पारंपरिक ज्ञान प्रणाली – 2

भारतीय सभ्यता विशिष्ट

Translation Credit: – Vandana Mishra

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विश्वीय विज्ञान में भारतीय योगदान

सिविल अभियांत्रिकी:

इंडस-सरस्वती सभ्यता विश्व की सर्व प्रथम सभ्यता थी जिसमें योजनाबद्ध नगर निर्माण किया गया था, भूमिगत जलनिकासी, सिविल आरोग्यशास्र,  द्रवचालित अभियांत्रिकी, एवं वातानुकूलित वास्तुकी इत्यादि वद्यमान थे I भट्टी में पकाये हुए ईंट सर्वप्रथम भारत में ही लगभग ४००० बी.सी पूर्व बनाये गए थे I हड़प्पा के जटिल नगरों से दिल्ली के क़ुतुब मीनार तक और अन्य कई बृहत परियोजनाओं से, भारत की स्वदेशी प्रौद्योगिकी अत्यंत ही परिष्कृत थी अपने परिरूप में, समरेखण, जल आपूर्ति, यातायात प्रवाह, प्राकृतिक वातानुकूलन, जटिल पत्थर की चिनाई, और निर्माण अभियांत्रिकी, इत्यादि।

धात्विक प्रौद्योगिकी: 

वे मार्ग-निर्माता रहे कई उपकरणों के निर्माण कार्य में, अंत छोर पर एक छेद वाली सूई भी सम्मिलित है उसी निर्माण कार्य में,  कन्दक छेद करने वाली मशीन बनाने में, और वास्तविक आरी बनाने भी पथ प्रदर्शक रहे। इनमें से कई महत्वपूर्ण उपकरणों का उपयोग क्रमशः शेष विश्व में, कई शताब्दियों तक हुआ और रोमन साम्राज्य के कालावधि में भी उपयोग हुआ. भारत सर्वप्रथम देश था जिसने  रतुआ-मुक्त लोहे के निर्माण किया था I प्रथम सहस्राब्दी के मध्य बीसी में, भारत का वुट्ज इस्पात अत्यंत प्रचलित था पर्शियन न्यायालयों में, तलवार निर्माण हेतु I अंग्रज़, भारत में अपने दल भेजते थे धातु-उद्योग-संबंधी प्रणालियों के विश्लेषण करने के लिए जो अंग्रेज़ों द्वारा तत्पश्चात हथिया लिए गए थे I भारत के धातु कार्य को अवैध सिद्ध करने की मंशा किंचित अंश तक ब्रिटेन के औद्योगीकरण करने के लक्ष्यभारत की  से की गयी थी, किन्तु उनको ये भी भय था की बन्दूक बनाने की क्षमता राष्टवादियों में ना प्रवेश कर जाये I भारत की निर्यात इस्पात उद्योग को व्यवस्थित रूप से विध्वंस करके उसको ब्रिटेन में स्थानांतरित कर दिया गया I

वस्त्र उद्योग: 

भारत के वस्त्र निर्यात उत्कृष्टम स्तर के थे I रोम के लेखागारों में आधिकारिक उलाहना व्याप्त है, उन बृहत धन संपत्ति के अपवाहतंत्र का जिसमें  भारतीय वस्त्र को बृहत मात्रा में आयात करने का कारण बताया गया है I सर्वप्रथम जो उद्योग  ब्रिटेन में स्थानांतरित किया गया था वह वस्त्र उद्योग ही था, और वही प्रोद्योगिक क्रांति का सर्वप्रथम सफलता का प्रमुख कारण बना, ब्रिटेन में, और इसि ने भारत को विश्व स्तर पर निर्यात करने वाला वस्त्र उद्योगी देश की पदवी से हटा दिया। कई मशीनें जो ब्रिटेन ने बनायीं वे भारतीय रूपरेखा पर आधारित थीं जिनको कई समय के पश्चात् संशोधित किया गया I साथ ही, भारत के वस्त्र उद्योग के उत्पादकों को अवैध सिद्ध कर दिया गया, कई सन्दर्भों में उन्हें प्रताड़ित भी किया गया, उनसे अत्यधिक-कर लूटा गया, उनका कड़ा नियंत्रण किया गया इत्यादि, और ‘सभ्य’ करने के नाम पर उनका अप्रत्यक्ष  उन्मूलन कर दिया गया I

नौपरिवहन और पोत-निर्माण:

भारत सर्वप्रतम ऐसा देश है इतिहास में, जिसने महासागरों पर आधारित व्यापार प्रणाली का आविष्कार किया था Iनूतनकलीन शताब्दियों के सन्दर्भ में, विद्द्वानों को ये ज्ञात है, किन्तु सामान्य जनता को ये ज्ञात नहीं है कि, वास्को डा गामा की जलयान गुजरात के नवकाचालको द्वारा संचालित की गयी थी, और अधिकांश यूरोपी नौपरिवहन के “अन्वेषण’ वास्तव में, चुराया हुआ ज्ञान था जो पर्व काल में पहले से ही व्याप्त था भारीतय महासागर के क्षेत्रों में, और जो अत्यंत ही उन्नतिशील प्रणाली थी कई शताब्दियों तक, यूरोपियों के ‘शोध’ करने के भी पूर्व I विश्व की सर्वोत्तम और विशालकाय जलयानों में से सर्वाधिक परिशुद्ध जलयानों का निर्माण भारत एवं चीन में हुआ था I दिक्सूचक और अन्य नौपरिवहन उपकरण पहले से ही उस समय प्रयोग में थे I (‘नाव’ संस्कृत का शब्द है, और ‘नैविगेशन’ शब्द के मूल में है, और ‘नेवी’ शब्द में भी, यद्यपि  शब्द-व्युपत्तिशास्र, विश्वसनीय प्रमाण नहीं है उसके स्रोत का I)

जल उपज प्रणालियाँ: 

वैज्ञानिकों के अनुमान अनुसार १.३ मिलियन मानव द्वारा निर्मित सरोवर एवं पोखरे थे पूरे भारत में, किंचित तो २५० स्क्वायर मील तक थे! इन सबको वर्तमान काल में उपग्रह यंत्र (सैटेलाइट) की चित्रकारी से पता लगाया जा रहा है I इसने अधिकांश वर्षा के जल को संचय करने में सहयता किया खेती के लिए और पीने के लिए, इत्यादि आगामी वर्ष की वर्षा तक I ग्रामिण संस्थाएं इन  संसाधनों की देख रेख करती थीं, किन्तु इस अकेन्द्रीक प्रबंधन को विध्वंस कर दिया गया उपनिवेशकों के काल में, जब कर संचय किया जाने लगा, नक़द धन स्वामित्वहरण और वैध रूप से प्रवर्तन मुख्य कार्य हो गए नूतन सरकार के, जो अंग्रेज़ों द्वारा नियुक्त की गयी थी I नूतन काल में, सहस्त्रों ऐसे ‘पोखरों’ को पुन: स्थापित किया गया, और इसके परिणामस्वरूप बहुतायत जल समपत्ति का पुनर्निर्गमन, कई स्थानों पर सम्पूर्ण वर्ष होने लगा हैI (ये एक विभिन्न प्रकार का उपमार्ग है, बृहत आधुनिक बाँध बनाने की तुलना में जो विकास के नाम पर बनाये जाते हैं, और जिसने मिलीयन जीवों का विनाश कर दिया है I

वन प्रबंधन: 

कई रोचक एवं शोध नूतन काल में उजागर हुए हैं, वनों और वृक्षों के प्रत्येक ग्रामीण प्रबंधन के विषय में, और एक सचेत प्रणाली लागू की गयी औषधियों के संरक्षण एवं विकास, ईंधन की लकड़ी, और भवन-निर्माण के अनुरूप इत्यादि के प्राकृतिक नवीनीकरण की गति के लिए. अब एक आंकड़ासंचय निर्मित किया जा रहा है इन ‘पवन कुंज’ का सम्पूर्ण भारत में I पुनः, ये कथा है एक आर्थिक संपत्ति के पतन की, एक अनुपयोग और कुप्रयोग द्वारा क्यूंकि देशीय सरकार का विनाश हो चुका था और पारम्परिक प्रणाली का सामान्य रूप से उन्मूलन हो गया था I अंग्रेज़ों द्वारा  विशाल प्रचालेखन किया गया भारतीय प्रकाष्‍ठ, के निर्यात से, दोनों विश्व युद्धों को पूंजीबद्ध करने के लिए, और अन्य शिष्टाचार कार्यक्रम के लिए उनके साम्राज्य में, किन्तु ये कदापि अंकित या प्रकशित नहीं किया जाता है जब विद्द्वान प्रयत्न करते हैं भारत के वर्तमान पर्यावरणीय आपदा की गाथा गाते हुए I देशीय जनसंख्या अत्यंत ही परिष्कृत रहीं पर्वायवरणीय प्रबंधन में जब तक उनको असशक्त नहीं किया गया।

कृषिकर्म प्रविधि:

भारत के कृषिक उत्पादन इतने अधिक थे ऐतिहासिक सन्दर्भ में कि, वे अत्यंत बृहत जनसँख्या के लिए भी पर्याप्त थे विश्व के शेष भागों की तुलना में I अधिरोष को संजोह कर अकाल के समय प्रयोग करने के लिए रखा जाता था I किन्तु अंग्रेज़ों ने उस प्रोद्योग को दुग्धदायिनी गाय की भाँती में परिणित कर दिया, बृहत मात्रा में उपज को निर्यात करना आरम्भ कर दिया, यहाँ तक की अपर्याप्तता के समय भी, जिससे की अत्यधिक धन राशि का  स्वामित्वहरण कर सकें I इसके परिणामस्वरूप कई असंख्य मिलियन लोग मृत्यु को प्राप्त हुए भुखमरी से, जबकि समकालीन भारत के अन्न उत्पदनों को मनमाने मूल्यों में निर्यात करके धनराशि संचय की जा रही थी I इसके अतिरिक्त, पारम्परिक बिना किसी रासायनिक पदार्थ के कीटनाशक नूतनकलीन ही भारत में निर्मित किये गए हैं अत्यंत ही उज्जवल परिणामों के साथ, और यूनियन कार्बाइड के उत्पाद को किंचित  विपणियों में से स्थानांतरित किया है I

पारम्परिक औषधियाँ: 

ये अब बहु-प्रचलित एवं सम्मानजनक क्षेत्र हो गया है. कई पश्चिमी प्रयोगशालाओं एवं वैज्ञानिको को धन्यवाद है, जिन्होंने भारतीय औषधि को पुनः वैध सिद्ध करने में सहायता की है I कई बहु-राष्ट्रिय अब पारम्परिक औषधियों को कलंक भावना से नहीं देखते हैं और बल्कि वे अब प्रयत्न कर रहे हैं स्वयं का एकस्व अधिकार, भारतीय औषधि प्रणालियों पर बिना वास्तविक स्रोतों का आभार प्रकट किये I

गणित, तार्किक एवं भाषा-विज्ञान: 

इसके अतिरिक्त अन्य विज्ञानं, भारतियों ने अग्रवर्ती गणित भी विकसित किया, जिसमें शून्य का सिद्धांत था, १०-पर आधारित डेसिमल प्रणाली का अन्वेषण किया जिसको आज सार्वभौमिक प्रयोग किया जाता है, और अन्य कई महत्वपूर्ण त्रिकोणमिति एवं बीजगणित सिद्धांतों का भी अन्वेषण किया I उन्होंने कई खगोलीय अन्वेषण भी किये. विभिन्न तर्कशास्त्र एवं मनोविज्ञान के शिक्षालय प्रचुर मात्रा में निर्मित किये I भारत के ऋषि पाणिनि, भाषाविज्ञान की आधारशिला हैं इस पूरे विश्व के, और उनके संस्कृत व्याकरण वर्तमान काल में भी विश्व की किसी भी भाषा की तुलना में, अत्यंत सम्पूर्ण एवं परिष्कृत स्तर के हैं I अन्य देशीय भारतीय प्रोद्योग थे. पूरे विश्व में, भारत के उत्पाद अत्यधिक मूलयवान और उत्कृष्ट स्तर के थे I हमको अवश्य इन टी.के.एस के ऐतिहासिक महत्व को आंकना चाहिए उनके आर्थिक मूल्यों के आधार पर, उनके समय के अनुसार जब उनका महत्त्व वर्तमान काल के उत्कृष्ट प्रोद्योग से तुलना किया जाए I भारत के अपने अंग्रेजी बोलने वाले उत्कृष्ट शिक्षित लोगों को उनकी इस मकौले ग्रस्त हीं भावना को बाहर निकलना होगा I इसके अतिरिक्त, इसके अतिरिक्त, टीकेएस का विकास, परिमार्जन एवं प्रसारण प्रदान करता है, अन्तर्निहित लाभ, जो सक्षम हैं समाधान या ह्रासमान करने के किंचित  अनौचित्य, से विश्व भर में इन आधुनिक समाजों में I

जनसाधारण विज्ञानं:

उपरोक्त उदाहारणों के अतिरिक्त, भारत का योगदान तथाकथित पश्चिमियों के ‘पश्चिमी’ विज्ञानं की तो नीव में है, और एक अन्य वर्ग भी व्याप्त है पारम्परिक ज्ञान प्रणाली (टीकेएस) का जिसको निरक्षर जनसाधारण विज्ञानं कहा जाता है I पश्चिमी विज्ञानं सम्पूर्ण रूप से अपराधित करता है और उपेक्षिा करता है किसी भी ऐसे विषय को जो या तो उचित ना हो या विकसित ना हो, एक जादू और ढोंग की भाँती I किन्तु, भारत जैसे देशों में, जहाँ उनकी सांस्कृतिक निंरतरता बनी हुई है पूर्वकाल से, पुरातन पारम्परा जनसाधारण विज्ञानं द्वारा अत्यंत सरलता से जीवित है I

उत्तर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में, जहाँ मूलनिवासी जनसँख्या को समाप्त कर दिया गया, वहां इस प्रकार की जनसाधारण पारम्परिक निंरतरता को  बाधित कर दिया गया था I पश्चिमी देशों में जहाँ बृहत उपनिवेशी नगर हैं पुरातन एवं नूतन विश्व में, इन प्रकार के ज्ञान प्रणालियों को निम्न वर्गीय माना जाता था I ये एक पूर्वधारणा है जो  नष्ट करती है जनसाधारण के विज्ञानं के महत्त्व को, और उसको उपहास करती है उसको मात्र एक ढोंग बता कर I पश्चिमी विज्ञानं के विपरीत जो जनसाधारण विज्ञानं की प्रणाली थी वह विस्तृत थी ज्ञान प्रणाली के सीमांकन तक कई विभिन्न विज्ञानं और रिलीजनों के विरुद्ध, तर्कसंगत और मायिक के विरुद्ध के वर्गों में, और इसी प्रकार के कई वर्गों में I किन्तु हमको ये बल देना चाहिए कि, पश्चिमी द्वारा लागू किया गया  अभिभावी वर्ग अवास्तविक और अप्राकृतिक हैं I

पश्चिमी विज्ञानं कदाचित ही स्वीकार करते हैं कि, निरक्षर जनसाधारण विज्ञानं भी संचय कर सकता है उस ज्ञान को कई शताब्दियों के अनुभवों द्वारा और प्रत्यक्ष निरीक्षणों द्वारा, और मौखिक माध्यम से प्रसारित किया गया है I विकास योजनाएं जो मात्र नूतन आधुनिकता पर आधारित बन रही हैं वे टी.के.एस को लुप्त होने की सीमा तक पहुँचा दे रही हैं. इस मानवजाति के पारम्परिक ज्ञान की आवश्यकताओं को संचय करना होगा और अपने जीवन के लिए इनका प्रयोग करना होगा I

पश्चिमी ‘विशेषज्ञ’ निरक्षर सभ्यता की ओर ये मान कर जाते हैं कि, वे “ज्ञान से विमुख अंधाकर की भाँती हैं” जिनको आधुनिक विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी द्वारा योजनाबद्ध करने की आवश्यकता है I रामकृष्णन, बहुप्रसिद्ध परिस्थितिविज्ञानशास्री, ने नम्रतापूर्वक ये स्वीकार किया कि, परिस्थिति प्रबंधन जिसका वर्तमान में अनुसरण किया जाता है उन पूर्वी भारतीय जन जातियों द्वारा वह, अत्यंत ही उत्कृष्ट स्तर की है उन सभी प्रकार के ज्ञान की तुलना में जिसकी शिक्षा आधुनिक ज्ञानी देते हैं I एक उत्तम उदाहरण इस सन्दर्भ में है, एल्डर(अलनस नेपैलेन्सिस) का, जिसकी जोताई की जाती है झुम (स्थानांतर रुपी कृषि) खेतों में खोनोमा किसानों द्वारा नागाभूमि में शतब्दियों से I किसानों के लिए ये कई विभिन्न प्रकार से उपयोगी है, क्यूंकि ये नाइट्रोजन-प्रबंधक वृक्ष है और यह सहायता करता है मिटटी की उर्वरतापन को संजोह कर रखने के लिए. उसकी पत्तियों को चारा एवं खाद की भाँती प्रयोग किया जाता है, और उसको  प्रकाष्‍ठ के रूप में भी उपयोग किया जाता है I इसी प्रकार के कई उद्धरण भी दिए जा सकते हैं I दुर्भाग्यवश, कई वनस्पतियाँ,पेड़ और पौधे जो पारम्परिक जातियों द्वारा किसी विशेष लाभ के लिए बोये जाते थे, वे अब आधुनिकता के नाम पर लुप्त हो गए हैं I

आधुनिक औषधियों के बृहत बहुसंखयक एकस्व अधिकार, पश्चिमयों औषधीय संथाओं द्वारा करवा लिए गए हैं जो कि उष्णकटिबंध प्रदेश की वनस्पतियाँ हैं I जो सामान्य प्रणाली है किसी व्यक्ति के चयन की, सूक्ष्म परीक्षण करने के लिए पश्चिमियों के व्यव्साय संघ के लिए  ये कि, नई प्रतिभाओं को ढूंढना उष्णदेशीय समाजों में, स्थापित ‘जनसाधारण औषधीय’ को ढूँढना, और इनको तत्पश्चात ‘पश्चिमी वैज्ञानिक वैधता’ देना I कई सन्दर्भों में तो, एकस्व अधिकार कई बहुराष्ट्रीय द्वारा होते हैं जो कि प्रयोगशाला में अधिकांश सक्रीय पदार्थों को पृथक करते हैं, और परीक्षण एवं एकस्व अधिपत्य के एक कठोर आदिलेख का नत्थीकरण करते हैं I 

यादपि ये महत्त्वपूर्ण, बहुमूल्य कार्य, और प्रशंसा योग्य कार्य है, किन्तु कदाचित ये प्रारम्भ से ही स्वतंत्र अन्वेषण हैं I किसी भी समाज जिसने वास्तव में इसका अन्वेषण किया शताब्दियों तक कई अनुभवाश्रित परीक्षणों, प्रयत्नों एवं त्रुटियों द्वारा, उस कोई भी मान्यता मिली है, राजस्व अधिकार तो दूर का विषय है I भारत का नूतनकलीन मतभेद अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय में, अपने पारम्परिक बौद्धिक स्मपति पर पश्चिमियों के एकस्व अधिपत्य के लिए, कृषि एवं औषधियों में, कई अत्यंत विज्ञापन इस कार्यक्षेत्र में ले आया है I

कॉलिन स्कॉट्स लिखते हैं: “बहु-विषयक रुचियों के उभाड़ के संग ‘पारम्परिक परिस्थितिविज्ञाशास्त्र ज्ञान’ में, ढाँचे स्पष्ट रूप से मूलनिवासी लोगों द्वारा ही निर्मित किये जाते हैं जैसे, वन-विद्या, मत्स्य पालन, और भौतिक भूगोल को अत्यधिक अवधान प्राप्त हो रहा है पश्चिमी विज्ञानं विशेषज्ञय द्वारा, इन्होनें किंचित सन्दर्भों में तो, अत्यंत उन्नतिशील दीर्घ कालीन वार्तालाप स्थापित कर लिया है मूलनिवासी विशेषज्ञों से I विचारधारा ये है कि, स्थानीय निवासी पश्चिचिमी समकक्ष व्यक्ति की भाँती अत्यधिक निपूर्ण होते हैं और वे महत्वपूर्ण आभार पाने के लिए अंतिम नृविज्ञान की सीमा से पार के होते हैं I”

किन्तु कई सन्दर्भों में, पश्चिमी विद्द्वान भारतीय विशेषज्ञों को मात्र ‘मूलनिवासी भेदिये’ के स्तर तक उनके भाग्य को निर्धारित करके उन्हें काँच की छत के निम्न स्तर पर धकेल देते हैं: पंडितों को पश्चिमयों के संस्कृतज्ञों के मूलनिवासी भेदिये सिद्ध करके; राजस्थान की एक निर्धन स्त्री एक मूलनिवासी भेदिया के रूप में पश्चिमी स्त्रीवादियों से अपने पारम्पराओं से छुटकारा पाने का प्रयत्न करती है; एक औषधीय किसान मूल निवासी भेदिये के रूप में पश्चिमी औषधीय संस्था को एकस्व अधिकार देने के लिए औषधियों को अशुद्ध करता है; इत्यादि. उनकी वर्तमान कालीन निर्धनता को ध्यान में रखते हुए, ये ‘मूल निवासी भेदिए’ वही परोसते हैं जो इन पश्चिमी विद्द्वान विशेषज्ञों को अच्छा लगता है जो उनेक ढाँचे में बैठता है, क्यूंकि इसके बदले में उन्हें कई उपहार, पुरस्कार, क्षतिपूर्ति, मान्यता और विदेशी यात्रा एवं वीसा भी कई सन्दर्भों में दिया जाता है I

कदाचित ही कभी पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय ज्ञानियों को समरूपी वैज्ञानिक माना हो या समरूपी साथी माना हो और उन का आभार व्यक्त किया हो, जो सहायक-लेखक या सहयक-दल के सदस्य हों I ये स्पर्धापूर्ण आसक्ति एक वास्तविक ‘अन्वेषन’ करने की और अपने नाम को प्रकाशन द्वारा प्रचार करने की, तीव्र इच्छा ने उत्‍तेजित किया है एक ओर अशुद्धिकरण का, और दूसरी ओर स्रोतों को कलंकित करने का जिससे कि, साहित्यिक चोरी को छिपा सकें। हमने इसे ‘शैक्षिक आगजनी’ का नाम दिया है I

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