषयों में और संभवतः उत्पन्न करेगी ऐसी परिस्थितियां जिसमें सभी धर्मों के लोग प्रेम से रह सकेंगे प्रबलता और अनकहे शासकीय ढंग से ये विचार थे कि, आधुनिक बनने के लिए, भारत को संभवतः अपवारित करना होगा अपनी शताब्दियों पुरानी पारम्परिक धार्मिक अज्ञानता और अंधविश्वास को और अंततः लुप्त कर देना पूर्ण रूप से हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म को लोगों के जीवन से  I स्वतंत्रता के पश्चात्, सरकार ने  धर्मनिरपेक्षवाद लागू किया और भारत के पुराने धार्मिक स्वदेशानुराग को अधिकांश रूप से पहचानने से मना किया, वह चाहे हिन्दू का हो या मुसलमान का, साथ ही साथ (असंगत रूप से) मुसलमानों के व्यक्तिगत नियमावलीको प्रतिधारण किये रखा [८]‘ I

ये कार्यावली, जो एक झूठे धर्मनिरपेक्षवाद के परिभाषा पर बनायी गयी है,  वह ऐसी पराकाष्ठा पर पहुँचाई जा चुकी है जहाँ, संस्कृत का पिशाचिकरण  कर दिया गया है क्यूंकि उसको एक दुष्ट ब्राह्मण षड्यंत्र की भाँति देखा गया, जो समकालीन पूर्ण भारतीय समाज के पीड़ितों के दमन का कारण है, ऐसा बताया गया I जवाहर लाल विश्वविद्यालय, भारत की कई सर्व श्रेष्ठ उदार कला संस्थाओं में से एक है, और वो धर्मगोष्ठी जो उत्पन्न करती है इस प्रकार के कई कुसमंजित बुद्धिजीवियों को, उसने अत्यंत कठोर संघर्ष करके विरोध किया संस्कृत एवं भारतीय श्रेष्ठ ग्रंथों के विभाग के स्थापन का, जबकि वह गौरान्वित है अपने  प्राध्यापकों एवं पाठ्यक्रम से जो उन्होंने विभिन्न यूरोपी भाषाओँ एवं सभ्यता के सन्दर्भ में रखा है[९] I

ये परिणाम है परिपूर्ण अज्ञानता का संस्कृत  साहित्य के कार्यक्षेत्र एवं मूल्य का I भारत-विद्या अध्ययन के विद्द्वानों का ये मानना है कि, ३० मिलियन विभिन्न हस्तलिपियाँ है संस्कृत भाषा में, अधिकांश को सूचीपत्र भी नहीं किया गया है, १% से भी अल्प का अनुवाद भारतीय -भिन्न भाषाओँ में किया गया है I बृहत बहुसंख्यक संस्कृत प्रसंग ‘रिलीज़न’ के विषय में नहीं हैं, वे विस्तृत विभिन्न विषयों के क्षेत्रों जैसे — विज्ञानं, वनस्पतिविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, उपन्यास, परिहास, काम-क्रिया, राजनैतिक विचार, तर्क शास्त्र, गणित और अन्य कई इत्यादि में व्याप्त हैं I

संस्कृत, छात्रवृत्ति की भाषा थी कई विभिन्न सहस्राब्दी तक, जिस प्रकर वर्तमान में अंग्रेजी भाषा पिछले शताब्दी से है I इस भाषा का एवं इसके विस्तृत साहित्य का पिशाचिकरण करके इसको दबा दिया गया, राजनैतिक संशोधन के नाम पर, जो कि, एक शोकान्त वृतान्त है पूर्ण मानवजाति के विरोध में I अंततः ये यथावत् किया गया है भारत के ५० वर्षों के स्वतंत्र होने के पश्चात् तक [१०] I

भाषा का आधिपत्य:

इन सबका एक परिणाम ये हुआ है कि, संस्कृत शब्दों के उपनिवेशी अनुचित अनुवाद अब मान्यताप्राप्त कर चुके हैं कई बहुसंखयक भारतियों द्वारा जो अंग्रेजी भाषा में शिक्षित है, ना मात्र विद्द्वान बल्कि भारतीय संचार माध्यम, उच्च शिक्षा, उद्द्योग एवं प्रशासकीय सेवाओं में भी मान्यताप्राप्त है I 

भारतीय परम्पराओं पर अब संकलित बोझ है अपने आपको वैध करने का उन परिभाषाओं के अनुसार जो उनको भूतपूर्व उपनिवेशकों की सभ्यता.; अर्थात यूरोकेन्द्रिक ढांचे के संदर्भो के प्रयोग करने के अनुसार परिभाषित किया गया है I निएत्ज़्स्चे की भविष्यवाणी ने उद्धरण किया था इस निबंध के उद्घाटन भाग में, वो सत्य हो गया है. भाषा का नियंत्रण करने से, लोगों को वशीभूत किया जा सकता है I

किसी भी शब्द की समृद्धि प्रायः उसकी सभ्यता के सन्दर्भ में अत्यंत गहरी अंतःस्थापित होती है, उसके इतिहास में, किस प्रकार वह शब्द विकसित हुआ समय के अनुसार, और सूक्ष्म भेदों के विस्तृत सन्दर्भ आवेष्ट विशदता और अंतर्निहित अर्थों का जो उस शब्द के उपयोग से जुड़े हैं I उस शब्द के प्रत्येक अति सूक्ष्म अंतर को समझने के लिए, और तब, उसके परिचारक सभ्यता को समझना और एक जटिल सभ्यता को समझने के लिए उसको जीना पड़ता है और उसी में समिल्लित होना पड़ता है. इसी कारण अत्यधिक हानि हुई है जब किसी विदेशी सभ्यता, विशेषतः एक उपनिवेशवादीय, थोपती है, संस्कृत भाषा के अपने एकपक्षीय अनुवाद को I

उससे भी अधिक हानि तब होती है जब उपनिवेशी सभ्यता के मूल निवासी इस विदेशी अनुवाद को अपना लेते हैं — एक प्रक्रिया जो प्रायः क्रमिक एवं छल से किया जाये, और जो प्राप्‍त करे कई पुरस्कार उर्ध्वगामी होने के लिए, दमनकारी सभ्यता द्वारा I

जब किसी शब्द का प्रसंग के आधार पर, उसके निर्धारित अर्थों को क्षीण कर दिया जाता है मात्र उसके कई अर्थों में से कोई एक अर्थ में, तब वो विशिष्ट स्थायी गुण, नियुक्त करने के सामान है किसी अलजबरिक परिवर्तनशीन अंक को, और इस प्रकार उस अलजबरिक परिवर्तनशीन अंक की कई उपयोगिताओं को क्षीण कर जाता है I यदि कोई “कुइसिन = मैकडोनाल्ड,” या “एक्स = ५” जबकि एक्स की परिभाषा किसी भी वास्तविक अंक 0 से १० तक के मध्य में है, तब ये न्यूनीकरण एक हिंसा है उसके लिए, जिसका प्रतिनिधित्व किया जा रहा है I

भारतीय सभ्यता के किंचित सामान्य न्यूनीकरण के उदाहरण निम्नांकित हैं, जहाँ पर संदर्भित अर्थों का लोप हो गया है, और एक सरलतम, स्थायी अर्थ उसपर थोप दिया गया है, जिससे कि, उसको यूरोकेन्द्रिक ढांचे में बैठा सकें।

उद्घाटकों के लिए, ईश्वर “गॉड” के तुल्य नहीं हैं. निश्चित दोनों ही हिन्दू एवं ईसाई एक सवोर्च्च वास्तविकता में विश्वास करते हैं, किन्तु दोनों की अवधारणायेँ एक दुसरे से अपेक्षाकृत बिलकुल भिन्न हैं I जहाँ हिन्दू अवधारणओं की विविधता का उत्सव मनाते हैं (उनकी आन्तरिक अनेकता की स्थिति), वहीँ अब्राहमिक धर्म की मांग एकावधारणा की होती है(जिसको वे एकेश्वरवाद कहते हैं) ईश्वर के अनगिनत रूप हैं जिनमें वे स्वयं को अभिव्यक्‍त करते हैं इस ब्रह्माण्ड के भीतर, जिससे प्रत्येक व्यष्टि को अभिगम्यता का अधिकार हो व्यक्तिगत रूप से, उनके अनेकों रूपों में से कोई भी रूप के चयन करने का I किन्तु अब्राहमिक धर्मों के अनुसार, गॉड, अत्यंत ही खिन्न हो जाते हैं जब उनका “प्रतिमा चित्रण” किया जाता है I

अब्राहमिक सर्वोच्च सत्व एक पुरुष है, क्रोधित एवं ईर्ष्यालु गॉड, जिसमें रोगात्मक विचार हैं जैसे अनन्त नरकवास जो लोगों को प्रचण्ड मनोग्रस्ति की ओर संचालित करता है “रक्षा” के उद्देश्य से I अब्राहमिक गॉड इतहास में कदाचित ही हस्तक्षेप करते हैं, अतः अंत में किंचित जनजाति या संप्रदाय को ही विशिष्ट रूप से विशेषाधिकार देते हैं अन्य की तुलना में I

यदि “ईश्वर=गॉड” वैध होता, तो यह दोनों ओर से तुलयात्मक होता I चलिए “गॉड को ईश्वर” से प्रतिचित्रण करते हैं I इसका अर्थ ये है कि, जीसस संभवतः ईश्वर के पुत्र हैं I किन्तु ईश्वर के ऐसा कोई पुत्र नहीं है, और भारतीय उपन्यास की सम्पूर्णता के परिरक्षण करने के उद्देश्य से, जो ईश्वर के विषय में है, उस के अनुसार हमें ये कहना होगा कि, जीसस एक अवतार हैं, ईश्वर के I तथापि, ये गिरिजाघर को असुविकार है, क्यूंकि संभवतः इसका अर्थ ये हुआ की, जीसस का सापेक्षीकरण किसी एक अवतार में हुआ है ईश्वर के कई अवतारों में से, अतः किसी हिन्दू को ईसाई धर्म में परिवर्तन होने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी I हिन्दू सरला से संभवतः ये कहने में सक्षम होंगे, “नहीं I धन्यवाद। हमारी वर्तमान प्रणाली में पहले से ही जीसस एक अवतार के रूप में विद्यमान हैं I”

इसके अतिरिक्त, मैरी, जो की जीसस की माँ हैं, और अक्षतयोनि जन्म को किधर सम्मिलित करेंगे भारतीय उपन्यास में, ईश्वर के विषय में? इसके पश्चात्, गॉड के शत्रु भी हैं (अर्थात; पिशाच), जिनका कार्य है मानवता को उनके विरुद्ध गतिमान करना। कहाँ पर संभवतः गॉड के “अन्य” को सम्मिलित करेंगे भारतीय प्रणाली में? जहाँ गॉड के शत्रु हैं जिन पर प्रत्येक पाप को थोपा जाता है, वहीँ ईश्वर अंदरूनी रूप से दोनों, पुण्य और पाप में सम्मिलित हैं, अतएव, कोई भी  वैदेशिक नहीं है दुष्ट की तुलना में I जब ईसाई इन सभी “समरूपताओं” के विषय में बात करते हैं, तब वे ये मान कर चलते हैं कि, उनकी ईसाई मिथ्या अनवरत अखण्ड है भारतीय उपन्यास के साथ और उसको विरूपित किया जाता है ईसाई सन्दर्भ के ढांचे के अनुरूप। किन्तु ये तो संभवतः अत्यंत ही हानिकारक है भारतीय परम्परों के विश्व दृष्टिकोण एवं अखंडता के लिए, इस प्रकार ईसाई धर्म का भारतीयकरण में न्यूनीकरण करना I

मेरा केंद्र बिंदु ये नहीं है कि, हिन्दू और ईसाई का विलय होना विश्वदृष्टिकोण एवं मिथक के सन्दर्भ में असंभव है [११] I वास्तव में तो, मैं इस प्रकार की सम्भावनाओं का अनुसरण करने के लिए अत्यंत ही रोचक एवं आशाजनक रहता हूँ I तथापि, मैं बल देता हूँ कि, ये कोई सरलतम समीकार नहीं हो सकता है राजनैतिक संशोधन के नाम पर, जैसे कि प्रायः ये विषय माना जाता है I इसकी प्रमुख जटिलतायें हैं क्यूंकि इसमें कई धार्मिक निष्ठा के सापेक्षिक स्थापन सम्मिलित हैं I इसको संभवतः एक बृहत योजना बनाना होगा, जिसमें दोनों ओर के विद्द्वानों को साथ मिलकर सहकर्मियों की भाँति कार्य करना होगा — एक मित्रतापूर्ण विलयन हो मोल तोल का, और ना कि, कोई शत्रुताकारी नियंत्रण किसी और से करना I

इसी प्रकार, देव भी गॉड नहीं हैं, और देवियां भी गॉडेसेस नहीं हैं. अग्नि देव भी आग नहीं हैं, मात्र उनको उस प्रकार प्रतीकत्व किया जाता है. मूर्तियाँ भी आइडल नहीं हैं I

शिव भी सर्व-नाशक नहीं हैं, बल्कि वे अधिकांश एक परिवर्तक की भाँति हैं, जो चैतन्य को क्रमागत उन्नति से ऊपरी दिशा में गतिशील बनाते हैं I इसी कारण शिव की अवधारण एक नृत्य, योग, ज्ञानोदय एवं रहस्यवाद के परमेश्वर के रूप में मानी जाती है I सन्दर्भ (माया) के, एक झूठे निर्मित मानसिक ढांचे का ये ऊपरी क्रमिक विकास अपरिहार्य “द्रवीकरण”, और ये द्रवीकरण पूर्णतया भिन्न है प्रत्येक दिन के “ध्वंस” से I शिव का रूपांतरण एक समूह है विखंडन कार्यविधि की जो समतुल्य है, किन्तु और भी अग्रिम गतिमान है, उत्तर आधुनिक विखंडन की तुलना में I 

आत्मन, सोल नहीं है, पुनर्जन्म के कारण और आत्मन की ब्राह्मण के साथ व्यष्टित्व के कारण भी (जबकि सोल का पुनर्जन्म नहीं होता है, और “सोल=गॉड” एक ईश्वर निन्दा है अधिकांश अब्राहमिक रिलीजनों की परिभाषाओं में) Iमोक्ष और निर्वाण, साल्वेशन के तुल्य नहीं हैं, क्यूंकि उत्तरवर्ती एक पलायन है अनंत शाप से मुक्त होकर स्वर्ग जाने के लिए, ये सिद्धान्त अत्यंत अब्राहमिक हैं I

शक्ति, ऊर्जा के तुल्य नहीं है, क्यूंकि ऊर्जा मात्र एक अंश है शक्ति का. आकाश, अंतरिक्ष या स्काई के समतुल्य नहीं है I

रस एक भिन्न पारिभाषिक शब्द है जिसका पश्चिमी समतुल्य है ही नहीं, अतएव वह अनुवाद करने वाला शब्द है ही नहीं जबतक कि, उसकी कोई बृहत व्याख्या ना की जाये उसके अर्थ को ज्ञात करवाने के लिए [१२] I

लिंगम, शिश्न के तुल्य नहीं है, और एक जटिल विस्तृत श्रेणी है अर्थों की I

तंत्र, सम्भोग के तुल्य नहीं है I

प्राण, श्‍वास के तुल्य नहीं है I प्राण के कई स्तर हैं, जिनमें अप्रत्यक्ष स्तर भी सम्मिलित हैं I शारीरिक श्‍वास, प्राण का एक सहसंबंधी है, अतएव श्‍वास को प्रभावित और विनियमन करने का वह एक सामान्य मार्ग है I

“आर्यन” नाम का कोई संस्कृत शब्द विद्यमान ही नहीं है — जो एक संज्ञा हो किसी वंश या मानवजाति का और उनका प्रतिनिधित्व करे I संस्कृत में एक शब्द है “आर्य”, जो कि एक विशेषण है उत्कृष्टता के गुणों के संकेत का। बहुप्रसिद्ध बौद्ध धर्म के जो ४ उत्कृष्ट सत्य हैं, वे संस्कृत भाषा में, ४ आर्य सत्य कहे जाते हैं I किन्तु ये पारिभाषिक शब्द किसी वंश की ओर संकेत नहीं करता है, जैसा कि १९ वीं शताब्दी के जर्मन भारत-विद्या-अध्ययनकर्ताओं ने इसका अनुचित अनुवाद किया है एक पुरातन “आर्यन” में, अपनी धरोहर के निर्माण के लिए I निश्चित रूप से ऐसी कोई वंशरेखा रेखा नहीं है जिसका नाम “टेनिस चैंपियन” या “उत्तम गायक” हो — किन्तु यदि विम्बलडन को नियंत्रित किया जायगा जातीय समूह द्वारा (उसकी कल्पनाओं के विस्तार के लिए), तब ३० वीं शताब्दी में वे संभवतः अपने आपको टेनिस चैंपियन वंश के कहलाये जायेंगे—आपके पास वो चित्र हैं जर्मन भारत-विद्या अध्ययन के, जिसमें जो कुछ भी १९ वीं शताब्दी में हुआ था वह दर्शाया गया है I

क्षत्रिय और ब्राह्मण एक प्रकरण विवरण है, जो कर्तव्यों का प्रतिनिधि है और जो स्थूलत: नेतृत्व के सदृश हैं राजकीय एवं धर्म के विषयों में, क्रमशः — अतएव वह पूर्ति करता है अन्तर्निहित संतुलन की जो सामाजिक-राजनैतक एवं आध्यात्मिक अनुसंधान में है I  अंग्रेज़ों का संस्कृत प्रसंगों के अनुचितनुवाद ने अति-बल दिया था अन्य  सांसारिक दृष्टिकोणों पर, उन्होंने विश्व प्रतिवाद को हिन्दुओं में गौरवान्वित किया, और हिन्दुओं के लिए अंग्रेजी शासन को सरलता से सुविकार करने योग्य बनाया। अतः, प्राच्यविद् निर्माणों ने क्षत्रिय धर्म पर केंद्रित नहीं किया, क्यूंकि वह अत्यधिक विश्व चित्ताकर्षक एवं दृढ़तापूर्वक पुष्टि करने योग्य है. अंग्रेज़ों द्वारा “ब्राह्मणपन” उनकी पदवी को भारतीय विकास में स्वयं को मुखिया के रूप में दर्शाने के सदृश से किया था I

ब्राह्मणपन” एक अपमानजनक नाम है हिन्दू धर्म के लिए, जो की समरूप है “पोप पन” या “बीशोप पन” ईसाई धर्म के सन्दर्भ में I इसका तात्पर्य ये है कि, हिन्दू धर्म मात्र एक विश्वास के आधार पर ब्राह्मणों द्वारा बनाया गया ढांचा है, जिसकी अपनी कोई वैधता नहीं है I

ब्रह्माण्ड एक चरम सीमा की वास्तविकता है जिसका प्रायः भ्रांत किया जाता है भिन्न किन्तु सामान स्वर सुनाई देनेवाले शब्द ब्राह्मण से, जो की एक प्रकरण विवरण है एक आध्यात्मिक नेता का I

वर्ण, कास्ट के तुल्य नहीं है, बल्कि वास्तव में, यूरोपी शब्द “कास्ट” और उसका आधुनिक भारतीय प्रत्यक्षीकरण वर्ण प्रणाली के एकदम समतुल्य नहीं हैं I

लोग श्रुति (जो और सनातन सत्य है) और स्मृति (जो कि, मानव द्वारा निर्मित निर्माण-कार्य हैं, जैसे मनुस्मृति, जिसका प्रयोग प्रायः हिंदुों पर अभियोग चलाने के लिए किया जाता है) के मध्य के अंतर् को समझने में असफल रहते हैं I स्मिरीतियाँ अतएव, पूर्णतः संशोधन योग्य हैं I श्रुतियाँ भी कोई हिमाच्छादित अधिनियम नहीं हैं, क्यूंकि कोई अद्वितीय या कोई अंततः ईश्वरोक्ति भी नहीं है, अपेक्षारत अब्राहमिक रिलीजनों के —- श्री औरोबिन्दो ने घोषणा की थी कि, वे हमारे लिए नूतन श्रुतियाँ लाएंगे वर्तमान काल अनुसार, और इसी प्रकार कई अन्य ने भी घोषणा की I अतएव, ना ही भारतीय  हस्तलिपि हिमाच्छादित है, अपेक्षाकृत सामान्य अनुचित अनुभूति के I

कर्म भी भाग्यवाद नहीं है I अपेक्षाकृत, ये एकमात्र तात्त्विक प्रणाली है जो स्पष्टीकरण करती प्रत्येक व्यक्ति की अदुतीय श्रेणी की जन्म के समय, जो आधारित होती है पूर्ण रूप से उस व्यक्ति की अपनी स्वेछा से किये गए पूर्व में उसके चयनों का I

हिन्दुइस्म (हिन्दू धर्म), हिंदुत्वा के तुल्य नहीं है, क्यूंकि हिन्दुतवा एक आधुनिक राजनैतिक निर्माण किया गया ढांचा है I उसी रीति से, भारतीय परम्पराएं भी हिन्दुइस्म की एक अधिसमुच्चय हैं I

इतिहास ना ही हिस्ट्री और ना ही मिथ्या के तुल्य है पश्चिमी अभिप्राय अनुसार I जैसा कि, रंजीत गुहा द्वारा समझाया गया है कि,पुराणेतिहास की अपने अदुतीय लेख हैं रचना-पद्धति की जिसका पश्चिमी तुल्य व्याप्त ही नहीं है [१३] I

भारतीय सिद्धांतों के ये न्यूनीकरण अविरोधी हैं पश्चिमी झुकाव के, इनको समांगित करने के लिए: ईसाई धर्म मात्र एक ही मार्ग पर दृढ़तापूर्वक कथन करता है, एक गिरिजाघर, एक पुस्तक, एवं एक ही ईश्वरीय अवधारणा की I मार्क्सवाद संघर्ष करता है एक समान समाज के कल्पना-लोक की I गोरी नारीवादीयों ने अपने स्त्रीत्व के विचारों को अन्य सर्वत्र स्त्रियों पर थोपा है [१४] I  बहुराष्ट्रीय उद्योगों ने, अन्ततोगत्वा, अपने वाणिज्य को ढहा दिया किंचित   छापों एवं विकल्प में I भारतीय सभ्यता, दूसरी ओर, जीवन को एक कुल जोड़ शून्य क्रीड़ा की भाँति नहीं देखती है I विशिष्ट शब्दों के अनुचत अनुवाद के अतिरिक्त, पूर्णतः यूरोकेन्द्रिक विचारों के, ढांचों के, परत चढ़ा दिए गए हैं, भारतीय सभ्यता के अध्ययन पर, बिना किसी विशेष परिक्षण के, कि, क्या वे लागू होते हैं.  उदाहरण के लिए:

अद्वैतवाद की तुलना में बहुदेववाद एक दृष्टि की भाँति:

अद्वैतवाद एवं बहुदेववाद, दोनों  पारस्परिक रूप से विशिष्ट एवं विस्तृत वर्ग माने जाते हैं, जिसमें से सर्वत्र धर्म पारगामी करवाए जाते है I इसके अतिरिक्त, अद्वैतवाद को झूठे ढंग से ये मान लिया गया है कि, इसका आरम्भ जूदाइज़्म(यहूदी धर्म) से हुआ, जबकि वास्तव में तो, उपनिषध, में जूदाइज़्म से भी कई समाय पूर्व अद्वैतवाद पहले से ही व्याप्त था और साथ ही कई अन्य मार्ग भी चरम सीमा की वास्तविकता की प्रवृति को भी अवधारण करती हैI इसके अतिरिक्त, अब्राहमिक रिलीजनों में  बहुदेववाद के राग भी व्याप्त हैं, किन्तु उसके  महत्वों का न्यूनीकरण किया है I 

प्रत्येक व्यक्ति को मात्र एक ही रिलिजन की आज्ञा है:

जापान में एक गणना के अनुसार ये पाया गया कि, ७०% जनसँख्या एक ही समय में, एक से अधिक रिलीजोनों में विश्वास करती है I तथापि, तीनों अब्राहमिक रिलिजनों की अद्वितीयता प्रवृति को देखते हुए, उनके द्वारा ये सामान्य रूप से मान लिया जाता है कि, किसी भी दिए गए एक समय में एक व्यक्ति मात्र एक ही रिलिजन में विश्वास कर सकता हैI ये मानसिक व्यावर्तकतावाद  दृढ़ सीमाओं के साथ अंग्रेजी सरकार ने थोपा था भारत की जनगणना के द्वारा, और ये मानदंड के रूप में विद्यमान है भारतीय अध्यात्मिक विश्वासों के वर्गीकरण के लिए I तथापि, भारतीय परम्पराओं के अंदरूनी अनेकता की स्थिति का अपना इतिहास है, समानरूपी जैसे जापानियों के अनुभवों का उल्लेख किया गया है, और ये नूतनकाल में ही है कि, बाहरी आतंक ने भारतीय रिलीजॉनों के चारों ओर “चौहद्दियाँ” रच ली हैं। लगभग २ सहस्त्र वर्षों तक, उदाहरणार्थ, ईसाई अनेकता के परिवेश में भारत में निवास करते रहे, क्यूंकि उस समय, कोई आधिपत्य या विस्तारवाद गिरिजाघरों से  जिनके मुख्यालय पश्चिम में थे, उन्होंने भारतीय आध्यात्मिक विचारों पर नियंत्रण नहीं लगाया था I ये विषय बिंदु ये दृष्टान्त करता है कि, धर्म रिलिजन के तुल्य दृण रूप से नहीं है I

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