कहाँ हैं वे पाँडव जो हिन्दू धर्म का नेतृत्व कर सकें?

विशिष्ट हिन्दू धर्म

Translation Credit: Vandana Mishra.

बौद्धिक कुरुक्षेत्र के स्नदर्भ में हिंदुवों के पुर्नजागरण आंदोलन को अपनी क्रीड़ा की नीतियों को सुधारना होगा I दुर्भाग्यवश, हम में सामथर्यवान विद्द्वानों और संस्थापक प्रक्रियाओं की अपूर्णता है I हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व सर्वदा ही निम्नवर्गीय स्वरों में किया जाता है I भावनात्मक आडम्बर एवं राजनैतिक प्रतिपालन ने इसके प्राण खींच लिए हैं और पौरूष एवं वास्तविकता को निष्प्रभ कर दिया है I अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामर्थयवान नूतन हिन्दू विद्द्वानों की अल्पता के कई कारण हैं. इनमें से सर्व प्रमुख कारण है इस विश्वास का व्याप्त होना कि, “सभी कुछ पहले से ही वर्णित किया गया है” I इस प्रकार के व्यक्ति प्रायः अपने आलस्य को संक्षिप्त में बौद्धिक एवं घनिष्ट मित्रता के पीछे छिपा देते हैं, विपरीत इसके कि, वे गुणों को और व्यावसायिकता का अननुशीलन करें।

एक सामान्य उदाहरण इस संलक्षण का नूतन कालीन ही किंचित दिन पूर्व घटित हुआ है. मेरी दो पुस्तकें (‘ब्रेकिंग इंडिया’ और ‘बीइंग डिफरेंट’) पर आक्रमण हुए किंचित मध्य-स्तर के हिन्दू नेताओं के द्वारा एक विचित्र आरोपण से: कि, ५०वर्षों पूर्व कई प्रमुख हिन्दुओं ने मेरी पुस्तकों के समान पुस्तकें पहले से ही लिख दी हैं जो कि, “यथार्थतः समान” हैं मेरी पुस्तकों से, परिणामस्वरूप मेरे सर्वत्र कार्य को निरर्थक एवं अनुत्पादक सिद्धि करने का प्रयास किया। आलोचक असफल रहे ये देखने के कि, ‘ब्रेकिंग इंडिया’ केंद्रित करता है कई वर्तमान काल के व्यक्तियों एवं संगठनों पर जो आज से ५० वर्षों पूर्व व्याप्त ही नहीं थे I और जो अंतर्दृष्‍टि वर्णित है ‘बीइंग डिफरेंट’ में वह निर्मल है उस  कदाचित “समान” पुस्तकों की तुलना में जो पिछले काल में लिखी गयी थीं I आलोचक संतुष्ट थे छिछली समानताओं से बिना किसी रूचि के (या सक्षमता से) गहरे परिक्षण के I इस प्रकार का अधिकार-क्षेत्र संरक्षण एक प्रकार का जनजातीय संघठन है जो कि, व्यक्तिगत असुरक्षा एवं आकांक्षाओं से संचालित है I जो अतिउत्तम प्रणालियाँ हैं अपने अतीत के महान विचारकों को सम्मान देने की, वह उनकी पुस्तकों की वंदना करने के लिए नहीं है, बल्कि उनकी परम्परा को लगातार नूतनकालीन शोधों से आगे बढ़ाने की है जो वर्तमान काल के कुरुक्षेत्र की प्रतिक्रिया के रूप में हो I सभ्यताओं का मतभेद, अत्यंत ही जटिल होता जा रहा है, और क्रीड़ा क्षेत्र अनिवार्य रूप से पिछले ५० वर्षों में हिमाच्छादित नहीं हुए हैं I हमारी परम्परा अत्यंत ही उच्च स्तर के बौद्धिक उत्कृष्टता पर आधारित थी I किन्तु आज कई स्वरों की कर्णकटुता व्याप्त है, उन व्यक्तियों की, जो कदाचित ही किसी गंभीर विषय पर अत्यंत अध्ययन करते हैं — वास्तविक लेखों के विषय में तो भूल ही जाईये। मैंने ये भी सुना है कि, कई वरिष्ठ हिन्दू नेता छिछोरेपन से, निर्मल शोध एवं बौद्धिकता की आवश्यकताओं को अस्वीकार करते हैं I ये मुझे अचंभित करता है कि, प्रतिगामी स्वारें हिन्दू संस्थाओं में ऊँची हो सकती हैं I

हिन्दुओं को अवश्य ही गंभीर अनुसंधान कार्य करना चाहिए। इसमें सम्मानपूर्वक अपने प्रतिद्वंदीयों से वाद-विवाद द्वारा पूर्वपक्ष प्रणाली भी सम्मिलित है I हमें एक नवीन क्रीड़ा-सिद्धांतों के संलाप द्वारा, तथाकथित “शिक्षित समाज” को पुनः शिक्षित करना होगा । हमें आत्म-आलोचना करने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए ना की, “अच्छे अनुभव” करवाने वाले समूहों के संग “जो समान विचारधारा के हों” उन पर समय नष्ट करें I संसाधनों के निर्धारण एवं  नियुक्‍ति को गुणों के आधार पर होना चाहिए और ना की, किसी नेता के प्रति अपनी निष्ठा के आधार पर I जिसकी भी नियुक्ति एक प्रमुख “विचारक” के रूप में हुई है, उसको अपने विचारों में श्रेष्ठ होना चाहिए, जिसका अर्थ है, उसका कीर्तिमान होना और प्रकाशन पर उसका उच्च स्तर का प्रभाव होना I नूतन सरकार में इस घ्यानाकर्षी की अनुपस्थिति है, उस सभ्यता संलाप के मंच पर I कोई भी युक्‍तिपूर्ण सामंजस्य नहीं है सम्पूर्ण यूनानी साम्राज्य विभाग के के चक्रव्यूह में I सौभाग्यवश, भारतीय वामपंथी भी क्रमभंग हैं I उनके हिन्दू-भय ज्ञान उत्पादन एवं वितरण के एकाधिपत्य को, नूतन उद्योग-कला विकृत करती है I हिन्दू भावनात्मक क्रियाओं की संचार माध्यम में बढ़ती गतविधियों का चित्रण व्याप्त है, और साथ ही कई निर्वाचिका सभाओं का उत्पन्न होना जिसमें हिन्दुओं की सुनवाई दर्शायी जा रही है I इस शक्तिशाली भावना को कवच पहनाकर पुनः निर्दिष्ट करना होगा बौद्धिक पारितंत्र की ओर, जो की सार्वभौमिक रूप से प्रतिस्पर्धात्मक हो I

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