Translation Credit: Vandana Mishra.
गणेश के शिथिल शिश्न चित्रण के विरोध में की गयी याचिका —- भाग 1
इस चकित करनेवाले भाग 1 में, श्री राजीव मलोत्रा ने एक ऐसी याचिका के विषय में चर्चा की है, जो कि हमारे अराद्धय देवी देवताओं के चित्रण से सम्बंधित है। ये याचिका अक्टूबर 2003 में हस्ताक्षर पाने हेतु प्रचलन में थी। इस याचिका में अपमानजनक, अश्लील एवं कलंकित रूप से हिंदू देवी – देवताओं के चित्रण, का विरोध किया गया था। याचिका को कई प्रसिद्द , प्रमुख एवं शक्तिशाली लोगों को संबोधित किया गया था जैसे यू.ए.एस के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश, भारत के प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अन्य कई प्रमुख लोग भी सम्मिलित थे।
पुस्तक का शीर्षक: “गणेश – लॉर्ड ऑफ ऑब्स्टैकल्स, लॉर्ड ऑफ बिगिनिंग्स”, महाध्यापक पॉल कोर्टराइट द्वारा, संयुक्त राज्य अमेरिका में, प्रकाशित हुई थी जिसमें देवताओं के नग्न चित्र को आवरण पृष्ट पर दर्शाया गया था । ये सभी निर्दोष हिन्दुओं पर घृणायुक्त-अपराधों को थोपने के, सुस्पष्ट उदाहरण हैं ।
२. पॉल कोर्टराइट से संभाषण
२८ अक्टूबर को, मुझे एक ईमेल प्राप्त हुआ, पॉल कोर्टराइट द्वारा, जिसको पढ़कर मैंने ये समझा कि, वे मुझ पर झूठे ही आरोप लगा रहे थे, याचिका के उत्पादक होने का I मेरा निमिष उत्तर था प्रारंभिक विषय की, सुस्पष्टता करना, कि किसने क्या आरम्भ किया I मेरा उत्तर था:
प्यारे पॉल, सर्वप्रथम, आपने ये सब आरम्भ किया — जब आपने लिखा, आपने आरम्भ किया हिन्दुओं से सम्भाषण करना, यदपि उस समाय वो संभवतः एक आत्मभाषण प्रतीत हो रहा था I कृपया ध्यान दें कि, वक्तृता की स्वतंत्रता नूतनकाल में, दोनों पक्षों को है, अब सत्ता/सौभाग्य की असममिति को भुक्तान करने वाला समय जा चूका है, जैसा की पूर्वकालीन में व्याप्त था….. किन्तु पहले स्वयं आपको ये “निंदा” समाप्त करना होगा। विचार कीजिये इसको एक मूल निवासी भेदिया की ओर से आपको उत्तर देने के समान, अन्तरक्रियाशीलता के काल का प्रयोग करके जैसा की कई अन्य क्षेत्रों में किया जा रहा है I आप रमणीय रूप से भी अपने प्रतिद्वंदियों से विचार-विमर्श कर सकते हैं और अपना अवसर प्राप्त कर सकते हैं —- जिम्मी कार्टर ने ऐसा ही किया था भवन के बाहर, पदचाप से, जब आलोचकों ने उन पर संचार माध्यम के सामने आक्रमण किया था I कई पंडितों ने भविष्वाणी की थी कि, ये उनके राजनैतिक आजीविका के लिए अत्यंत ही घातक प्रमाद के रूप में होगा, किन्तु वे विजयी हुए I मैं कोई विशेषयज्ञ या जन संपर्क मंत्रणाकार नहीं हूँ और आप को भली भाँती ज्ञान होना चाहिए कि आपको क्या करना है I व्यक्तिगत रूप से, मैं किसी पुस्तक के प्रकाशन को बहिष्कृत करने के समर्थन में नहीं हूँ, किन्तु मैं अवश्य ये अनुभव करता हूँ कि विवादग्रस्त समस्यों को तर्क-वितर्क से संतुलित मात्र में सार्वलौकिक करना चाहिए I वस्तुतः, मेरा कृपाल को सर्वदा यही प्रस्ताव रहा है कि, उनको स्वामी त्यागनन्द के असंपादित प्रत्युत्तर को भी सम्मिलित करना चाहिए अपनी पुस्तक के समापन प्रष्ट पर, दृष्टिकोण के संतुलन को बनाये रखने हेतु I उन्होंने इसके विरुद्ध निश्चय किया, ये कहते हुए कि, शैक्षिक परिषद् में ये असंभव है I किन्तु फ्रांसिस क्लूनी की पुस्तक, “हिन्दू गॉड, क्रिस्चियन गॉड,(हिन्दू ईश्वर, ईसाई ईश्वर)” ने मेरे सुझाव को स्वीकार किया और समापन प्रष्ट में परमिल का भी अध्याय सम्मिलित किया I. फ्रांसिस को शुभम! तो आप अपने प्रतिद्वंदियों को गणेश विद्द्वान-वृत्तिक का चयन करने दें, जो प्रत्युत्तर लिखें आपकी पुस्तक में, और आरम्भ करें एक नूतन अध्याय का “संवादात्मक” छात्रवृति में.
सम्मान,
राजीव।
इसका उत्तर देते हुए, कोर्टराइट की रूचि “निंदा” क्रीड़ा से पार जाने की प्रतीत होती थी, किन्तु ये भी हठ लगाए हुए थे कि मेरी लेखनी ने अन्य कई लोगों को उत्प्रेरित किया है I उन्होंने आवेशित किया कि “मेरे उद्धरण” जो उनकी पुस्तक गणेश से है “अत्यंत बृहत और महत्वपूर्ण होने के कारण, उसने सभी कुछ अपने नियंत्रण में कर लिया।”
मैंने पुनः लिखा: “आपकी पुस्तक के सन्दर्भ में, वे “मेरे” उद्धरण नहीं हैं, ना ही मैं कोई सर्वप्रथम व्यक्ति हूँ इनकी ओर संकेत करने वाला……यदि आपको ठोस विद्वत्तापूर्ण आधार के व्याप्त होने का अनुभव है, तो आलोचनाओं से भय क्यों? क्यों ना आप अपने सिद्धांत को प्रत्युत्तर के रूप में प्रस्तुत करें — सुलेखा पर एक प्रसंग लिखें — और बिना किसी पूर्वग्रह के, परिस्थितियों को स्वीकार करें I”
३. आवेदन का प्रत्यालोचन
उस समय मैंने, याचिका पढ़ते हुए — जिस पर हस्ताक्षर करना मैंने असुविकार किया — मैंने दोनों पक्षों की आलोचना की, मतिहीनता के स्तर को ऊँचा करने हेतू संलाप में I मैंने निम्नलिखित आलोचना एक ईमेल के द्वारा कई लोगों, और हिन्दू धर्म अध्ययन के शैक्षिक परिषद् में भेजी: [१]
मैं असहमत हूँ याचकों के ठवन से कि समस्या है “भावनाओं” को ठेस लगने की — इस प्रकार की याचिका सरलता से पदच्युत की जा सकती है, और कर दी जाती है, ये सिद्ध करते हुए कि, ये अप्रासंगिक है छात्रवृति के उद्देश्य के लिए I असक्षम होने के कारण समीक्षात्मक पदच्छेद करने में, याचिका सुसाध्य है I
तथापि, मेरी समस्या कई विद्द्वानों से पूर्णतः भिन्न है: ये उनके कार्य के प्रामाणिकता एवं वस्तुनिष्ठता के आभाव के विषय में है —- एक आरोप, जिसकी वे कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहे हैं, क्यूंकि वे अधिमान्यता देकर असत्य पूर्वपक्ष का निर्माण करना चाहते हैं, जो की सरल हो उनके क्रय-विक्रय अनुसार I
अप्रमाणिकता का विषय हमें प्रगाढ़ रूप से प्रश्न करने पर विवश करता है, उन “महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों” पर, जो कि मुख्य नीव है उदार कला विद्या की। मुझे प्रमाण की आवश्यकता है कि ये “सिद्धांत” पुष्ट हैं विशेषकर भारतीय सन्दर्भ मेंI मात्र उनके विस्तृत रूप से प्रचलित होने के कारण ही, वे वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमाणित नहीं हो जाते हैं, क्यूंकि बहुचर्चित होना मात्र ये दर्शाता है कि संभवतः उनके पक्ष में जो वितरण स्रोत ,हैं वे अत्यंत शक्तिशाली हैं — जो धन-राशि एवं शैक्षिक नियंत्रण से प्राप्त होता है I अतएव अपने “सिद्धांतों” के प्रमाण प्रस्तुत करने का भार उनके कन्धों पर होना आवश्यक है, जो उस ज्ञान के उपभोगी हैं I
धार्मिक अध्ययन के विषय में मेरे ध्यान में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसने प्रमाणित किया हो इन “सिद्धांतों” को, और, निस्संदेह, वे मात्र अन्य के उद्धरण के उद्धरण देते हैं I ये मात्र अपनी छाप स्थापित करने हेतु है, या किसी और की छाप उपयोग करने के सामान है… यही छिछलापन और वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता का आभाव मेरी आलोचनाओं का मूल बिंदु है और ना कि “अनुभव” — किन्तु इन विद्द्वानों ने आभार तक प्रकट नहीं किया है वास्तविक उलाहना की प्रवृति की, जो कि उनकी ओर से कृत्रिम है। फ्रायड के सिद्धांत, इस प्रयोजन के लिए, कई समाय पूर्व ही अस्वीकृत कर दिए गए थे पश्चिम में, मनोविज्ञान विभाग द्वारा, किन्तु वो बन गयी एक “निर्यात” की सामग्री, दोषपूर्ण-प्रशिक्षण तृतीया संसार के लोगों को देने के लिए, जो की पश्चिमवासियों के श्रद्धायुक्त भय के नीचे हैं I रोलैंड और अन्य, तो गहरायी तक चले गए हैं, ये समझने के लिए कि, उनके प्रयोगाश्रित आँकड़ों के आधार पर, इस प्रकार के “सिद्धांत” भारतीय सभ्यता को समझने की दिशा में कोई कार्य नहीं करते हैं I
उसी के समान भाँति, मैं प्रकट रूप से चुनौती देने में इच्छुक हूँ कई आधुनिकता-पूर्वी, पश्चिमी-नारीवादी, और अन्य कई भिन्न समाजशास्त्रीय एवं मानवशास्त्रीय ढाँचों को — वास्तव में, वेंडी के सम्पूर्ण “उपकरण-पेटी” को I
राष्ट्र राज्य की संधारणा, लागू की गयी है पश्चिमी स्वर्ण-सिद्धांतों के आधार पर, और अन्य का, मूल्य निरूपण इस आधार पर किया जाता है कि, वे कितने “पश्चिमी” हैं — विडम्बना ये है कि, सार्वभौमिकता यूरोकेन्द्रिक राष्ट्र राज्य की मानदंडता से दूरस्थ हो रहा है, और समीप जा रहा है हिंद महासागर की विवृत अर्थव्यवस्था की ओर, इससे पूर्व कि, उपनिवेशिता उसे समाप्त कर दे I ईसाई धर्म को मूलाधार मान कर परिभाषा निर्मित की जा रही है कि “धर्म” को कैसा होना चाहिए और किस प्रकार प्रयोग करना चाहिए I नारीवाद को पश्चिमी नारीत्व की परिभषा अनुसार रचा जा रहा है — मैं आलोचनाओं के, कई उल्लेख प्रस्तुत कर सकता हूँ इसके विरोध में जो अफ्रीकी एवं एसीआई नारी विद्द्वानों द्वारा दिए गए हैं I
ये है एक “महत्वपूर्ण सिद्धांत” के बहुचर्चित स्तर के परिचय का, जो कहता है: “ये एक “वैकल्पिक तत्वमीमांसा” है जो प्रोत्साहन देता है एक विशेष विश्व दृष्टिकोण का, और, न्यूनातिन्यून अव्यक्त रूप से, एक विशेष राजनीती का…. हम ये कल्पना नहीं कर सकते कि कोई भी आलोचना “मूल्य-मुक्त” क्रियाकलाप है… आलोचक होना अर्थात राजनैतिक होना है: ये प्रतिनिधि है हस्तक्षेप का … सभ्यता के विश्लेषक चयन कर सकते हैं एवं मिश्रण कर सकते हैं सिद्धांतों के सूचीपत्रों से और एकत्र कर सकते हैं अवास्तविक ढाँचे, किसी भी कार्य के जो, उपस्थित हों I”
आवश्यक रूप से, छात्र को उचित उद्धरण देने योग्य एवं आदर्शों के समूह को उचित रूप से लागु करने के लिए शिक्षित किया जाता है, मात्र इस धारणा से कि, वे किसी प्रकार के कसौटी हैं: “उच्च शिक्षा में सफल छात्र, सिद्धांतों से अवगत निष्कर्षों पर, निबंध एवं परीक्षा में पहुँचता है, एवं यथावत् दर्शा सकता है कि, किस प्रकार सिद्धांतों ने उन निष्कर्षों को ज्ञात करवाया I” अन्य शब्दों में, ये “सिद्धांत” बन गए हैं एक परम तत्व एवं चरम अधिकारी — जो इनको वेदों के अधिकारीयों सा सदृश्य बनाते हैं, इनके प्रणेता सदृश्य हैं वैदिक ऋषियों से, एवं उदार कला के शिक्षक हैं अंग्रेजी भाषा में शिक्षित ब्राह्मण।
तो मैं आग्रह करूँगा कि संलाप का अभ्युत्थान दोनों ओर से होना चाहिए — जिसका समर्थन कोर्टराइट को करना चाहिए — वर्तमान काल में, अधि-स्तर पर चर्चा इन “सिद्धांतों” की प्रचलन में है, जिसमें वेंडी के “कल्पित कथा” के सिद्धांत भी सम्मिलित हैं एक आढ़तिया की भाँति, जो भारतियों को अस्वीकृती देते हुए प्रतीत होते हैं किसी वैयक्तिक आढ़त को I
कई रीसा विद्द्वान ने रक्षित किया है, इस छात्रवृति की स्थिति को मुझसे ये कहते हुए कि, “निस्संदेह, ये सभी सिद्धांत सापेक्षिक हैं एवं वैज्ञानिक नहीं हैं,” जैसे की ये कोई समस्या का निवारण हो I आत्मवाद एवं सापेक्षवाद मात्र बाध्य करता है हमको, और भी अग्रिम अग्रेषण होकर सर्वेक्षण के लिए: यहीं पर स्रोत/नियंत्रण के सत्ता वितरण की भूमिका प्रकट होती है, अतः “मानक सिद्धांतों” के अभिग्रहण या दृष्टि भी महत्वपूर्ण हो जाती है I सत्ता की असममिति, एक प्रसंगोचित विषय बन जाती है एक चर्चा के लिए — किन्तु धार्मिक अध्यन उसको टाला करते हैं. कोई भी घोषणा नहीं कर सकता असममित अप्रासंगिकता का, क्यूंकि असममिति की सत्ता (नूतन) उपनिवेश धर्मों के सन्दर्भ में निर्धारित करता है कि, किसके समीप अनुज्ञा पत्र है, जो ये कहे की क्या और कौन सी दृष्टि का उपयोग किया जाए —- और अपनी ही भाँति पुनः और भी स्नातक उत्पन्न करें जो उनपर निर्भर रहें।
यद्द्यपि, मैंने दुतीय पक्षों को संबोधित किया है: सिद्धांतों की शैली की सापेक्षापन, एवं असममिति की सत्ता की भूमिका जो वर्तमान काल में हमको मिलती है I कई और अन्य विषय भी हैं: (१) क्यों शैक्षिक परिषद ने अपनी द्वारपाल की भूमिका को निरंतर प्रयोग किया, दुर्व्यवहार करने में, किसी भी या सवत्र आलोचनाओं का, जो उन्हें इस मार्ग में मिले, और ये क्या दर्शाता है इनकी वस्तुनिष्ठ होने के दृढ़ कथन के विषय में? यहाँ पर मैं अत्यंत लिखित दुर्व्यवहारों को प्रस्तुत कर सकता हुईं इनके विरुद्ध, जो इस प्रकार के विषय को उठाते हैं, और अन्य कई मौखिक अणुकथाओं को भी । (२) क्यों शैक्षिक परिषद के विद्द्वान एकपक्षीय रहे अपने तिरस्कार के विषय में, जो मानव अधिकार के उलंघनाओं के सन्दर्भ में थी, शैक्षिक निष्पक्षता के उदधृत दिए गए हैं, जब वे अन्य दृष्टि से देखना चाहते हैं, परन्तु जब राजनैतिक तिकड़म हो, तब वे गहरायी तक व्यस्त भी रहना चाहते हैं? ये सूची चलती रहती है…
ए.ए.आर के धार्मिक विभाग को एक अद्वितीय अवसर है, इस प्रकार की अधि-स्तर के विषयों के परिक्षण के लिए, और विवृत होकर, आज्ञा देने के विषय में —- अर्थात असममित सत्ता के उपयोग का बहिष्कार करना और मतभेद को “अयोग्य” बताकर निरुद्ध कर देना। यदि कोई संगोष्ठी है, जो गंभीर रूप से चर्चा करने में इच्छुक है आधी-स्तर पर, तो कृपया मुझे सूचित करें, और मैं अत्यंत ही प्रसन्न हूँगा उसमें भाग लेकर…
मैं आशा करता हूँ कि, मैं सक्षम हूँ समझने में, कि किस प्रकार याचिका क्षति पहुँचाती है गंभीर संभाषण को, समस्याओं की पदावनति करके उन्हें “भावनाएं” घोषित करके, ऐसा करके वो कार्य-प्रणाली की अत्यंत गंभीर समस्याओं पर आच्छदन चढ़ती है I
(To Be Continued…)
.being proud of your heritage is not vanity but an attempt towards self identification.