Translation Credit: Vandana Mishra.
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मेरी आलोचनाओं को कई समर्थक प्रतिक्रिया मिली, उनमें से किंचित को संक्षेप में निकटस्थ दिया है.
महाध्यापक स्टुअर्ट सोवैस्कि ने लिखा: “[२] राजीव – आपको धन्यवाद देता हूँ, अपने कोर्टराइट की याचिका का उत्तर दिया — और, एम फौकॉल्ट प्राथमिक मित्रपक्ष के प्रतीत होते हैं, आलोचना करने में, “ज्ञान की शक्ति” के खेल का शैक्षिक परिषद में I तंत्र और उसके मनोविश्लेषकों द्वारा विरूपण के सन्दर्भ में, उनके आर्गन काम-साहित्य के सिद्धांत, मात्र एक पश्चिमी दृष्टि है (जैसा कि मुझे ज्ञात है) जो की सक्षम है पर्वूवर्ती समझने के और साथ ही साथ उत्तरवर्ती आलोचना करने में. अतः वो एक उदाहरण हैं, जिसके विषय में, मेरे विचार से, आप पश्चिमी शैक्षिक शिक्षा में उनके जैसे किसी को ढूंढ रहे हैं I“
“महाध्यापक अंटोनिओ डी निकोलस लिखते हैं: [३] आपका पुस्तक सम्बन्धी आदान-प्रदान एक अनुकरणीय आदर्श है, जो लघुतर विषय (भावनाओं) को छोड़ते हुए प्रबंधक है वास्तविक विषय (रीसा) पर बलपूर्वक केंद्रित करने के: ओछेपन की अक्षमता एवं प्रचार और भारतीय अध्यन के दुष्प्रचार I”
डॉ, क्लेओ केयर्न्स लिखते हैं:[४] ” वो उपद्रव जो कुछ हिन्दू अनुभव करते हैं इस पुस्तक के विषय में वो अनुरूप है (यद्यपि समरूप ना हो, असमान राजनैतिक संदर्भ में के कारण) ईसाईयों द्वारा अनुभव किया गया उपद्रव इस देश में क्रिश्चियनिटी के उपचार में इस शैक्षिक परिषद् में( और कला क्षेत्र में भी) I“ऐसा कहते हुए मैं दोनों परिस्थितियों की समीकृतना करने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ, क्यूंकि सत्ता सम्बन्ध अत्यंत ही विभिन्न हैं, किन्तु मात्र एक चित्रण जो मैं आशा करता हूँ की वो हो एक चेतावनी अक्षांश रेखा। यहाँ परिणाम, प्रचलित चेतना एवं प्रबुद्ध वर्गों के मध्य गहरायी तक खंडित है —तथा कथित “सभ्यता का युद्ध.” ये मनमुटाव हमारे समाज में अत्यंत ही घातक रहा है और अभी भी घातक रूप से व्याप्त है I इसका एकमात्र निवारण है विवृत, शिक्षित एवं महत्वपूर्ण चर्चा उस प्रकार की जैसा पालन पोषण करने का आप प्रयत्न कर रहे हैं I ये चर्चा, जबकि प्रायः शिष्ट एवं आदरपूर्वक उचित प्रकार की होती है, इसको सम्मिलित करना चाहिए दोनों शैक्षिक एवं अशिक्षिक परिषदों को, जो परंपरा के अभ्यंतर से बात करें और वो जो परंपरा के बाहर से बात करें बिना किसी परंपरा के भागीदारी के, और ज्ञात-बुद्धिजीवियों को मेरे विचार से संकोच नहीं करना चाहिए बलपूर्वक नेतृत्व करने से, जैसा कि आपने यहाँ पर किया है I”
फ्रांसिस क्लूनी ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि, उनको मेरा इ-मेल “सामान्यतः स्फूर्तिदायक” प्रतीत हुआ और उन्होंने समझाया कि शैक्षिक परिषद् अपने कार्यों में व्यक्तिगत थे, और मात्र अत्यंत सरलता से अस्वीकार कर देते थे किसी अन्य के कार्य को, जब भी वे असहमत होते थे, और कदाचित ही तर्क-वितर्क प्रस्तुत करते थे I किन्तु क्लूनी संभवतः पुनर्विचार करने में इच्छुक हैं, अपने दृष्टिकोण पर विद्द्वानों के प्रवृति के सन्दर्भ में, वर्तमान कल में रीसा द्वारा इस विषय के पिशाचिकरण को पढ़ने के पश्चात्।
एलेक्स एलेक्ज़ैंडर लिखते हैं: [५] “मैं आपसे सहमत हूँ कि ये याचिका अभावग्रस्त है कई विशेषज्ञता से जिसकी आवश्यकता है इस प्रकार के विषयों के अनुसरण करने की I तथापि, मैं निःसंदेह विश्वास करता हूँ कि, जो चिंता लोगों द्वारा व्यक्त की जा रही है, इस प्रकार के विषयों पर, वह निश्चित ही उन नेताओं द्वारा सुनी जाना चाहिए जिनके ऊपर इसका उत्तरदायित्व है दोनों ओर से, एक शैक्षिक मानदंड के निरीक्षण करना और साथ ही साथ ऐसे समाज जिसमें विभिन्न धर्मों के लोग हों उनमें शिष्टाचार को संजोह कर रखना।”
डॉ. सुशांतः गुणतिलके, श्री लंका की बौद्ध धरम की विद्द्वान, लिखती हैं: [६] मैं विस्तीर्णता से राजीव जी के कथन से सहमत हूँ I जिन अध्यन क्षेत्रों के विषय में वे चर्चा कर रहे हैं वो २५ वर्षों पूर्व, पश्चिमी आधिपत्य के विचार के अनुक्रिया के रूप में आरम्भ हुई थी I
किन्तु वे चयनित किये गए थे एक यांत्रिक उपकरण की भाँति, अन्य लोगों द्वारा दक्षिण एशियाई क्षेत्र में विपरीत कार्य करने हेतु I पश्च उपनिवेशी अध्ययन बन गया उपनिवेशीय उपकारी अध्ययन। नारीवाद, जिसका लक्ष्य था, ये समझना कि गोरे रंग के पुरुषों ने क्या त्याग दिया, वही [इतस्ततः] बन गया एक पुनरावृत्ति कि क्या गोरी रंग की स्त्रियाँ कह रही हैं I अतएव हंटिंग्टन के बिना, आपके समीप, पश्चिमियों के लिए, सभ्यता सम्बन्धी विचारक व्याप्त हैं I
जो भी आप इंडिक हिन्दू अध्ययन के विषय में कह रहे हैं, वो बौद्ध धर्म अध्ययन के विषय में और भी निकृष्टतर है I १९ वीं शताब्दी एवं २० वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का अध्ययन मात्र एक प्रयत्न था, बौद्ध धर्म में क्या है उसको चंगुल में फाँसने के लिए I वो उत्तम प्रयास था I पिछले २५ वर्षों से बौद्ध धर्म के अध्ययन में मानविकीय घुमाव आया है और चिंताशील छात्रवृति के विरुद्ध एक स्थूलकाय मनगढ़ंत अन्वेषण हुआ है, साथ ही एक अर्ध सत्य जो आधारभूत मात्र भी मानदंड को ना तो छात्रवृति के लिए और ना ही परीक्षा के लिए पूर्णतः परिपूर्ण करने के लिए पर्याप्त हैं I
कोई भी चीन से इस प्रकार पंगत नहीं करता, (मैंने पश्चिमी विद्द्वानों को वहां दण्डवत् प्रणाम करते देखा है), जापान और यहाँ तक कि, दक्षिण पूर्वी एशियाई क्षेत्रों में (मैं ये कंबोडिया से लिख रही हूँ I)
किन्तु हमें इसको विस्तृत भू-राजनीतिक परिभाषा के सन्दर्भ में देखना है I इन २५ वर्षों में भारत — इतनी अनंत कठिनाईयों के प्रतिकूल भी — संभवतः इस विश्व में, आर्थिक पराक्रम में, तीसरे या चौथे स्थान पर पहुँच जायेगा I इस शक्ति से वो आदेश दे सकता है छात्रवृति की परिभाषा को, और अपने इंडिक पक्षपातों के विरोधियों का [उपचार] कर सकता है I मेरे विचार से, इंडिक अध्ययन के समाज में किसी को इस अनिवार्यता का ज्ञात करवाना होगा I
हॉफ्स्ट्रा महाविद्यालय के महाध्यापक मनदीप सिंह, ने मेरी प्रत्यालोचना का उत्तर एक कहावत के रूप में देते हुए ये लिखा, “उत्कृष्ट विचार” I [७]
किन्तु कई अन्य लोगों ने याचिका के समर्थन में पुनः लिखा, और मेरी की गयी आलोचनाओं का विरोध किया I चित्रा ने अपना अत्यंत प्रभावशाली प्रत्युत्तर प्रविष्ट किया मेरी आलोचना का जो मैं ने अभिनव गुप्ता की सूची के विषय में किया था: [८]
…. इस याचिका के प्रारूपकों को समान अधिकार है अपने गहरे अत्याचारों को व्यक्त करने का इस पुस्तक के विषय में I आपके लिए, ये विषय किसी “भावना” को ठेस लगने का नहीं है, परन्तु उनके, जिस स्तर पर वे कार्य करते हैं, उस स्तर पर है…. मैं आशा करती हूँ कि, वो [लॉरी पैटोन] समझें कि इस याचिका को मात्र निर्मलता से एक सामूहिक भावनाओं के वायुदाबमापी यंत्र की दृष्टि से पढ़ें, ना कि एक उत्तेजन उत्पन्न करके हानि पहुँचाने के रूप में I एक अनुभूति सी व्याप्त है कि “प्रगतिवाद एवं धर्मनिरपेक्ष” हिन्दुओं का कर्तव्य होना चाहिए लुढ़कना और उनके धार्मिक परमपारों के विषय में किसी भी प्रकार के लिखित उपशब्द को आदरपूर्वक ग्रहण कर लेना I उनको “वस्तुनिष्ठ” होना चाहिए उन लोगों के लिए जो अपनी किंचित सर्वोच्च पावन प्रतिमाविद्या का रूपांतर करने की आज्ञा देते हैं एक निर्लज्ज वस्तु में, कार्यदक्षता से, उपहासपूर्ण स्पष्टीकरण द्वारा I जो इसके विरोध में खड़े होकर आपत्ति व्यक्त करते हैं उनको या तो अत्यंत “भावुक” घोषित करके अनदेखा कर दिया जाता है या; यदि उनकी भाषा पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है तो, उनको देखा जाता है सतर्कतापूर्वक एक आवर्ती अपराधी धर्मान्ध की भाँति I
…. पश्चिम में सभी धार्मिक परम्परों के प्रतिनिधियों को क्या इतना कठिन परिश्रम करना पड़ता है उचित ताल-मेल बनाये रखने के लिए, अपने उपमार्ग के व्यासमापन के लिए, एक यथायोग्य सुनवाई के लिए क्या इस सीमा तक जाना पड़ता है? क्या वे समस्वरण पांचा का प्रयोग करते हैं अपने वादविवाद में, ये सुनिश्चित करने के लिए कि, वह अनुनाद करे उचित “वस्तुगत” आवृति से, यदि वे विश्वास करते हैं कि, उन्होंने अनुभव किया हो अपमानजनक दुरागतचर्य का या तो उनके विश्वास ढाँचों के सन्दर्भ में, या तो उनके समुदाय के सन्दर्भ में और या तो उनके सभयता के सन्दर्भ में? ….. मैं आश्चर्यचकित होने में कभी स्थगन नहीं हुआ इस दोहरे मानदंड पर, जो पश्चिमी परिदृश्य में व्याप्त है……
महाध्यापक कोर्टराइट…..एक शिक्षा परिषद के सदस्य के रूप में लिखते हैं, इस प्रत्याशा में कि, वे प्रभावित करेंगें युवा ध्येय को अपनी कक्षा में और उसके परे भी I वे हिन्दू धर्म की परम्परों के, सबसे अधिक प्रसिद्द एवं प्रिय प्रमुख देवता, के विषय में लिखते हैं I
मैं निःसंदेह मनन करता हूँ कि, यह असभ्य एवं निंदनीय है किसी भी स्तर के असहमति के आधार पर किसी को दैहिक अहित के स्तर पर भयभीत करना I तथापि, ये अनिवार्य है कि महाध्यापक कोर्टराइट एवं एमोरी महाविद्यालय के अन्य तेजस्वी व्यक्ति, समझते हैं कि, वे किस से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, अत्यंत अल्पतम उग्र विपक्ष एवं साहसी वाद विवाद, जो इस पुस्तक के सन्दर्भ में होगी, उसका सामना करने के लिए वे तत्पर और उदार रहें ।
संक्षेप में, मैं विश्वास करता हूँ कि दोहरे मानदंड, धार्मिक निष्ठा के व्यवहार में व्याप्त है कई विभिन्न कारणों से और प्रतिशोध का भय उनमें से मात्र एक ही है……. ये ज्ञात होना वास्तव में स्फूर्तिदायक है कि, आपकी भाँति लोग निरंतर दबाव दाल रहे हैं शैक्षिक परिषद् पर दोहरे मानदंड से उच्च शैक्षिक दायित्व के मानदंड की ओर I किन्तु ये प्रयास किसी भी प्रकार से तुनूकृत नहीं किया गया है विभिन्न सम्मति द्वारा I इनको सुनने दो I
एक उत्साहित हिंदुत्वा के नेता अत्यंत ही कुंठित थे मुझे सूचित करते हुए, याचकों के क्रोध के विषय में, मेरी आलोचनाओं के सन्दर्भ में I उन्होंने अपने दूरभाष्य उलाहना को लिखित रूप में स्थायी बताया, मेरे पद को “तुच्छ अभद्र” कहते हुए, “जन-संपर्क में दरिद्र” एवं ये भी कि वे “ऊब” गए थे इससे I उन्होंने उल्लिखित किया “विद्वेष की गहरायी को जो इसने उत्पन्न किया” हिन्दुओं के मध्य मेरे विरोध में, जिसका वर्णन करते हुए वे लिखते हैं, “वो सुखद घटनाक्रम नहीं है” मेरे लिए I
४. उनको रोकने का आतंक और प्रयास
साथ ही साथ, ये याचिका अपनी गति शक्ति से वृद्धि प्राप्त कर रही थी और ४,००० हस्ताक्षरों को किंचित दिनों में ही प्राप्त कर लिया। तथापि, याचिका के अंत ने, आरम्भ किया एक नूतन टिप्पणियों के कर्म को, जो रूपांतरित होने लगा ” भयसूचक”, फलस्वरूप कई लोग चिंतित होने लगे, जिनमें मैं भी सम्मिलित था I इसने सक्रिय किया एक नूतन घटना कर्म को जिसमें कोर्टराइट के शैक्षिक समर्थकों ने उचित ढंग से उत्तर दिया, किन्तु इसलिए किया, दुर्भाग्यवश, अपने आपको “पीड़ित” समान पुन:स्थितीयन दर्शाने के लिए I rightly
अधिनियम अनुसार एमोरी महाविद्याला को ये कथ्य, उपयुक्त अधिकारीयों को सूचित करना चाहिए था I एक प्रख्यात विद्द्वान जो हिन्दू धर्मों में अध्ययन कर रहीं थीं, उन्होंने मुझसे उचित-अर्थपूर्ण व्यक्तिगत अनुरोध किया, तनाव को लघु करने के लिए:[९] “राजीव”, उन्होंने लिखा, “मेरी तीव्र इच्छा है कि, आप याचकों से संपर्क करें और अपनी मान्यता को प्रस्तुत करें कि, उनका ये व्योहार अनधिकृत है, और उनकी याचिका विश्वसनीयता के आभाव में ग्रसत है I उनको ये भी स्मरण करवाना सहायक होगा कि, ये कदापि ‘नहीं’ मान्य होगा किसी को दैहिक क्षति पहुँचाना, मात्र उसके अपने विचारों को व्यक्त करने के कारण ‘या’ इस प्रकार की भयसूचक याचिका की परिक्रमा करके उसको प्रचलित करना I कदापि नहीं I “
उनसे मेरा संवाद का प्रस्ताव उसी दिन ईमेल द्वारा भेज दिया गया I उनकी प्रतिक्रिया शीघ्र थी: “धन्यवाद I याचिका के जन्मदाताओं को, उनके द्वारा किये गए कार्य की वैधता को भी ध्यान में रखना होगा, कि वे क्या कर रहे हैं? इस प्रकार किसी आलेख को प्रत्यक्षतः भयसूचक रूप में प्रचलित करना किसी व्यक्ति के विरुद्ध में उचित नहीं है I मैं संभवतः भूल कर रही हूँ, किन्तु मैं समझती हूँ कि, किसी को दैहिक हानि पहुँचाने के भयसूचक सन्देश न्यायविरुद्ध हैं, जैसा कि कई हस्ताक्षरियों ने किया है–? जो लोग इस प्रकार के भयसूचक सन्देश की परिक्रमा करवा रहे हैं वे स्वयं ही संभवतः इस नियमावली के अभियोग के घेरे में होंगे I”
पृथक रूप से, मेरी आलोचना की प्रतिक्रिया के सन्दर्भ में, महाध्यापक कोर्टराइट के अन्य वरिष्ठ सहकर्मी ने मुझे व्यक्तिगत उत्तर देते हुए लिखा: [१०] “याचिका पर कई प्राणघातक भयसूचक सन्देश प्राप्त हुए हैं I फलतः यही मेरी चिंता है अब ” उन्होंने लिखा। उन्होंने मुझसे सहायता का अनुरोध किया उदार होकर बोलने के लिए, अन्य भयसूचक संदेशों के निषेध के लिए , याचिका को “घृणा का आलेख” कहते हुए और ये भी कहा कि “हिन्दू धर्म का चित्रण पूर्णतः अनुचित हैI” उन्होंने आग्रह किया की हमें दूरभाष संवाद की आवश्यकता है I
मैंने प्रयत्न एवं छिन्न-भिन्न का प्रस्ताव रखा इस स्थिति में, जो संबंधित थे अपमानजनक टीका-टिप्पणी के इस याचिका से, और अपने मेटा-स्तर (समझदारी/व्याप्त होने का वो स्तर जो उच्च है और प्रायः अत्यंत ही पृथक है, उनकी तुलना में जहाँ पर विषय को अधिकतर समझा जाता है) के बृहत संलाप विषय के विश्लेषण को प्रस्तुत किया उनको भेजे गए मेरे ईमेल में, मैंने लिखा: [११] “कृपया ध्यान दें कि मैंने कई बार प्रयत्न किये ए.ए.आर-प्रचार संलाप प्रक्रिया को स्थापित करने का किन्तु उस ओर से कोई भी पारस्परिक नहीं मिला I मुझे हर बार पहले की अपेक्षा और भी अपमान मिला है….. मेरी अपनी रूचि है इसमें कि, भारतीय परम्परों में किस प्रकार ये सिद्धांत और प्रणाली लागू किये जा रहे हैं I विनाश के भय से भयभीत हुए बिना, ये पता लगाना आवश्यक है कि, किसने ये सब निर्मित किया और इनको रोकना होगा I किन्तु, साथ ही साथ मेरा परामर्श ये है कि, राइ का पहाड़ ना बनाया जाये, क्यूंकि “पीड़ित छत्र” के उपयोग का कई बार पहले प्रयास किया गया है किन्तु वह किसी समस्या का समाधान नहीं सिद्ध हुआ I सर्वोत्तम है संतुलित रहकर परिप्रेक्ष्य को ना खोना।”
वे पुनः उत्तर लिखकर भेजतीं हैं: [१२] “पीड़ित: मुझे इस पीड़ित शब्द से घृणा है I मैं कोई पीड़ित -मृत्यु भयसूचक वाला खेल नहीं खेल रही हुईं I मात्र मेरा इतना ही कहना है कि, २० से अधिक वक्तव्य पॉल के विषय में टाँगे, जलाये एवं गोली से छलनी किये जा चुके हैं उनके पते को उसी याचिका में प्रकाशित करके और ये अत्यंत ही गंभीर विषय है जो, क्षीण करता है ए.ए.एल के हस्ताक्षरीयों के विश्वसनीयता को I” उत्तरकालीन, वे लिखती हैं: “मैं आपको स्नेल ईमेल द्वारा भयसूचक वाले वक्तव्य भेजूँगी जो वर्तमान तक हमने एकत्रित किये हैं I आनंद भाव से पढ़ते हुए। राजीव, मैं आपसे सम्भाषण करने के लिए कृतज्ञ हूँ.””
हिन्दू धर्म के एक तृतीय प्रमुख पश्चिमी विद्द्वान ने ईमेल से पृथक होकर लिखा: [१३] “मैं समझती हूँ कि आप अत्यंत ही उत्तम प्रयास कर रहे हैं उपदेश के स्तर को उच्च करने के लिए I” एक अन्य ईमेल में, उन्होंने लिखा कि उनके अनुसार याचिका “उपयुक्त रूप से भाषांतरित की जा सकती है एक साइबर आक्रमण के रूप में I[१४] किन्तु तत्पश्चात उन्होंने मेरी थीसिस(प्रसंग) को स्वीकार किया जिसमें मैं ने लिखा था कि विद्द्वानों को प्रवासियों से इतना पृथक नहीं होना चाहिए, उन्होंने लिखा: “मैं पूर्णतः आपसे सहमत हूँ, राजीव, कि उत्तम सम्पर्क के माध्यम को उचित स्थान पर होना आवश्यक है [१५].
शुक्रवार, ३१ अक्टूबर को, मेरी वार्तालाप हुई एक व्यक्ति से जो याचियों से सम्बंधित था, और अनुरोध किया कि जब तक वे पूर्ण रूप से सारे अपमानजनक टीका-टिप्पणी को हटा नहीं देते और नए टीका-टिप्पणी को आने से बहिष्कृत नहीं कर देते, उनको पूर्णतः उस याचिका को ही हटा देना चाहिए I सोमवार, ३ नवंबर तक, याचिका पूर्ण रूप से भूजाल (इंटरनेट) से हट चुकी थी.
३ नवंबर के समकालीन, एमोरी से शैक्षिक चिल्लाहट याचिका के विरुद्ध विश्व भर के विद्द्वानों तक पहुँच चुकी थी. मुझसे कई विभिन्न अनुरोध किये गए, मुझे हस्तक्षेप करने के लिए, उदाहरण के लिए नीचे दिए गए महाध्यापक रोबर्ट थर्मन द्वारा प्रस्तुत है: [१६]
मुझे एक कष्टप्रद समाचार मिला कि, पॉल कोर्टराइट को विभिन्न भाँति की सर्वोच्च मृत्यु-सूचक धमकियाँ दी जा रही हैं और उनपर फतवे भी थोपे जा रहे हैं प्रचंड हिन्दुओं द्वारा, श्री गणेश की नग्न मूर्ती के चित्र को प्रकाशित करने के कारण! कौन सा इ-समूह है ये? ये वास्तव में दुर्भाग्य का विषय है, क्यूंकि ये अत्यंत ही आधारहीन और अनैतिक है। ये सारे विद्द्वानों को एक सर्वोत्तम मुक्ति प्रदान करता है उन्हें उ-टर्न (पलट जाना) करने के लिए और अपनी पूर्वाग्रह बौद्धिक आलोचनाओं को गंभीरता से ना लेने के बहाना को सिद्ध करने के लिए। यदि कुछ है आपके समीप जो आप अपना प्रभाव दिखाने के लिए प्रयोग कर सकें एक महत्वपूर्ण प्रवक्ता के रूप में, जो उनके वाचनिक हिंसा के विस्फोट का दमन कर सके, तो ये अत्यंत ही सकरात्मक होगा आपको अपने पक्ष को बलपूर्वक तर्कसंगत श्रेष्ठतर उत्तोलन देने के लिए, फ्रॉयड की धारणाओं के विरुद्ध और पादरियों के मिथ्या प्रस्तुतिकरण के विरुद्ध में I कृपया, दृण कथन रचें ऐसे कठोर एवं आत्म-पराजय की धमकियों के विरुद्ध, जो हिन्दू धर्म को मात्र कलंकित करते हैं। ये उपयुक्त अवसर है आपके लिए हमरे पक्ष में हमारे वक्ताओं से बातचीत करके पुनः उत्साहित होने का उस कायापालट के लिए, जिसके लिए आपने अत्यंत परिश्रम किये हैं I
याचिका पर किये गए “भयसूचक” टिप्पणियों की आलोचना करते हुए, मैं साथ ही साथ उतना ही छिद्रान्वेषी भी था शैक्षिक विद्द्वानों को लेकर, क्यूंकि वे सत्यवादी संलाप के स्रोत के खुलने की स्वीकृति नहीं रहे थे I कुछ व्यक्तिगत ईमेल पश्चिमी विद्द्वानों को जो सम्भाषण में हितपरायण थे, उनको मैं ने लिखा: [१७]
प्रवासी अब भली-भाँति परिचित हैं ए.ए.आर/रीसा से, शंकास्पद, और शीघ्रता से गतिमान हो रहे हैं I वे अब कोष-प्रजनन को चुनौती दे रहे हैं, और उनके बच्चे अत्यधिक निडर बन रहे हैं अपने हाँथों को उठाकर प्रश्न पूँछने में, कि किस सामग्री का चयन किया है एकपक्षीय चित्रण करने के लिए…
यदि ऐसे ही छोड़ दिया गया तो, स्थिति और भी छय हो जाएगी, और तब संभवतः कोई होगा जो न्यायालय में अभियोग के लेख्यपत्र भेजेगा इस कटु-भाषण पर या इसी प्रकार कुछ अन्य करेगा । इसको अवश्य ही सकरात्मक विचारधारा से टालना होगा I इसके लिए, नेतृत्व करने की कुशलता आवश्यक होगी जो इस राजनीति जीविका के संचालक को हटा सके I
ये प्रवासी कर्मण्यतावादी मात्र एक या अल्प समूह के ही नहीं हैं I उत्कृष्ट भारतीय रीती में, ये अत्यंत ही विकेन्द्रित है और कई अन्य स्वघोषित कर्मण्यतावादी एकाएक सर्वदा प्रकट होते रहते हैं….
मैंने इसी प्रकार के समरूप प्रस्ताव कई बार प्रस्तुत किये हैं शैक्षिक परिषद् को: मैं उपस्थित हूँ भाग लेने के लिए उन लेन-देन में जिसमें दोनों पक्षों का लाभ हो और जो चहुँ ओर के दृष्टिकोणों को मान्यता देते हों I मैंने बारंबार स्पष्ट किया है कि, मैं वो बौद्धिक विचार-विमर्श को ढूँढ रहा हूँ, जो विकसीत करेगा प्रवचन को और ना कि उसको धराशाई करेगा –अर्थात, मेरा पद यथार्थतः रूप से विपरीत प्रभाव का होगा सेंसर-व्यवस्था की अपेक्षा में I
उदाहरण के लिए, सुनथर को मेरी टिपण्णी ने मेरे उ-टर्न (पलट जाना) सिद्धांतों का अर्थ समझाया, और प्रकाशित किया गया उनके द्वारा अभिनव गुप्त के इ-समूह पर: [१८]
विषय कामुकता का नहीं है(जो भारतीय परम्पराओं में अत्यधिक मात्रा में है पश्चिमियों की अपेक्षा में), बल्कि भाषा एवं ढाँचे का है। फ्रूड की पश्चिमी भाषा लाती है सिद्धांतों के मूल्यांकन को, वो दृष्टि जो अनिवार्य रूप से भारतीय सभ्यता के अनुकूल अधिप्रमाणित नहीं है, और निस्संदेह विशेषाधिकार देने वाली हैं उन द्वारपालों को जो इस कार्यप्रणाली के प्रभारी हैं, अर्थात पश्चिमी(रूपांतरित) अंग्रेजी – भाषा के ” ब्राह्मण I” इसके अतिरिक्त, अचेत मानचित्रण करना एक प्रधान सभ्यता भाषा/ढाँचा, फलस्वरूप मूल कार्यप्रणाली को क्षीणता की ओर ले जाता है, जो , परिणामस्वरूप और भी तीव्र क्षति है विनियोग के लिए I
संक्षिप्त में: मैं अप्रसन्न था, याचिका के एकमेव प्रभाव “भावों” और अपमानजनक टीका-टिप्पणियों के विषय को लेकर। विद्द्वान के अनुरोध पर, मैं जुड़ गया व्यक्तिगत प्रयासों से “भयसूचक” स्थिति को प्रसारित करने में, और साथ-साथ दोनों पक्षों के साथ कार्य करने में I इसके साथ ही, मैं स्पष्टवादी रहा हूँ कठोरतापूर्वक आलोचना करने में रीसा छात्रवृति की कार्य प्रणालियों के विषय में, और कई बहुसंख्यक किन्तु असफल प्रयत्न किये हैं इन विषयों पर, परिषद् को गंभीर संलाप से जोड़ने के I
तथापि, मुझ पर दोनों ओर से आक्रमण हुआ, जैसा की निम्नलिखत वर्णित है I
(Will Continue…)