संस्कृत के लिए युद्ध में हुई मुख्य वाक् युद्ध

भारत विखंडन

Translation Credit: – Vandana.

ये पुस्तक वाद-विवाद करती है इस विषय पर कि, संस्कृत एवं संस्कृति दोनों ही जीवित, पवन और मोक्ष के स्रोत हैं. यद्दपि, इसका भविष्य हमारे आतंरिक समाज के निर्णय पर निर्भर करता है कि, वे इस परंपरा का क्या करेंगे। एक बृहत महत्वपूर्ण अन्वेषण तभी हो सकता है जब कई गंभीर संस्कृत विद्द्वान और भारतीय आधार पर आधारित संस्थाएं इस कुरुक्षेत्र में प्रवेश करें प्रत्यक्ष रूप से और परिवर्तन लाएं। एक पुरातन लोकोक्ति है: “यः क्रियावानः सः पण्डितः” I परिवर्तन मात्र उन पंडितों द्वारा ही लाया जा सकता है जो स्वयं कार्यान्वित हों, ना कि, मात्र आसान ग्रहण करके बैठनेवालों द्वारा I

मैं वाद-विवाद की किंचित सूची प्रस्तुत करने का प्रस्ताव रखूँगा जो आशापूर्वक इस पुस्तक के परिणामस्वरूप उत्पन्न होगी I यदि इन में से किंचित भी वाद-विवादों को आरम्भ किया जाए उन बहुश्रुत आतंरिक लोगों से, जो कि, परंपराओं के प्रतिनिधि हैं, तब भी वे इस क्रीड़ा मंच को परिवर्तित कर सकते हैं I ये उपमार्ग अतिउत्तम है बौद्धिक क्षत्रियों को प्रशिक्षण देने के लिए, जो धार्मिक परम्पराओं का निधड़क होकर प्रतिनिधित्व कर सकेंगे, जो की उनके गूढ़ ज्ञान एवं वाद-विवाद की निपुणता पर आधारित होगी I इसके अतिरिक्त जो ज्ञान उत्पन्न होगा इस प्रकार के विवादों के परिणामस्वरूप वह, संभवतः सूचित करेगा उन नीति निर्धारकों को जो शिक्षा, सभ्यता, विज्ञानं, जन-स्वास्थ्य, अंतर – धार्मिक समरोहों और संचार माध्यमों में लीं हैं। प्रत्येक सन्दर्भ में, मैंने अपनी पदवी संक्षिप्त रूप से इस सूची में निम्नलिखत किया है: 

अ. भारत के बौद्धिक पुनः-उपनिवेशीकरण पर वादविवाद

१. संस्कृत अध्ययन के निर्यात का अधिकार: 

दी बैटिल फॉर संस्कृत(संस्कृत के लिए युद्ध), परिणाम है मेरे आंदोलन का जो हतोत्साहित करता श्रृंगेरी पीठम के अपहरण का अमरीकी प्राच्यविदियों द्वारा I इस प्रकार की डकैती प्रयास की जाती है, उन एन.आर.आई के निधीकरण की सहायता एवं श्रृंगेरी के ज्येष्ठतर  प्रबन्धकों के समर्थन द्वारा I ये दर्शाता है उस अधिकार को प्राप्त करने की इच्छा को, जो स्थानांतरित हो जाती है अन्य संस्थाओं में एवं व्यक्तियों में उनके विषय में जो अन्य सभयतों में निवेश कर चुके हैं I मैं इसको अत्यंत भयावः मानता हूँ I हमें अपनी सभ्यता की नीव के पुनरुत्थान के लिए वाद-विवाद की प्रणाली की आवश्यकता है जिससे कि, हमारी परंपराओं के अधिकारों को निम्नवर्गीय ना सिद्ध किया जा सके I हमें अनिवार्य रूप से नीतियों का निर्माण करना होगा, पश्चिमी भारत-विद्या अध्ययन कर्ताओं के संग मिलक,र और लागू करना होगा उन सभी नियमों को जो इसकी सुरक्षा के लिए उपयुक्त हों।

२. पश्चिमी सार्वभौमिकता को एक विशेषाधिकृत ढांचे की भाँती अंगीकृत करना:

वर्तमान प्रचलन भारतीय विद्द्वानों को प्रशिक्षण देने के लिए आरम्भ किया गया है, जिससे कि, वे महत्वपूर्ण विचारों में पश्चिमी उपकरणों का प्रयोग कर सकें; विस्तृत सीमा परिसर के पश्चिमी सिद्धांतों एवं सिद्धांतवादियों पर कुशलता प्राप्त करने हेतु कई वर्ष लगेंगे I ये हमारी भारतीय संस्कृति, सिद्धांतों, परम्पराओं एवं सम्प्रदायों की महत्वपूर्ण विचार प्रणाली को सीमांकित करने का भय उत्पन्न करता है I इसके साथ ही साथ, भारतीय सभ्यता के जवाहरों को हथिया कर उनको पश्चिमी सम्पति में परिवर्तित किया जा रहा है I मैं अनुरूपता का प्रयोग करके दर्शाता हूँ कि, यूएस का डॉलर विश्व मुद्रा कोष में मान्य है I मैं प्रस्ताव देता हूँ कि, हमें किंचित शक्तिशाली अनुवाद ना होने वाले  संस्कृत शब्दों के वर्गों को सार्वभौमिक बौद्धिक मुद्रा का अंश बनाना होगा जो भविष्य के लिए उपयोगी हो I

३. प्राचीनता की अवस्था:

यद्दपि, शेल्डन पुल्लॉक कहते हैं कि, हम सभी प्रचीनता पश्चात् युग में जी रहे हैं, किन्तु मैं तर्क प्रस्तुत करूँगा कि, प्रचीनता का पुरातन रूप १.० अब रूपांतरित हो गया है और भी अत्यंत अमरीकी प्राचीनता के रूप में जिसको हम प्राचीनता २.० भी कह सकते हैं I We ought to discuss whether Indology today is largely a newer and updated genre of Orientalism.

आ. बौद्ध धर्म के उपयोग से हिन्दू धर्म को चीरने का चुनाव

४. बौद्ध धर्म का हिन्दू धर्म से सम्बन्ध:

क्या बौद्ध धर्म वास्तव में हिन्दू धर्म के विरोध में है? क्या ये वास्तव में वैदिक-विरोधी है, जैसा कि, पश्चिमी विद्द्वानों द्वारा दोषारोपण किया जाता है? पारम्परिक भारीतय सूत्रों के प्रमाण ये प्रस्तावित करते हैं कि, दोनों के मध्य की विभिन्नता को अत्यंत अतिशयोक्तिपूर्ण दर्शाया गया है I वास्तव में, हिन्दू, बुद्ध, जैन, सिक्ख सभी एक ही गर्भ से जन्मे हैं — वो है धर्म का गर्भ I

५. प्रमुख हिन्दू लेखों के कालक्रम:

अपने उस थीसिस के समर्थन में जिसमें वे कहते हैं कि, हिन्दू धर्म में नवपरिवर्तन का आभाव है जिसका कारण ब्राह्मणों का एकाधिपत्य है और उनकी मौखिक परम्परा, अमरीकी प्राच्यवादी व्यख्या करते हैं कि, हिन्दुओं के सर्वत्र ग्रन्थ बौद्ध धर्म का वेदों के विरुद्ध हस्तक्षेप के परिणाम से ही संभव हुआ है। वे प्रारंभिक संस्कृत व्याकरण, पूर्व-मीमांसा, रामायण इत्यादि ग्रंथों के कालक्रम को उथल पुथल कर देते हैं; मात्र उन्हें बुद्ध के पश्चात् दर्शाने के लिए I ये सर्वत्र घोषणाएं इस समर्थन में की जाती हैं कि, सभी हिन्दू ग्रन्थ बौद्ध धर्म के विरुद्ध मात्र प्रतिक्रियायों का संग्रह है I

६. प्राचीन भारत में लेखन:

क्या भारत में लेखन बुद्ध के किंचित शताब्दियों पश्चात प्रारम्भ हुआ, किसी विदेशी प्रवासी द्वारा और बौद्ध धर्म में परिवर्तित यात्रियों द्वारा, जैसा की अमरीकी प्राच्यवादियों द्वारा कहा गया है? सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं एवं सभ्यताओं के इतिहास में जैसा कि, उनके द्वारा दर्शाया गया है, वे तिरस्कार करते हैं सभी लिखित उपलब्ध प्रमाणों को जो इंडस-सरस्वती सभयता सम्पत्तियों से प्राप्त हुए हैं I

इ. उसी के आधार पर संस्कृत एवं संस्कृति के चित्रण का चुनाव

७. मौखिक परम्परा:

जिस छात्रवृत्ति की आलोचना मैं इस पुस्तक में कर रहा हूँ , वह भारतीय मौखिक परंपरा को निम्नवर्गीय सिद्ध करती है I मैं इस पुस्तक में स्पष्ट कर रहा हूँ कि, कैसे मौखिक परम्परा अतीत में ना केवल एक मात्र आवश्यकता थी भारतीय सभ्यता के विकास के लिए, बल्कि ये भविष्य के लिए भी एक उज्जवल विकासशील सौगंध है मानसिक विज्ञानं के लिए और शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में भी अंकुरित होते हैं I

८. भारतीय भाषाओं का इतिहास:

अमरीकी प्राच्यवादी ये मानते हैं कि, संस्कृत भारत में विदेशी प्रवासियों द्वारा आयी और वो आनुवांशिक रूप से एवं संरचनात्मक दृष्टि से भारतीय देशीय भाषणों से भिन्न है I उन्होंने आरोप लगाया की संस्कृत क्रमशः सफल रही दमनात्मक रूप से देशीय भाषाओँ पर और अपने प्रमुख आधिपत्य को स्थापित करने में उन देशीय भाषाओँ पर I इस विवादास्पद क्षेत्र ने उन आधुनिक सामाजिक सिद्धांतों में घुसपैठ कर लिया है, जो भारतियों को विभाजित करने के लिए प्रयोग किये जाते हैं उनके मतभेदों से ग्रस्त लोगों को, उनकी विभिन्न भाषाओँ एवं सामाजिक समूहों के आधार पर I ये उस पारम्परिक दृष्टिकोण को खंडित करता है कि, संस्कृत और प्राकृतिक (जहाँ से मातृ भाषा या देशीय भाषा विकसित हुई है) दो परस्पर सहायक भाषा वैज्ञानिक स्रोत हैं जिनमें सम्मिलित है, एक भाषण प्रणाली जिसको वाक कहते हैं I

९. सामाजिक-दुर्व्यवहार का निहित रूप से व्याप्त होने का आरोप:

पश्चिमी भारत विद्या अध्ययन कर्ताओं की बढ़ती हुई संख्या के अनुसार, संस्कृत एवं संस्कृति ने सर्वदा ही महिलाओं, दलितों और भारत के मुसलामानों का दमन किया है और उनसे दुर्व्यवहार किया है I इसको दृणतापूर्वक एक संरचनात्मक अवगुण बताया गया है अपेक्षकृत इसके कि, इसको एक पृथक उदाहरण की भाँती बताया जाए I ये आरोप लगाया गया है कि, संस्कृत व्याकरण, वैदिक ग्रन्थ और शास्त्र मूल कारण हैं; और वे लदे हुए हैं कई नियमों से जो बौद्धिक स्वतंत्रता का निवारण करते हैं I यही वो दृश्टिकोण है जिसको पारम्परिक लोग संभवतः उत्साह सहित वादविवाद करना चाहेंगे, और हमें दोनों पक्षों को सुन ना होगा।

१०: सृजनात्मकता के आभाव का आरोप:

ये और भी तथाकथित है कि, व्यावहारिक (विश्व सम्बन्धी विषय) में, शास्त्र अमिश्रित सृजनात्मकता और विकास का बहिष्कार करते हैं, क्यूंकि वे वैदिक विश्व दृष्टिकोण द्वारा विकास में बाधक बनते हैं I तथापि, प्राचुर्य मात्रा में इसके विपरीत प्रमाण व्याप्त हैं, जो दर्शाते हैं कि, भारतीय शास्त्रों को अनुभवाश्रित और आध्यात्मिक, दोनों ही क्षेत्रों में उत्पन्न और लागू करने में, अत्यंत ही सृजनात्मक रहे हैं I शास्त्रों को इसी कारण, अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, ये मान कर कि, उनमें यथार्थ नवीनता एवं सृजनात्मकता का आभाव है I

११. संस्कृत की ‘मृत्यु’ का अभिकथन:

मैंने इन शैक्षिकपरिषदों के शिक्षकों से वाद-विवाद किया जो कहते हैं कि, संस्कृत १००० वर्ष पूर्व ही मृत हो गयी थी I मैं पारम्परिक विद्द्वानों का उद्धरण प्रस्तुत करता हूँ जैसे कि, कृष्णा शास्त्री एवं के.एस कन्नन जो इन विषयों पर वाद-विवाद करने के इच्छुक हैं I

१२. संस्कृत एवं संस्कृति को धर्म निरपेक्ष करना:

शेल्डन पोलॉक के शिविर में सभी लोग संस्कृत को धर्म निरपेक्ष सिद्ध करने में लगे हुए हैं क्यूंकि उसमें कई आध्यात्मिक चरण हैं जैसे यजन, परम्पराएं, पूजा-पद्धति, तीर्थ, व्रत (प्रतिज्ञा, सौगंध) और अन्य कई विभिन्न साधनायें। इन सबको वे पिछड़ा, ढोंग पूर्ण एवं दमनकारी सिद्ध करना चाहते हैं I उनका मुख्य लक्ष्य है उन सभी चरणों के उन्मूलन का जो भी आध्यात्मिकता के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं और मात्र उन चरणों पर ही केंद्रित करना जहाँ शुद्ध लौकिक या व्यावहारिक क्षेत्र हैं I परम्परावादी अपनी परम्पराओं की अखंडता के सन्दर्भ में इसको घोर उलंघन मानते हैं I मैं भी दृणतापूर्वक इस छटनी धर्म निरपेक्षता का विरोध करता हूँ I

१३. काव्य पर राजनैतिक शस्त्र होने का आरोप:

अमरीकी प्राच्यवादी शिविर के सदस्य ये मानते हैं कि, काव्य (साहित्य) का निर्माण मुख्य रूप से राजा के लिए किया गया था जिससे वे अपनी सत्ता, शक्ति का प्रदर्शन अपनी प्रजा पर कर सकें। अन्य शब्दों में, इसको एक प्रकार से पुरातन रूप में शासक के अधिप्रचार का कलयंत्र माना गया है I इस प्रकार के न्यूनीकरण दृष्टिकोण का अवश्य ही विरोध करना चाहिए I काव्य को मात्र राजनीती में नहीं समाविष्ट कर सकते हैं; इसने कई सकारात्मक कार्य किये हैं सामान्य जन के लिए दोनों, धर्म निरपेक्ष एवं पवन क्षेत्र में I

१४. रामायण:

क्या रामायण राजाओं के द्वारा शोषक उपनिवेश का चित्रण है, अर्थात., क्या राज धर्म एक शोषण भरी प्रणाली है राज्य करने कीमेरे प्रतिरोधी रामायण को अनिवार्य आध्यात्मिक इच्छा के रूप में नहीं देखते हैं बल्कि उसको एक राजनैतिक शस्त्र के रूप में देखते हैं I वे उसे एक ऐसा उपयोगी शस्त्र मानते हैं जो इस वर्तमान काल तक, मुसलमानों पर हिंसा करने के लिए प्रयोग किया जाता है. यद्दपि, भक्तगण इसके विपरीत विचार करते हैं I वे तो श्री राम को सर्वत्र राजाओं के मध्य उन्हें आदर्श मानते हैं I

ई. संस्कृत एवं संस्कृती का पुनः अधिपत्य एवं पुन:स्थितीयन:

१५.  अंग्रेजी में, भारतीय ग्रंथों का एकपक्षीय ज्ञान प्रवाह:

कई शताब्दियों से, भारतीय भाषा ग्रन्थ को अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया गया है किन्तु इसके विपरीत का प्रवाह कदाचित कदापि नहीं हुआ है I परिणामस्वरूप, मात्र अंग्रेजी भाषा ही सर्वत्र शोध एवं समपर्क के क्षेत्रों में ज्ञान प्राप्त करने की भाषा बन गयी है I संस्कृत को अवश्य ही अपनी पदवी अँगरेज़ी के समतुल्य प्राप्त करना होगा, अपने ज्ञान भंडार के रूप में जो अपने विचारों के बल पर आधारित हो I यहाँ हम चीन से शिक्षा ले सकते हैं उनकी नीतियों से, जो मैंडरिन के सन्दर्भ में हैं I

१६. अन्य पुरातन भाषाएं जो संस्कृत के समतुल्य हैं:

पश्चिमी विद्द्वान क्रमशः संस्कृत का वर्गीकरण लैटिन से करते हैं, जिसको वे मृत भाषा के समतुल्य मानते हैं, और/या ग्रीक के संग जिसको वे प्राचीनकाल-संबंधी उत्कृष्ट भाषा मानते हैं I आधुनिक भारतीय विद्द्वान अंधादुंध इस प्रकार के संस्कृत के वर्गीकरण को स्वीकार कर लेते हैं, उसको मृत या प्रचीत काल की उत्कृष्ट भाषा के रूप में मान लेते हैं I ये परम्परावादियों को कदापि स्वीकार नहीं है कि, संस्कृत या संस्कृति किसी प्रत्यक्ष बहिष्करण के द्वारा उत्पन्न हुई है पुरातन काल में, बल्कि संस्कृत तो अतीत से लगातार निरतंत्र रूप में विकसित होती आयी है I अतः, हमें दसगुणा प्रयत्न करना चाहिए संस्कृत अध्ययन को लैटिन/ग्रीक अध्ययन की तुलना में और संस्कृत को वर्गीकृत करना चाहिए मैंडरिन और पर्शियन के समतुल्य जो निरंतर लगातार अतीत से संपर्क बनाये हुए हैं I हमें एशियाई देशों से चर्चा करनेवालों को लाना चाहिए जहाँ मैंडरिन, फ़ारसी, अरबी, हिब्रू एवं जापानी भाषाओँ को विशेष प्रमुखता दी जाती है, और पुरातन एवं आधुनिक दोनों की भाँती इन भाषाओँ को मान्यता-प्राप्त है I

१७. संस्कृत अध्ययन की व्यापकता:

संस्कृत भाषा और उसके पुरातन ग्रन्थ के अध्ययन के अतिरिक्त, ये आवश्यक है संस्कृत वर्गीकृत एवं अन्वेषणों के कार्यों को आधुनिक क्षेत्रों से परिचय करवाना जैसे, अभिकलनात्‍मक भाषाशास्त्र, परिस्थिति-विज्ञान, प्राणियों के अधिकार, वृद्धों के बढ़ती जनसंख्या और परिवार ढाँचे, तंत्रिका विज्ञान एवं मस्तिष्क शास्त्र, शिक्षा एवं त्वरित शिक्षण प्रणाली, गणित और अन्य सैद्धांतिक विज्ञानं एवं स्वास्थ्य विज्ञानं इत्यादि अन्य और कई I हमें खंडन करना होगा वर्तमान में व्याप्त बौद्धिक रंगभेद नीति का जिसमें संस्कृत को पृथक किया गया है ज्ञान के क्षेत्रों से जहाँ संस्कृत में से उसकी बहुमूल्य मणियों को हथिया लिया जा रहा है पश्चिमियों द्वारा, और उनको पुनर्निर्मित किया जाता है पश्चिमी आदर्शों में, तत्पश्चात उनको एक नूतन हिस्ट्री का नाम दिया जाता है, तथाकथित पश्चिमी “अन्वेषण” I

१८. हिन्दू-भय का प्रकाशन:

यदि कोई विद्द्वान अल्लाह के अस्तित्व का ही खंडित करे, या ये दृणता से कहे कि, क़ुरान वास्तविक प्रत्यक्ष शब्द नहीं है अल्लाह का, या मोहम्मद कोई ईश्वरदूत नहीं था, तो इसको इस्लाम-भय कहेंगे। ये आरोप तब भी लागू है, यदि वह विद्द्वान जिसकी हमने चर्चा की है, वो ‘सकारात्मक’ बातें कहे जैसे: अरबी भाषा में कविताओं के संपन्न संग्रह व्याप्त हैं, क़ुरान ने मानवता के प्रकाश को संभाला हुआ है, इत्यादि I उपरोक्त कोई भी तर्क मुसलमान के मस्तिष्क को  संतुष्ट नहीं कर सकता। कोई भी सदृश परिस्थिति यदि मार्ग में आयी तो उसको यहूदी-विरोधी वर्गीकरण किया जायेगा। हिन्दुओं को इस दोगले स्तर वाले पश्चिमी  शैक्षणिक की चेतावनी देनी होगी, क्यूंकि वही समतुल्य अतिसंवेदनशीलता एवं अधिकार हम हिन्दुओं को, अपनी परम्पराओं के विषय में बोलने के लिए नहीं दिया जाता है I इसी कारण शेल्डन पोलॉक  स्तंभित हुए जब मैंने उनके कई उदाहरणों को हिन्दू धर्म (अर्थात., हिन्दू-भय) के लिए अहितकारी बताया I हमें समतुल्य कार्यक्षेत्र निर्धारित करना चाहिए इस्लाम-भय, यहूदी-विरुद्ध, हिन्दू-भय, इत्यादि के निरुपक हेतु परिभाषाओं के लिए I

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