रीसा लीला-१: वेंडी का बाल-परिलक्षण – 4

भारत विखंडन

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क्षात्रवृद्धि के रूप में आत्मकथा:

उसी अभिन्न समालोचन में तत्पश्चात, सिंथिया ह्यूमस पुष्टि करती हैं कि काल्डवेल का कार्य, कृपाल के कार्य की भांति, अधिकतर आत्मकथा रुपी है प्रकृति का है —- एक मनो-स्वांग है जो अनावरण करता है विद्द्वान की अपनी असत्य विकृति विज्ञानं की, प्रायः अतीत अभिघात के घाव तले:

“मुझे कॉडवेल के विश्वास की, निष्कपटता पर संदेह नहीं है कि, देवी “किसी प्रकार ‘मेरा नाटक परिचालन कर रही थीं'” या कि उनकी व्यक्तिगत शोकांत वृतांत में थे “अर्थ एवं महत्व मेरे सीमा पार, व्यक्तिगत काम-वासना, भय, विक्षिप्त एवं अस्तव्यस्तता के ” (२६७) I प्रचूर उदाहरण दिए गए हैं काल्डवेल की सुस्त आक्रोशों के स्वतंत्रत राजकाल के, यथायोग्य किसी ना किसी प्रकार से उनके वर्त्तमान के भूतपूर्व पति की ओर किन्तु उनकी ओर अल्प निंदापूर्वक शैक्षिक मार्गदर्शन है। ये मार्गदर्शन ( उनके सहयोग के बिना, अन्योन्यदर्शन में एवं व्यवस्थापन में, उनके किसी एक विद्यार्थी को साधन देना, उसको स्थायी रखने के लिए, एवं प्रावधान किसी प्रत्यक्ष सहायक उपदेश से) से सताती हैं, उनके प्रयत्न को, अपने शोध कार्य को प्रभावित करने के लिए I इसके अतिरिक्त वे संदेहास्पद उन्हें कृपण बताती हैं अपने आर्थिक सहायत के सन्दर्भ में एवं, विडम्बना से, उन्हें छोटा कहते हुए उनके संशय को संभवतः अधर्मी (एक अविश्वास जो तर्कसंगत बन जाता है ) (५४) I ये उदाहरण बन जाते हैं ओबेएसकेरे के सिद्धांतों के “प्रगतिशील अनुकूलन” के, अधोरेखा करते हुए, कैसे काल्डवेल के व्यक्तिगत अपराध-स्वीकरण प्रमाणित करते हैं उनके विस्तृत मनो-विश्लेषणात्मक सिद्धांत, आश्चर्यजनक समान प्रस्तावित प्रकोप एवं आक्रोश भद्रकाली के व्यक्ति के विषय में. ऐसा करते समय, काल्डवेल परिरक्षित करते हैं और महत्वपूर्ण रूप से, मुझे विश्वास है, यहाँ तक कि, विस्तार भी करते हैं शासन अवकल का लेखक एवं पाठक के मध्य जो प्रमाणित करता है उनके सहभागी-समीक्षक प्रक्षेपण का उनके विषयों पर I”

“व्यक्तिगत अपराध-स्वीकरण” उल्लेख करता है काल्डवेल के लेखों का, कि वे किस प्रकार अपने परिवार द्वारा अपमानित की गयीं थीं, और वे प्रधान भूमिका वो निवेश कर रही थीं अपने आंदोलन को संयोजित करके अकर्मण करने के लिए स्वामी मुक्तानंद पर उनके आश्रम में, कथित कामी-कुरीति नारियों पर करने हेतु। यद्दपि मैं ने बृहत विस्तृत रूप से लिखा है पश्चिमी विद्द्वानों द्वारा यू – टर्न पर, अपने मूलनिवेशी जूड़ीओ-क्रिस्टियन परंपरा के प्रयोजन को संपन्न बनाने के लिए, हमें नकारना नहीं चाहिए यू – टर्न के महत्त्व को जो उत्पन्न हुए हैं व्यक्तिगत अभिघात से, जैसे कामी-अपमान सम्बन्धी I यही परिस्थिति थी काल्डवेल की [४०] I”

विद्द्वान का ये प्रक्षेपण, उसके व्यक्तिगत मनोविकृति का उसके विषय-वास्तु पर, अत्यंत ही शिथिल एवं अनियंत्रित व्याख्या का प्रयोग, उसके सत्य को विस्तृत करके और उसी के समान निदान कहीं और ढूँढना, अचूक परिभाषा है वेंडिस चाइल्ड सिंड्रोम की I अतएव, कोई भी, कालिस चाइल्ड पुस्तक को पढ़कर आनंद उठा सकता है एक परिज्ञान मानते हुए किसी विशेष वेंडिस चाइल्ड, जैसे कृपाल नाम के I काल्डवेल की रचना इसी प्रकार, होनी चाहिए, एक आत्मकथा का प्रत्यालेखन, एक अभिघात पश्चिमी महिलावादी का, जो संघर्ष कर रही है अपने अपराध एवं अयोग्यता के भावों से I

मनो-कामी पथभ्रष्ट से आरम्भ करते हुए, या अन्य अनुपयुक्त अपने ही सभयता में, कई ऐसे विद्द्वानों को सत्कार एवं अर्थ मिलता है भारत में, किन्तु तत्पश्चात वे यू-टर्न लेते हैं कई कारणों से, विशेषकर जब वे अनुभव करते हैं कि लाभप्रद आपण है, दोनों नकारात्मक विचित्र वस्तुएं एवं सकारात्मक सभ्यता लूट के भी I विद्द्वान के अहंकार का ये अधिकार-प्रदान, जो की स्रोत-सभ्यता के मूल्य पर किया जाता है उसे एक ओजस्वी जीवन आरम्भ करने में सहायक होता है, ये नैतिक एवं सदाचार का प्रश्न भी उद्घोष करता है I

ऐसा कहने के पश्चात्, मैं ये भी अनुभव करता हूँ कि हिन्दुओं को अवश्य ही अनुकम्पा दिखानी चाहिए इन विद्द्वान के मनोविकृति पर, क्यूंकि ये एक कृपालु एवं कोमल पथ होगा उनको बताने के लिए कि उनकी क्षात्रवृद्धि उनके अपने जीवनशैली पर आधारित है, और अनुपयोगी है भारत के विषय में पढ़ा ने के लिए I

भ्रामक क्षात्रवृद्धि:

हिन्दू जानते हैं कि कोई भी एकमात्र देवी सर्वत्र देवियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती, और इसी कारण, कोई भी अवलोकन किसी देवी का अधूरा है यदि उसको नहीं देखा गया एक अंश की भांति एक बृहत एवं अत्यंत विस्तृत चित्रण उनके कई रूप के I अतएव, पश्चिमी बहुतायत – प्रमुखता देते हैं उसके संवेदनात्मक रूप के, विशेष कर उसके लैंगक एवं हिंसक के, ये अत्यंत निकृष्टम प्रकार का न्यूनन है I ये समरूप होगा एक पाठ्यपुस्तक के जो बिल क्लिंटन पर है जिसमें पूर्ण अध्यक्षयपद को मात्र मोनिका लेवेंस्की की भांति दर्शाया जाये. विद्द्वानों को ये अवश्य ही ध्यान देना होगा कि यह किस प्रकार का भ्रामक एवं अनुत्तरदायित्व है I

वो तर्क जो इस प्रकार के कार्य के लिए दिया जाता है कि ये कार्य विद्द्वानों के अंदरूनी उपयोग के लिए है वह असत्य है, क्यूंकि वर्तमान इंटरनेट काल में जनमत से कुछ भी व्यापक रूप से रहस्य नहीं रखा जा सकता है I मेरा सुझाव इन विद्द्वानों को ये है कि यदि वे सार्वजनिक रूप से अपमानित नहीं होना चाहते हैं अपनी रचनओं एवं वार्ता से, तो सर्वोत्तम नीति यही है कि पहले तो इस प्रकार के शब्द समाज में ना बोलें । तथापि, ये बहुतायत रूप से स्पष्ट है वेंडिस चिल्ड्रेन के कार्य के निरिक्षण के पश्च्यात, कि ये रचनायें आकस्मिक नहीं हैं उनके कार्यों से, बल्के ह्रदय की गहराईयों से समाविष्ट हैं उनके मूलभूत विचारों के कार्य की घोषणा से, जिसके बिना उनके समीप कुछ भी नहीं है कहने को!

प्रचलित हिन्दू सभ्यता का मनःतार्किकरण:

अपेक्षा अनुसार, काल्डवेल, जेफ्फ कृपाल के कार्य का समर्थन करती हैं, किन्तु वे उसमें एक अन्य महत्वपूर्ण परिमाप जोड़ती हैं: वे विश्लेषण करती हैं, हिन्दू समाज द्वारा, सारी उलाहना का, एक मनोवैज्ञानिक अव्यवस्था का लक्षण बताते हुए, कुछ ऐसा जो कि वे अत्यंत दृणता से अनुभव करती हैं, कि उसकी मनो-विश्लेषणता करना आवश्यक है, ये ज्ञांत करने के लिए कि हिन्दू जनसमूह में क्या अनुचित है I वे लिखती हैं: [४१]

जिस बैर से जेफ्फ की पुस्तक पर आक्रमण हुआ है, वो अभी भारत में बकाया है, मुझे विश्वास है, ना कि क्या जेफ्फ को कहना है वास्तव में ऐतिहासिक रामकृष्ण के विषय में, बल्के क्या उनके प्रसंग का तात्पर्य है विवेकानंद के विषय में, और विस्तार में, समकालीन हिन्दू राष्ट्रीयता के विषय में I

जिसने भी देखा है आनंद पटवर्ध की “फादर, सन एंड होली वार” चल-चित्र की शृंखला(विशेषकर भाग २, “हीरो फार्मेसी”) समझेगा गहरा सम्बन्ध पुरुष कामुक कौशल, पौरुष एवं हिन्दू राष्ट्रीयता हिंसा जो कि अत्यंत ही सुस्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया है उसमें I रामकृष्ण की तांत्रिक “उन्माद” सरलता से, अनुरूप है दक्षिण एशिया की प्रज्ञा से उन संतों के व्यवहार का; कई गुरुओं और ऋषियों ने असामाजिक या उलटी प्रवृति दर्शायी (और रामकृष्ण का स्पष्ट एवं चपल रूप से इतरलिंगी की अस्वीकृति, उनके समलैंगिकता से भी अधिक, था एक गहरा असामाजिक कृत रामकृष्ण के सामाजिक संसार में); और तांत्रिक विद्या का प्रयोग कामुकता में, उलटाव के लिए (दोनों सामाजिक एवं आध्यात्मिक) पंच जाता है गहरे हिन्दू परंपरा में, जैसा की हम सब जानते हैं I

पुनः विषय पर आता हूँ, मैं सुझाव देता हूँ कि, ये वास्तव में समस्या नहीं है रा-मकृष्ण की, जो बल देता है, जेफ्फ को मिली द्वेष पूर्ण ईमेल पर I अनुमान ये है कि विवेकानद, जिन्होंने पुनिर्मित किया रामकृष्ण के सन्देश को पौरुष में, स्वच्छ किया सुधारवादी हिन्दुइस्म को जिसने कई शताब्दियों पूर्व स्वयं को प्रस्तुत किया था विश्व मंच पर एक आकर्षणभरे रूप में, एक सम-कामुक सहनशील वस्तु अपने गुरु की कामवासना की गहरी भयसूचक है I इस प्रकार की प्रतिमा काली छाया दर्शाती है “स्त्रीवाची” भारतीय पुरुषों की, जो अत्यधिक मात्रा में उपनिवेशी संवाद के अंश थे, और उसने प्रवेश किया समकालीन हिन्दू राष्ट्रीयता में I मेरा सुझाव है कि, हम इस पूरे वाद-विवाद को एक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें ना कि मात्र धार्मिक अध्ययन एवं हेर्मेनियुटिक्स (भाष्य – विज्ञानं, विशेषकर धार्मिक ग्रंथों से जुड़े हुए) से I हमें आवश्यकता पूर्ण ध्यान देना होगा उन विषयों पर जो आशिष नंदी ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है अपने “द इंटिमेट एनिमी (एक घनिष्ट शत्रू)”, और जो आल्टर ने भी अर्थपूर्ण, प्रतिरूप ढंग से लिखा है, पुरुष कामुक सामर्थ्य की भूमिका एवं पौरुष अभिज्ञान की राष्ट्रवादी संघर्ष में……. समलिंगकामुकता एक समकालीन भारतीय राजनैतिक सम्भाषण में व्यक्तिगत कामुक प्रवृत्ति का चिन्ह नहीं है बल्कि चिन्ह है एक दुर्बलता एवं प्रधानतापूर्ण सम्बन्ध पुरुषों के बीच का. लॉरेंस कोहेन ने लिखा है इस विषय पर एक अग्रसक्रिय अनुच्छेद, एक होली राजनैतिक हास्यचित्र में, जो दर्शाता है राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को, एक दूसरे को, समलिंगकामुक कुशाग्र करते हुए, इत्यादि।”

काल्डवेल अपने लेख को और भी विस्तृत किये जा रही हैं, और दृणतापूर्वक कहती हैं कि ये कथित कामुक रोग लक्षण हिन्दुओं, उनके ऋषिओं एवं उनकी देवियों के, वातायन भी हैं उनके सामाजिक सभ्यता एवं राजनीती को समझने के:

संक्षिप्त में, हमें सावधानी से परीक्षण करना है कि “समलैंगिकता” का क्या अर्थ है इन भाषणगत एवं व्यक्तिगत सन्दर्भ में जिसमें इसका प्रयोग किया जा रहा है, और पौरुष का दक्षिण एशिया में ऐतिहासिक एवं राजनैतिक पृष्टभूमि पर वार्तालाप, और ना कि हम केंद्रित हों पूर्ण रूप से व्यक्तिगत क्षेत्र में जैसा कि समन्वय है यूरोप एवं अमेरिका में I हमें आवश्यकता है सामाजिक सभ्यता का मनःतार्किकरण करने की एवं व्यक्तिगत क्षेत्र की. जेफ्फ की पुस्तक, यद्दपि सूक्ष्म एवं सहानुभूति वृतांत देती है किसी एक व्यक्ति के जीवन का, वह आमंत्रित करती है हमको अपने दृष्टिकोण के विस्तार के लिए जिस से हम समझेंगे उस जीवन का अभिग्रहण एवं उसका विरूपण कई शताब्दियों में एक अत्यंत वादविवाद धार्मिक दिखावे से. बी.जे.पी सर्कार के वर्त्तमान चुनाव के पश्च्यात, इस प्रकार की छान-बीन समयोचित एवं अनिवार्य है I”

किसी “समाज की सभ्यता का मनो-तार्किकरण”, राजनैतिक दृष्टिकोण से, रूढ़िवाद एवं प्रजातीय रेखाचित्र का, संशोधन करना उचित पंथ है I ध्यान दीजिये कि किस प्रकार वे विभाजित करती हैं “व्यक्तिगत क्षेत्र, जैसा कि समान्य है यूरोप और अमेरिका में” क्यूंकि वे गोरे लोगों को वैयक्तिकता एवं संस्था देती है, जबकी भारतियों को विशेषकर हिंदुयों के लिए वैयक्तिकता एवं संस्था निषेध है I

काल्डवेल की क्षात्रवृद्धि को संक्षिप्त में निम्नलिखित निष्कर्षों से दर्शाया गया है:

१. हिन्दु संतों का एवं हिन्दू देवियों की कामी “उन्माद” प्रवृत्ति एक सामान्य और अपेक्षित विषय है I

२. इस रोग-लक्षण विद्या को पश्चिमियों से छिपा कर, विवेकानंद (जिनके विषय में काल्डवेल दृणता से कहती हैं कि वे रामकृष्ण के “धैर्यवान समलिंगकामी वास्तु” थे) ने हिन्दुइस्म का गट्ठर बनाकर एक पौरुष प्रतिमा स्थापित की I

३. परिणामस्वरूप #२ से, जो निर्दिष्ट कामी विचलन एवं अति-पौरुषपन लागू होता है, वह ना केवल एक हिन्दू व्यक्ति पर बल्कि हिन्दुओं की सामाजिक सभ्यता पर भी लागू होता हैI

४. अतएव, उनके मस्तिष्क में तीव्रता है समकालीन हिन्दू धर्म को पढ़ने की इस भूषाचार में, विशेषकर जब से बी.जे.पी की सर्कार सत्ते में आयी है I

फलस्वरूप, विद्द्वत्परिषद में धार्मिक अध्ययन निश्चित ही अब आधुनिक भारतीय राजनीती में प्रवेश कर चूका होगा! ये लेख वैध करता है एवं आश्रय देता है महाध्यापक गेराल्ड लारसन के यू-टर्न [४२] को ——एक गंभीर, दशाब्दियों से बने, संख्या विद्द्वान को, इस नूतन जीविका के लिए , जो विखंडन करती है “हिन्दू राष्ट्रीयता” की राजनीती का ।

आप मेरी पीठ कुरेदें, और मैं आपकी पीठ कुरेदूँगा ——– ये कार्य-प्रणाली, प्रतीत होती है इस कुल के विद्द्वानों की. जेफ्फ कृपाल, पुस्तक के समपादक जिसमें काल्डवेल की हिन्दू देवियों का मनोविश्लेषण प्रकाशित होता है, नम्नलिखित न्यायसंगत इस अग्रणी क्षात्रवृद्धि का दर्शाता है:

“…….. हिन्दुओं को कभी-कभी, मनोविश्लेषण का निष्कर्ष इतना आक्रामक लगता है अपने स्वयं-ग्रहणबोध एवं सभ्यता की प्रज्ञा पर; जब कि दिया गया है मनो-विश्लेषणात्मक, सामाजिक एवं अन्तरात्मिक नियंत्रकों के संकेत-लिपि को छिद्र करने का प्रयत्न और उसकी सुस्पष्ट इच्छाएँ रहस्य को उजागर करने की और सच्चाई को अनावरण करने की, ये अचरज का विषय होगा अवश्य ही यदि वे किसी अन्य रीति से प्रतिकार करें। संक्षिप्त में, मनोविश्लेषण एक ऐसी प्रणाली है जिसकी आशा है उसका अस्वीकरण होनाI मनोविश्लेषण, तब, नृविज्ञानी के अध्ययन के क्षेत्र से बहुतयः परे चला जाता है और संस्कृत के प्रसंग और धार्मिक इतिहासकार की असाधारण अध्ययन पर प्रश्नों के उत्तर देने के लिए, जिसको कोई साक्षात्कार, प्रसंग या असाधारण अध्ययन इच्छुक हों पूँछने के लिए, अत्यंत अल्प उत्तर होता है I”[४३]

वस्तुनिष्ट क्षात्रवृद्धि का भ्रम:

पाठक को ये ध्यान देना चाहिए कि किस प्रकार ये युरोकेन्द्रिक विद्द्वत ज्ञानी जो हिन्दु धर्म में विशेष्यज्ञाता प्राप्त करते हैं, वास्तव में अंततः विषय को परिवर्तित (उदाहरण के लिए, देवियाँ) कर देते हैं अपने सीध में अपने कार्यावली, मानसिक एवं सभ्यता पूर्वधारणा के अनुसार I (मेरे यूरोकेन्द्रिक आलोचनाओं की ग्रंथसूची, के लिए अंत में टिपण्णी देखें [४५] I) ये मुख्य रूप से उपलब्ध हैं निम्मनलिखित उल्लेख द्वारा:

१. मनमाने ढंग से प्रसंगों एवं प्रश्नों का चयन करना, प्रसंगों के उपवर्गों का एवं, प्रयुक्त छलनी और दृष्टि का प्रयोग I

२. असत्य अनुवादों को थोपना—-सर्वत्र, प्रामाणिक वस्तुनिष्ट क्षात्रवृद्धि के नाम पर I

३. हिन्दू समुदाय को वर्जित करना, या उनकी प्रस्तुति किसी प्रतिनिधि द्वारा करना, या उनपर “मूलनिवासी भेदिया” प्रतिवेदन करना। उदाहरण के लिए, जब किसी चर्चा या प्रकाशन पर निष्कर्ष का उत्तरदायी चाहिए तब किसी विशेष संप्रदाय के प्रतिनिधियों को आमंत्रित ना करना। रहस्यपूर्ण प्रयोग द्वारा ये चित्रित किया गया है श्री रामकृष्ण की अनुपस्थिति के समय, जैसे की पहले चर्चा हो चुकी है I

४. किसी अकेले चुनौती देनेवाले पर आक्रमण करके उस पर अत्यंत ही निकृष्टतम उल्लेख करना जिसकी कल्पना भी ना किया सके I न्यून्तम आलोचना, RISA(रीसा) के अंतरंगियों द्वारा, जो जानते हैं कि रेखा किधर खींचनी है, प्रोत्साहन पाते हैं, जिस से की उनको दिव्यज्योति सामंत एवं एकता का सर्वेक्षण मिलता रहे।

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