कैसे ‘गांधार’ बना ‘कांधार’ – 1

प्राचीन इतिहास विशिष्ट

Translation Credit: Vandana Mishra.

अफ़ग़ानिस्तान के महाकाव्य इतिहास का आरम्भ होता है, जब वह पुरातन भारत का, एक महत्वपूर्ण क्षेत्र हुआ करता था, जिसका नाम ‘गांधार’ था I उसके कई नगरों में से जो सर्वाधिक बहुप्रचलित नगर हुआ करता था, वह वर्तमान युग का ‘कांधार’ था, जो तालिबान द्वारा कलंकित है I उस नगर का भूतपूर्वी नाम ‘कुआँधार’, था जिसको कि, गांधार क्षेत्र के नाम से व्युत्पन्न किया गया था I वर्तमान में जो अल-काइदा है, उनका प्रथम निवास स्थान था, क्यूंकि वह सदा से ही एक युक्‍तिपूर्ण क्षेत्र रहा है, अपने मुख्य पर्शिया मार्ग पर विद्द्मान होने एक कारण, मध्य एशिया एवं भारत से जुड़ता है I अतएव उसके अभिजिति का दीर्घ इतहास है I कांधार को अलेक्सेंडर ने ३२९ बी.सी.ई., में हथिया लिया था, उसके पश्चात् ग्रीकों द्वारा चन्द्रगुप्त को प्राप्त हुआ ३०५ बी.सी.ई., में, और अशोक सम्राट की एक चट्टान पर गरिमापूर्ण शिलालेख व्याप्त थी I उसके उपरांत वह अरब शासन के अधीन हुआ ७ वीं शतब्दी सी.ई., में और उसके पश्चात् १० वीं शताब्दी में ग़ज़नवी के अधीन हुआ I कांधार का विध्ध्वंस जेंगीस खान द्वारा हुआ और पुनः तुर्कि के तिमूर द्वारा सर्वनाश हुआ, जिसके पश्चात वह मुग़लों के अधीन हुआ I मुग़ल सम्राट बाबर ने, ४०  महाकाय सोपान पर्वत पर बनवाये, जो दृण चूना पत्थर से काटे गए थे, और उन पर अपनी विजय-गाथा के सूक्ष्म वृतांतों को शिलालेख करवाया I १७४७, में वह संयुक्त अफ़ग़ानिस्तान का, प्रथम राजधानी बना I

कई भूतपूर्व उद्धरण के अतिरिक्त जो हम को वेदों, रामायण एवं महाभारत में मिलते हैं, गांधार एक बिन्दुपथ था भारत-पर्शिया के पारस्परिक संबंधों का, विश्व व्यापार एवं संस्कृति का केंद्र था I वह कई शताब्दियों तक, एक प्रमुख बौद्ध बुद्धिजीवियों की नाभि रहा. भीमकाय बौद्ध की मूर्ती नूतनकाल में तालिबानों के द्वारा नाश कर दी गयी, जो बामियान क्षेत्र में थीं, जो पुरातन युग का, एक महत्वपूर्ण बुद्ध नगर हुआ करता था I कई सहस्त्रों मूर्तियां एवं स्तूप उस भूदृश्य, में किसी समय, बहुप्रचलित हुआ करते थे I

प्राचीन गांधार

सर्वप्रथम गंधर्वों का वेदों में ब्रह्माण्डीय प्राणियों के रूप विवरण दिया गया है I तत्पश्चात साहित्य उन्हें जाती के रूप में उनका विवरण देते हैं, और उसके उपरांत नाट्यशास्त्र उनकी संगीत प्रणाली को गन्धर्व नाम से सम्बोधित करते हैं I

गुप्त समझाते हैं :

१: “गन्धर्व, जैसा की संहिताओं एवं उसके तत्पश्च्यात साहित्य में कहा गया है, अपने नाम को व्युत्पन्न किया है भौगोलिक लोगों से, गांधारों से…..संभवतः वे अफ़ग़ानिस्तान के निवासी थे (जिसमें वर्तमान काल में भी एक नगर कांधार के नाम से है) …… कदाचित इसी काल में गनधारों ने संगीत कला को उच्चतम स्तर पर ले गए I उपमहाद्वीप के इस क्षेत्र में, इस काल में, यह पूर्वी एवं भूमध्यसागरीय (मेडिटेरीरें) संगीत परम्परा के महान संगम का, बिन्दुपथ बना। यहाँ तक कि, कला का नाम भी इसी क्षेत्र के नाम से प्रसिद्द हुआ और भारत के केंद्रीय स्थल पर भी इसको माना गया I ये नाम, गन्धर्व, निरंतर प्रयोग किया जाता रहा कई शताब्दियों के उपरांत भी I वायु पुराण में, भारतवर्ष के ९ अंशों में से एक अंश को गन्धर्व कहते हैं I “

महाभारत के काल में, गांधार क्षेत्र संस्कृति एवं राजनैतिक, दोनों ही स्तरों से भारत का अंश था I राजा शकुनि, जो कि, गांधारी के भ्रातः थे, उन्होंने पांडवों के विरुद्ध बहुप्रसिद्ध महान ग्रन्थ महाभारत में युद्ध किया था. युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ था, भारत के बिन्दुपथ में. गांधारी, राजा धृतराष्ट्र से ब्याही गयी थीं I गांधार और हस्तिनापुर (दिल्ली) के मध्य कई संपर्क हुए थे जो अत्यंत घनिष्ट और स्थापित थे I

मेहगढ़, जो कि, इस क्षेत्र में स्थित है और सिंधु घाटी सभ्यता का अंश है, अभी तक का सर्वोत्तम पुरातन नगर है जो संदंशाकार द्वारा पुरातत्त्ववेत्ता (८०००० बीसीई) ने इस विश्व में से निकला है I  

गांधार, एक व्यापार चौराहा और सांस्कृतिक स्थान था, भारत, मध्य एशिया एवं मध्य पूर्वी देशों के बीच I बौद्ध लेख उद्धरण देते हैं कि, गांधार (जिनमें पेशावर, स्वात एवं काबुल की घाटियाँ भी समिल्लित हैं) उत्तर भारत के १६ प्रमुख राज्यों में से एक था उस समय I वह  प्रांत, पर्शिया के राजा दारियस १, का ५ वीं शतब्दी बीसीई में था I ४ वीं शताब्दी बी.सी.ई में, जब अलेक्सेंडर ने उसको जीत लिया, तब वह सम्राट नन्द की बृहत सेना से पंजाब क्षेत्र में भिड़ा, और उसके सैन्य-विद्रोह के कारण उसको भारत त्याग कर वापस भागना पड़ा I

तत्पश्चात, गांधार पर भारत के मौर्य राजवंश ने राज्य किया, और उसके उपरान्त भारतीय सम्राट अशोक के शासन काल में (३ शताब्दी बीसीई.,), बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ और वह विश्व का प्रथम धर्म हुआ जो यूरेशिया क्षेत्र के आगे तक प्रसारित हुआ, और जिसने प्रारंभिक ईसाईयों और पूर्वी एशियाई सभयताओं पर भी अपना प्रभाव डाला I पद्मसंभव, भारतीय-तिब्बतीत्य बौद्ध के आध्यात्मिक एवं बुद्धिजीवी संस्थापक, गांधार से थे I ग्रीक के इतिहासकार प्लिनी ने लिखा है कि, मौर्य वंश के पास बृहत सेना थी; और उसके पश्चात् भी, कई और भारतीय राजत्व के समान, उन्होंने कदापि कोई भी प्रयत्न किसी विदेशीय क्षेत्र पर अभिजिति का नहीं किया I

पुरातन काल में, गांधार और सिंध भारत के ही अंश थे कई शताब्दियों तक, जैसा कि, इतिहासकार ऐंड्रे विंक व्याख्या करते हैं:

2 “प्राचीन काल से दोनों मकरान एवं सिंध सर्वदा ही भारत का अंश रहे हैं…. वह निःसंदेह वर्तमान मकरान एवं सिंध के प्रांतों के भी परे विस्तृत था; सम्पूर्ण बलूचिस्तान सम्मिलित था, पंजाब के अंश और उत्तर-पश्चिमी अग्रिम प्रान्त भी सम्मिलित थे।”

३. “अरब के भूगोलज्ञ, वस्तुतः, सामान्य रूप “उसी अल-हिन्द के राजा……” की बात करते हैं I

४. “…. सिंद प्रधान रू प से भारत का अंश था अपेक्षकृत पर्शिया के, और उस काल अवधि में वह राजनैतिक रूप से भी भारत से जुड़ा था, या उसी में सम्मिलित था, भारतीय राजतंत्र, पर्शिया के प्राबल्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था I चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा मौर्य साम्राज्य, को विस्तारित किया गया था सिंधु घाटी के पार, जिसने महान बौद्ध धर्म की नगर-आधारित सभ्यता की नीव स्थापित की I असंख्य बौद्ध मठों को इस क्षेत्र में पाया गया, तक्षिला विश्वविद्यालय एक मुख्य बौद्ध सम्बन्धी शिक्षा का केंद्र बना, विशेषतः सम्राट अशोक के काल में I कुषाण साम्राज्य के अंतर्गत, प्रथम शताब्दी के अंत काल में (ए.डी)……. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एवं नगरीकरण सिंधु घाटी में, अद्वितीय स्तर पर था, और पुरुषापुर (पेशावर) उसकी सुदूर साम्राज्य की राजधानी बना।  गांधार, बौद्ध लोगों का दुतीय निवास स्थान बना, जहाँ पर कई बहुप्रसिद्ध गान्धार-बौद्ध कलाएं उत्पन्न हुईं I पुरुषापुर में, सम्राट कनिष्क ने कथित ४ बौद्ध धर्म-गोष्ठी संचालित किया था, और कनिष्क विहार का निर्माण किया जो बौद्धों का तीर्थ स्थान बना कई शतब्दियों तक आनेवाली पीढ़ियों के लिए, और साथ ही मध्य एशिया एवं चीन में धर्मों के प्रकीर्णन का केंद्र भी बना समुच्चय हिन्दू धर्म के संग.  १० वीं शतब्दी तक, सिंद में, अत्यंत ही उचित रूप से, बौद्ध धर्म उत्तरजीवी रहा I”  

५. “हुयन त्संग……विशेष करके सहस्त्रों बौद्ध मठवासियों से प्रभावित हुए थे जो बामियान की गुफाओं में निवास करते थे, और चमत्कारपूर्ण बौद्ध चट्टान से, जिसकी लम्बाई ५३. मीटर थी और वह सोने से सुसज्जित थी I उसी धर्म संप्रदाय क्षेत्र से देवी उपासना पद्धति के भी प्रमाण पाए गए थे।”

६. शिव-भक्ति (शैवीसम) भी इस पुरातन क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण अंश रहा है, विस्तृत प्रभावों के साथ विंक लिखते हैं: “कुवांधार [आधुनिक कांधार] …… एक धार्मिक केंद्र था राजत्व का, जहाँ पर शिव-भक्ति के ज़ुन ईश्वर की उपासना पद्धति, पर्वत के शिखर पर क्रियान्वित की जाती थी. …… “

७. “…. ईश्वर ज़ुन या झुन ….. पुण्य स्थल ज़मिंदावर नमक स्थान में व्याप्त थी इस्लाम के आगमन पूर्व, एक पुण्य पर्वत पर, और ९ वीं शताब्दी तक भी व्याप्त थी।…….[यह क्षेत्र] ईश्वर ज़ुन के तीर्थ स्थान के लिए बहुप्रसिद्ध था I चीन में, सु-ना के मंदिर के नाम से, ईश्वर के मंदिर प्रसिद्द हुए….जून की [उ]पासना संभवतः पुराने पुण्य स्थल सूर्य-देव आदित्य जो मुल्तान में है उससे सम्बंधित है. निःसंदेह, ज़ुन को मानने वाले सम्प्रदयी प्राथमिक रूप से हिन्दू थे, बौद्ध या पारसी नहीं थे I”

८. “गांधार के बहुरूपी पीलिंग देव शिव से और स्त्रीलिंग दुर्गा देवी से अब  [स]म्बन्ध  सुस्थापित हो गया है. जो सर्वश्रेष्ठ चरित्र ज़ुन या सन ईश्वर का है वह था कि, वे पर्वत के ईश्वर के सदृश्य हैं I और पर्वत से सम्बन्ध, प्रधानता दर्शाती है, शिव भगवान् से सम्मिश्र धार्मिक समाकृतियाँ से, पर्वत के ईश, ब्रह्माण्डीय धुरी और समय के शासक …… गांधार एवं उसके निकटवर्ती कई देश, वास्तव में, प्रस्तुत करते हैं एक सर्वश्रेष्ठ पृष्टभूमि उस उत्कृष्ट शिव-उपासना पद्धिति की।”

९. प्रथम शतब्दी सी.ई., सम्राट कनिष्क १ और उनके कुषाण उत्तराधिकारियों का आभार प्रकट किया जाता था उन ४ महान यूरेशियन सत्ताओं में से एक, अपने काल में (अन्य थे चीन रोम एवं पार्थिया) I कुषाणों ने इसके पार भी बौद्ध धर्म को मध्य एशिया एवं चीन में प्रसारित किया, और महायान बौद्ध धर्म, गांधार एवं मथुरा के कला विद्यालय का निर्माण किया। कुषाण अपने व्यापर से धनाढ्य हुए, विशेषतः रोम से व्यापार करके I उनकी मुद्राएं एवं कला साक्षी हैं उनकी विभिन्न धर्मों एवं कलाओं के मध्य सहनशीलता एवं समन्वयता के लिए जो उस क्षेत्र में प्रचलित थीं I गांधार विद्यालयों ने कई  अनुकल्पों को रोम उत्कृष्ट कला से सम्मिलित किया किन्तु उनकी मूल आदर्श शास्त्र भारतीय ही रहे I

प्राचीन तक्षिला एवं पेशावर

गांधार की राजधानी, तक्षिला में एक प्रसिद्द नगरी थी. रामायण के अनुसार, वह नगर भारत के पुत्र, तक्ष, द्वारा निर्मित की गयी थी और उन्ही के नाम से उस नगरी का भी नाम पड़ा था, जो उसके सर्वप्रथम शासक थे I ग्रीक साहित्यकारों ने उस नाम का लघु रूपांतरण किया तक्षिला नाम से. ऐसा कहा जाता है कि, महाभारत की सर्वप्रथम  व्याख्यान इसी स्थान में हुआ था I बौद्ध साहित्य, विशेषतः जतक कथाएं, इस क्षेत्र को गांधार राज्य की राजधानी बताया गया है और शिक्षण का महान केंद्र। इसके अवशेष वर्तमान में वाहन यात्रा से से जाकर देखा जा सकता है जो रावलपिंडी (पकिस्तान) से १ घंटे की दूरी पर स्थानीय है I

तक्षिला की स्थापना युक्तिपूर्ण, तीन-मार्गों के संगम पर थी, उस समय के महत्वपूर्ण व्यापार पूर्वी भारत (मेगस्थनीज़ द्वारा उसको ” राजसी महामार्ग” बताया गया है), से पश्चिमी एशिया, कश्मीर एवं मध्य एशिया से संयुक्त थे. ग्रीक इतिहासकारों ने एलेग्जेंडर के संलग्न, तक्षिला की व्याख्या “धनवान, समृद्ध एवं व्यवस्थित रूप से शासित” क्षेत्र बताया था I एलेग्जेंडर के पश्चात् शीघ्र ही, तक्षिला को मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया एक प्रान्तीय राजधानी के रूप में, जो ३ पीढ़ियों तक स्थापित रही I

त्याना के संत अपोलोनियस ने तक्षिला का भ्रमण किया १ शताब्दी सी.ई., में और उनके  जीवनी लेखक ने तक्षिला की व्याख्या करते हुए उसको एक आरक्षित नगर सम्बोधित किया था जिसका सममितीय वास्तुशिल्प, तुलयात्मक है प्राचीन अस्सीरियन साम्राज्य के सर्वोत्तम जनाकुल नगर से I बुद्ध के १००० वर्षों के पश्चात् भी, चीनी बौद्ध धर्म तीर्थयात्री फा-हसीन ने, उसको बौद्ध धर्म का उन्नतिशील केंद्र बताया था I किन्तु जब तक हसुआन-त्सांग चीन से ७ वीं शताब्दी सी.ई., से तक्षिला पहुंचे तब तक हुन द्वारा तक्षिला का विनाश हो चूका था I तक्षिला, शिक्षा का एक बहुप्रसिद्ध केंद्र था I

किसी अन्य काल में, गांधार की राजधानी पुरुषापुर थी( पुरुषों का निवासस्थान, सर्वश्रेष्ठ जीव जिसको हिन्दू नाम दिया गया है), जिसके नाम को अकबर ने तत्पश्चात पेशावर कर दया था I पेशावर के निकट, बौद्ध धर्म के स्तूपों के विस्तृत अवशेष  उस उपमहाद्वीप (२ शतब्दी सी.ई.), के अनुप्रमाणित चिरस्थायी बौद्ध धर्म की व्याप्ती के मिलेंगे I पुरुषापुर के विषय में पूर्वी संस्कृत साहित्यों में, उत्कृष्ट इतिहासकारों जैसे स्ट्राबो एवं अररियन के लेखों में, एवं  भूगोलज्ञ पटोलेमी के लेखों में भी प्रमाण मलेंगे। कनिष्क ने पुरुषापुर, को कुषाण साम्राज्य की राजधानी बनाया था (१ शताब्दी सी.ई.) I वह मुसलमानों द्वारा ९८८ में जीत लिया गया था I

जातिसंहार भाग १: सिंद की अभिजिति

ये सम्पूर्ण तेजस्वी अतीत, एवं एशिया की सभ्यता, सदा के लिए परिवर्तित हो गयी सिंद के लहू-लुहान लूट पाट के उपरांत, अरब आक्रमणकारियों द्वारा ७ वीं शतब्दी के आक्रमण पश्चात्:

१०) “६५३-४,….६००० अरबियों ने ज़ुन के तीर्थस्थान को छेदा। अविशेषक ने मूर्तियों के हाँथों को तोड़ा और रत्नों से जड़ी हुई उन मूर्तियों की आँखों से नोच नोच कर निकल लिया….… अरबियों के प्रायः आरोह द्वारा लूट-पाट करके, अपने दास अभियान दल को ग़ज़ा, काबुल एवं बामियान तक विस्तृत किया….. अरबियों के आक्रमण निरतर होते रहे और मांग करते थे श्रद्धांजलि, लूटपाट एवं दासों की.….. दास एवं क्रूर व्यक्ति, मुख्य आकर्षण रहे आक्रमणों के, और इन सभी को खिलाफत के न्यायालय में अविचल प्रवाह में भेज दिया जाता था I”

ऐंड्रे विंक व्याख्या करते हैं कि, भारत को जीतने की ये अभिलाषा जब से ईश्वरदूत थे तब से व्याप्त थी, और जिसके साक्षी इस अलौकिक प्रसंगों में है:

११) “…….हदिथों के संग्रह से ईश्वरदूत मोहम्मद स्वयं ही आकलन करते हैं उनकी भारत को जीतने की अभिलाषा के विषय में I उस पावन-युद्ध के भागीदार जो अल-हिन्द [हिन्दुओं] के विरुद्ध पावन-युद्ध करेंगे, उनको नर्क-अग्नि से मुक्ति देने की सौगंध व्याप्त है…..

मरणोत्‍तरविद्या कार्य जिसको किताब अल-फितन कहा जाता है (‘परीक्षा की पुस्तक’) उसमें मुहम्मद कहते हैं कि, ईश्वर उन मुसलमान सेना सदस्यों के लोगों को क्षमा कर देंगे, जो अल-हिन्द पर आक्रमण करेंगे, और उन्हें जीत लेंगे।”

ये लूट, प्रतिभा-सम्पन्न प्रणाली द्वारा प्राप्त की गयी थी, जिसमें संपन्न जनसँख्या को अकेला छोड़ दिया, जससे वे मंदिरों में धन दान देते रहें, और तत्पश्चात मुसलमान उन मंदिरों को संभवतः लूट लें I अपने मंदिरों को विध्ध्वंस से रक्षा करने के कारण, कई हिन्दू योद्धाओं ने युद्ध करने से मना कर दिया:

१२) “इससे भी अधिक सम्पति इन शासकों ने उन तीर्थयात्रियों द्वारा व्युत्पन्न किया उनके उपहारों से, जो पूरे विश्व भर से, सिंध और हिन्द में, महान मूर्ती (सनम), सूर्य-मंदिर में दर्शनों के लिए, मुल्तान में आते थे……. जब मोहम्मद अल-क़ासिम ने मुल्तान को जीता, तब उसने शीघ्र ही ये ज्ञात कर लिया कि, ये मंदिर उस नगर का मुख्य कारण है इतने विशाल रूप से समृद्ध होने का I उसने ‘६००० लोगों को बँधुआ बनाया जो उस सम्पति के रक्षक थे’ और उनके धन को अधिहरण कर लिया, किन्तु मूर्तियों को त्याग दिया – वे २ रूबी के नेत्रों और सोने से बने मुकुट को जिसमें रत्न जड़े थे उन्हें —- ये विचार करके कि, उनको छोड़ वहीँ छोड़ देना ही उचित होगा, किन्तु उस के गले में गाय का माँस का टुकड़ा लटका दिया, उपहास के चिन्ह के रूप में I” अल-कासिम ने तब उसी स्थान पर मस्जिद का निर्माण करवाया जो उस नगर के विपणन क्षेत्र का सबसे जनसंकुल केन्द्र था I सूर्य-मंदिर का आधिपत्य — मस्जिद के अपेक्षाकृत—- यही वो कारण है जिसके पश्चात् भूगोलज्ञ ने देखा कि, कैसे वहां के प्रबन्धकर्ताओं एवं शासकों ने हिन्दु सत्ता के विरोध में अपनी सत्ता प्रदर्शित की होगी I जब कभी भी ‘मुसलमान-भिन्न रिलिजन का राजा’ मुल्तान के विरुद्ध में आंदोलन करने का सहस किया और यदि मुसलमानों को उनसे पर्याप्त प्रतिरोध करने में कठिनाईंयाँ हुईं, तो वे मूर्तियों को विकृत करने या विनाश करने का भय उत्पन्न करते थे, और इससे कथित रूप से उनके शत्रु लौट जाते थे I १० वीं शतब्दी के अंत में, तथापि, इस्माइली, जिन्होंने मुल्तान को हड़प लिया, उन्होंने मूर्तियों का सर्वनाश कर दिया असंख्य  टुकड़ों में और वहां के पुजारी की हत्या कर दी I उसी स्थान पर नविन मस्जिद का निर्माण किया……”

To Read Second Part, Click Here.

Leave a Reply