Translation Credit: Vandana Mishra.
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भारत पर इस्लामिक छात्रवृत्ति:
अरबी, तुर्की, फ़ारसी आक्रमणकारियों ने अपने इतिहासकारों को भारत को परास्त करने की महान कार्यसिद्धि की विजय गाथा के प्रलेख के लिए आदेश दिया। इन में से कई इतिहासकारों को अंततः भारत भूमि से प्रेम हो गया और उन्होंने अत्यंत ही सुन्दर घटनाक्रमों का उल्लेख किया, जिसमें गांधार और सिंध क्षेत्र भी सम्मिलित थे I उनके अनुवादित भारत विषय के लेखों को तत्पश्चात पुनः यूरोपी भाषाओँ में भी अनुवादित किया गया, अतः कई इस्लाम से यूरोपी नवजागरण निवेश वास्तव में भारत के योगदान के कारण हुए थे जो कि, इस्लाम द्वारा उन तक पहुंचे।
कई मुसलमान विद्वानों ने अत्यंत सम्मान दर्शाया है भारतीय समाज के सन्दर्भ में I उदहारण के लिए:
“अरबी साहित्य कई मंत्रियों, आयकर अधिकारियों, लेखाकारों, आदि को अभिनिर्धारित किया ७ वें और ८ वें शतब्दी सिंध में ‘ब्राह्मण’ की भाँती, और ये समान्यतः अपनी पदवी में आक्रमणकारियों द्वारा, स्थायी किये गए रहते थे I ये ब्राह्मण कहाँ से आये, हमें नहीं ज्ञात है, किन्तु उनकी उपस्थिति महत्वपूर्ण मानी जाती थी I कई नगर उनके द्वारा बसाये गए और सिंध उनके नेतृत्व में ‘समृद्ध एवं जनपूर्ण’ हुआ I” १६
“कास्ट विभाजन के विषय में अल्प उद्धरण ही व्याप्त है I एक रूढ़िवादी सामाजिक विभाजन मात्र व्यावसायिक वर्गों में व्याप्त था अपेक्षाकृत आनुष्ठानिक कास्ट-अनुक्रम में: ‘पुरोहित, कृषक, शिल्पकार, व्यापारी’ I” १७
इन सभी मुसलमान विद्वानों में से, अलबेरुनी ने भारतीय सभ्यता के ऊपर अति सूक्षम्ता से व्याख्यान किया I अरबी विद्द्वान एडवर्ड सचाऊ संछिप्त में वर्णन करते हैं कि, किस प्रकार अलबेरुनी की बहुप्रसिद्ध पुस्तक जिसका नाम इंडिका है, उसके अनुवादित पुस्तक के परिचय भाग में, किस प्रकार अरब सभयता ने कई अंश भारत से अपने में सम्मिलित किया है: १८
“अरबी साहित्य की नीव ७५० से ८५० एडी में रखी गयी थी I वह मात्र उनके रिलिजन से जुड़ी हुई परम्पराओं, ईश्वरदूत एवं कविता है जो कि, विचित्र है अरबों के लिए; इसके अतिरिक्त सभी कुछ विदेशी अवतरण से हैं…. ग्रीस, पर्शिया एवं भारत से विचारों के प्रवाह ने ऊसरपन अरबी मानसिकता को उपजाऊ बनाने में सहयता की…… भारत के योगदान, बगदाद, दो विभिन्न मार्गों से पहुँचे। किंचित अंश प्रत्यक्ष संस्कृत से अनुवादित लेखों द्वारा पहुँचे, किंचित अंश ईरान के माध्यम से पहुँचे, जो मूलतः संस्कृत(पाली या प्रकृत भाषसे भी संभवतः) फ़ारसी भाषा में अनुवाद किये गए, और पर्शिया एवं अरब देशों में पहुँचे। इसी प्रकार, उदाहरण के लिए, कलिला और दिमना की कथाएं अरबियों के संपर्क में आईं, चिकित्सा के ग्रन्थ, संभवतः बहुप्रचलित चरक ग्रन्थ से भी अरबियों का संपर्क हुआ ।”
“जैसा कि, सिंध, खालिफ मंसूर (७५३-७७४ एडी), के आधिपत्य के अंतर्गत था, वहाँ से भारत के राजदूत, बगदाद जाते थे, और उनमें कई विद्द्वान सम्मिलित थे, जो अपने संग २ ग्रन्थ लाये थे, ब्रह्मसिद्धान्त ब्रह्मगुप्त (सरहिंद) के लिए, और उनके खण्डखाद्यक (अरकंड) I इन पंडितों की सहायता से, अलफ़ाज़ारी, और कदाचित याकूब बिन तारिक ने भी, उन ग्रंथों का अनुवाद किया । दोनों कार्य अत्यंत ही बृहत मात्रा में प्रयोग हुए, और अत्यंत ही विशाल विस्तृत रूप में प्रभाव डाला। यह प्रथम अवसर था अरबियों के लिए जब वे किसी ज्योतिष-शास्र के वैज्ञानिक प्रणाली से अभिज्ञ हुए I पटोलेमी से भी पूर्व उन्होंने ब्रह्मगुप्त से ज्ञान प्राप्त किया I
“अन्य हिन्दुओं के अंतरावहन हारून के अधिपत्य काल के अंतर्गत, ७८६-८०८ एडी में हुए I मंत्रालय संबंधी परिवार बरमक, जब अपनी सत्ता के शीर्षबिंदु पर था, तब वे बल्ख राज्य करनेवाली राजवंश से आये थे, जहाँ उनके पूर्वज बौद्ध मंदिर नौबेहार, अर्थात नव विहार == नूतन मंदिर (या मठ) के अधिकारी रह चुके थे I लोक कथन अनुसार, बरमक नाम भी भारतीय अवतरण है, अर्थात परमक अर्थात सर्वोच्चय (विहार के मठाधीश) I”
“परिवार की परम्पराओं से प्रेरित, उन्होंने कई विद्द्वानों को भारत भेजा, आयुर्वज्ञान एवं औषधशास्त्र के अध्ययन के लिए I इसके अतिरिक्त, उन्होंने हिन्दू विद्द्वानों को बगदाद में बुलाया, उनको वहां पर मुख्य चिकित्सक के रूप में अपने चिकित्सालयों में नियुक्त किया, और उनको आदेश दिया कि, वे संस्कृत से अनेकों विभिन्न चिकित्सा ज्ञान, औषधि ज्ञान, विष विद्या, दर्शन शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र और अन्य कई विषयों को अरबी भाषा में अनुवाद करें I इसके कई शताब्दियों पश्चात् भी मुसलमान विद्द्वान समय-समय पर उसी कारण के लिए कई बार बरमक के राजदूत बनकर भारत आते रहे, उदाहरण के लिए, अलमुवक़्क़ुफ़ भी आये, अलबेरुनी के आने के किंचित समय पश्चात ही…. “
“कई अरबियों ने हिन्दुओं द्वारा दिए गए विषयों को गम्भीरतापूर्वक लिया और उनपर कार्य किया वास्तविक कृति, भाष्य एवं तत्त्व के संग I उनका अतिप्रिय विषय भारतीय गणित था, जिसका अल्कींदी के प्रकाशन द्वारा, ज्ञान विस्तार अत्यधिक क्षेत्रों में किया गया और कई अन्य के प्रसारणों द्वारा भी किया गया I”
अलबेरुनी ने कोई भी संदेह नहीं छोड़ा है उन स्रोतों के विषय में, जिनको तथा कथित, अरबी-अंक प्रणाली के नाम से जाना जाता है:
“जिन अंकों के चिन्हों को हम उपयोग करते हैं वे उत्कृष्ट स्तर के हिन्दू चिन्हों से व्युत्पन्न प्राप्त किये गए हैं …. अरबी भी सहस्त्र के पश्चात् विराम लेते हैं, जो कि, सर्वोत्तम उचित है एवं सर्वोच्च स्वाभाविक कार्य करने योग्य है …….जो, इसके पश्चात् भी, जो सहस्त्र के भी आगे जाते हैं गणना प्रणाली में, वे हिन्दू हैं, न्यूनातिन्यून अपने अंकगणितीय तकनिकी परिभाषाओं में, जो कि, या तो स्वतंत्रता पूर्वक शोध किया गया है या किसी विशेष व्युत्पत्ति विज्ञान से व्युत्पन्न प्राप्त किया है, यदिच अन्य प्रणालियों में दोनों को एक ही साथ सम्मिलित कर दिया गया है I वे अंकों के नाम के क्रम को १८ वें अनुक्रम तक धार्मिक कारणों से रखते हैं, जिनमें गणितज्ञ कई वैयाकरणों द्वारा कई विभिन्न प्रकार के व्युत्पत्ति विज्ञान से संपर्क में रहते हैं I”
इस्लामी स्पेन में, यूरोपी विद्द्वानों ने भारत का, अत्यंत सकारात्मक रूप से आभार प्रकट किया है, जैसा की प्रमाणित किया गया है अत्यंत ही महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ ११ वीं शताब्दी की पुस्तक में जो कि, स्पेन के शासक द्वारा, विश्व विज्ञानं अधिकृत है । १९ इसके लेखक, साइद अल-अन्दलूसी ने भारत को विज्ञानं, गणित एवं संस्कृति का प्रमुख केंद्र बताया था। किंचित उद्धरण:
“सर्वप्रथम राष्ट्र (जहाँ पर विज्ञानं की उपज किया गया) वह भारत है I ये एक, शक्तिशाली राष्ट्र है जिसकी जनसंख्या बृहत है, और ये एक संपन्न साम्राज्य भी है I भारत अपने लोगों की बुद्धिमत्ता के लिए जाना जाता है I कई शताब्दियों से, सभी राजाओं ने प्राचीन काल से, भारतियों की प्रत्येक ज्ञान के विषयों में योग्यता एवं सक्षमता को माना है I”
“भारत, जो कि, कई शताब्दियों से कई राष्ट्रों को ज्ञात है, धात्विक (मूलतत्त्व) बुद्धिमत्ता है, वह औचित्य एवं निष्पक्षता का एक स्रोत है I ये उदात्तता विचारमग्नता, सार्वभौमिक नीति कथा, उपयोगी एवं दुर्लभ अन्वेषण करनेवाले लोगों से परिपूर्ण है I”
“अपने श्रेय में, भारतियों ने अंकों एवं रेखागणित के विषयों के अध्ययन में महान उन्नति किया है I उन्होंने अमित ज्ञान उपार्जित किया है और खगोल विद्या में सितारों के गति के ज्ञान (ज्योतिष विज्ञान) में भी पराकाष्ठा पर पहुँच चुके हैं, वे आकाश के रहस्यों का भी ज्ञान उपार्जित कर चुके हैं और साथ ही अन्य गणित सम्बन्धी अध्ययन का ज्ञान I इसके पश्चात् उन लोगों ने, सर्वत्र मानवजातियों को अपने चिकत्सा विज्ञानं, विभिन्न प्रकार की औषधियों के शास्त्रों में, पिछाड़ दिया है, किसी भी संयुक्त पदार्थ के गुण और तत्वों की विचित्रता [रसायन विज्ञानं] में भी उनको किसी की भी तुलना में सर्वाधिक ज्ञान है I”
“उनके राजा, अपने नैतिक उत्तम सिद्धांतों के कारण बहुप्रचलित होते हैं, अपने बुद्धिमत्ता निर्णयों के कारण, और उन अधिकारों के उपयोगों की निपुण प्रणाली के कारण प्रचलित होते हैं I”
“हमारे समीप जो ज्ञान भारतीय संगीत के कार्यों का पहुँचा है, वो एक पुस्तक के द्वारा है….. [जिसमें] रूपों के विभिन्न मूल सिद्धान्त एवं संगीत की मधुरता के निर्माण के मूलभूत तत्व व्याप्त हैं I”
“वो जो हमारे समीप उनके, स्पष्ट विचारों के अन्वेषणों द्वारा एवं अचंभित करनेवाले आविष्कारों द्वारा पहुँचा है, वो है उनकी चतुरंग-क्रीड़ा I भारतियों ने, उनके प्रत्येक कोशाणु के निर्माण में, उनकी दुगुना मात्राएं, उनके चिन्हों और रहस्यों के संग, ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच चुके हैं I उन्होंने अधिदैविक शक्तियों से रहस्यों को निचोड़ लिया है I यहाँ तक कि, जब क्रीड़ा हो रही और उनके अवशेषों के युद्धाभ्यास हो रहे हैं, तब भी वे, प्रतीत होते हैं ढाँचों की सुंदरता एवं तारतम्यता की महानता को दर्शाते हुए I ये दर्शाता है, उच्च आकांक्षाओं की अभिव्यक्तिों और पावन कार्यों को, जैसा कि, वह शत्रुओं द्वारा कई विभिन्न प्रकार की चेतावनियों को देता है और कई छल संकेत और साथ ही साथ उनको अनदेखा करने के उपाय भी दर्शाता है I और इसमें एक महत्वपूर्ण प्राप्ति और लाभ है I”
यहाँ तक की १२ वीं शतब्दी के अंत में (सी.ई.), अल-इदरीसी (११००-११६६), एक भूगोलज्ञ एवं विद्द्वान, जो स्पेन एवं सिसिली के थे, उन्होंने गांधार क्षेत्र एवं काबुल क्षेत्र को भी भारत में ही सम्मिलित दर्शाया था। २०
वह क्षेत्र बहुप्रसिद्ध था मुख्य तीन देशीय सामग्रियों के कारण: नील का पौधा, कपास एवं लोहा। २१
इतिहास की शिक्षाए
क्या १००० वर्षों के पश्चत अफ़्ग़ानिस्तान में इस्लाम के इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है? अरबियों एवं तुर्कियों द्वारा भारत में किये गए अत्याचार, जो कि, इस्लाम के नाम पर १००० वर्षों पूर्व किया गया था, उसकी तुलना संभवतः पिछले १० वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान से की जा सकती हैग़ज़नी का महमूद के काल में, भारत, और कई अन्य देशों की तुलना में, यूएस की भाँती ही समृद्ध एवं संपन्न था, अतः वह एक तुलयात्मक लक्ष्य है I तालिबान लोगों की वस्त्र शैली, पूर्वी मुसलामान लूटेरों ने भारतीय संस्कृति पर थोपना चाहा था I उसी प्रकार का समरूपी क़ुरानी निष्कर्षों को उपयोग किया जाता था जैसे वर्तमान के १००० मदरसों में, जो पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और सऊदी अरेबिया में हैं, उनमें पढ़ाया जाता है I मुख्य लूटरे तत्पश्चात मूलनिवासी नहीं थे अफ़ग़ानिस्तान के, बल्कि वे अरबी/तुर्की थे; वर्तमान में, पुनः, वे मुख्य रूप से अफगानी नहीं हैं, बल्कि १० शास्त्रों से भी अधिक मात्रा में पाकिस्तानी या अरबी हैं अपने अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों के लिए I ये सब इतिहास हमें वर्तमान में किस ओर ले जाता है? सर्व प्रथम, मैं दृणतापूर्वक ये विश्वास करता हूँ कि, इतिहास को किसी समकालीन समाज का बोझ नहीं होना चाहिए, अर्थात, दक्षिण एशियाई मुसलामानों को दोष नहीं देना चाहिए उस अतीत के लिए, जिसके वे स्वयं ही भुक्तभोगी रहे हैं I जर्मन लोगों को नाज़ीवाद के विषय में बिना अपराध-बोध करवाए, पढ़ाया जाता है. यू.एस के विद्यालयों में दासत्व के विषय में काले एवं श्वेत रंग, दोनों बच्चों को एक साथ समान रूप से बैठाकर पढ़ाया जाता है I अतीत के पापों को इतिहास में दबा देना, एक अनुत्तरदायी कार्य है, और एक निमंत्रण है उस निःशंक राजनैतिक शक्तियों के लिए जो अज्ञानी लोगों का शोषण करने के इच्छुक हैं I
इसके अतिरिक्त जो अन्य महत्वपूर्ण विषय है, वो ये कि, भारतीयता वाला इस्लाम विश्व का सर्वोत्तम परिष्कृत एवं उदारवादी है, जिसका कारण है इसका दीर्घ काल से भारतीय भूमि द्वारा भरण-पोषण प्राप्त करना I इस्लाम को समानरूपी सुधराव की आवश्यकता है, जैसे ईसाई रिलिजन का अतीत काल के किंचित शताब्दियों में हुआ था I भारत, अपने दीर्घ कालीन इस्लामी रिलिजन की अन्य धर्मों के संग व्याप्ति के अनुभवों के कारण, उसके बृहत मुसलमान जनसमुदाय, और उसके हिन्दू-बौद्ध अनुभवों के कारण, उसे एक उपर्युक्त वातावरण प्रदान करता है इस्लामी सुधारवाद के लिए I इस्लामी बहुसंख्यक राष्ट्रों में बहुलयता, प्रजातंत्र एवं हिन्दू-बौद्ध वातावरण का अभाव है. पश्चिमी देशों में मुसलामानों की संख्या अत्यंत लघु है, एवं उनका उन राष्ट्रों से सामना नूतनकलीन ही हुआ है, और अभी वे वहां जीवनयापन करने के सन्दर्भ में पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुए हैं I भारत इसके विपरीत, एक अत्यंत ही आदर्श जलवायु है इनके विकास हेतु I
अन्य बृहत चित्रण ये है कि, संघर्ष इस्लाम के विरुद्ध नहीं है, बल्कि जिस प्रकार का इस्लाम उत्पन्न हो रहा है, उसके विरोध में है I ये पाकिस्तान के भीतर परस्पर-विरोधी व्यष्टित्वों के मध्य है: अरबों का अनुसरण करें या भारीतियों का I दीर्घ कालीन शांति के लिए इस क्षेत्र में, अफ़ग़ानिस्तान को अरबी-फ़ारसी एवं भारतीय सभ्यताओं के मध्य पुनः प्रतिरोधक बनना पड़ेगा। पाकिस्तान सदा ही एक अस्थिर, बिछवाई रहा है भारत एवं अरबी-फ़ारसी, दोनों प्राचीन सभ्यताओं के मध्य, और अपने आपको पृथक करने की आवश्यकताओं में दोनों से आसक्त है I उत्कृष्ट भारतियों के लिए जो मकौले के दृष्टान्त हैं, वही समान रुपी दृष्टान्त अरबी बनने का पाकिस्तानियों में है, उत्तरवर्ती सन्दर्भ में भिन्नता मात्र समाज के प्रत्येक स्तर में व्याप्त है I पाकिस्तानियों की हीं भावना, उनके परंपरा एवं उनके व्यष्टित्व के बोध के आभाव ने, उनके सर्वत्र असुरक्षित व्यवहार का मुख्य सञ्चालन है I
उचित होता यदि सैकड़ों संचार माध्यम के लोग, युद्ध के शुक्ष्म विवरण को प्रस्तुत करने में, अतिउत्तम रूप से सुसज्जित होते, उस क्षेत्र के इतिहास को सम्पूर्ण रूप से ज्ञात करवाने में I ये कि, वे उन्हें इतना भी ज्ञात नहीं है कि, सारभूत तक भी आश्चर्यजनक नहीं है I किन्तु जो अत्यंत चिंतातुर है वो विषय है, एस.ए.जे.ए (साउथ एशियन जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन), एक ५००-सदस्यों का भारतीय पत्रकारों का पूर्वी अमेरिका में स्थित दल, जो अमरीकियों को इस क्षेत्र के विषय में शिक्षित करने की अपनी भूमिका में असफल रहा है I क्या ये अज्ञानता है, या अपने अत्यधिक ‘भारीतय’ होने की हीन भावना? पिछले १५ वर्षों से, सरकारी, शिक्षिक एवं व्यक्तिगत निधीकरण संस्थाओं ने दक्षिण एशिया पर शोध करने के लिए प्रजोयन दिया है जिसमें वे मात्र कास्ट, गाय, विचित्र वस्तुएं, सती, हिन्दू का धर्म परिवर्तन कराने वालों के विरोध में संघर्षों पर केंद्रित किया है, फलस्वरूप उन्होंने हिन्दुओं का चित्रण रूढ़िवादी “दुष्ट/असभ्य हिन्दुओं” जैसा किया है I इस प्रक्रिया में, उन्होंने पूर्णरूप से मुख्य विषयों को त्याग दिया जैसे वहाबी इस्लाम एवं अन्य कई आंदोलन जो आई.एस.आई द्वारा बुने गए हैं I इसके परिणाम स्वरूप, किंचित दक्षिण एशियाई को अल्पविकसित ज्ञान है ३०,००० मदरसों के विषय में जो पाकिस्तान में हैं, जिनमें से किंचित तालिबान के प्रजनन की भूमि हैं, या उसी प्रकार की सम्बंधित रिलिजन पर आधारित आंदोलन जो की वर्तमान काल की विपदा का कारण हैं I ये घटनाएं रिलिजन के विषय में हैं, जब इन्हें आतंकवाद के दृष्टिकोणों से देखा जाता है और उनके बृहत सहानुभूति प्रकट करनेवालों के जाल के रूप में जो पूरे विश्व में व्याप्त हैं, देखा जाता है I इसके उपरांत भी शैक्षिक परिषद असुसज्जित और असफल हैं, अपने लक्ष्य में, इन घटनाओं के वास्तविक निष्कर्षों के विषय में सम्पूर्ण विश्व को उचित शिक्षा देने में I सितम्बर ११, के पश्चात्, मैंने व्यक्तिगत रूप से, रीसा(रिलीजंस इन साऊथ एशिया) के व्यावसायिक विद्द्वानों की मंडली को लिखा, चूँकि अफ़ग़ानिस्तान एवं पकिस्तान दोनों ही उनके दक्षिण एशियाई की परिभाषा में सम्मिलित हैं, ये सुझाव दिया कि, वे अपने नवंबर में होने वाले वार्षिक समारोह में, उनको प्रमुख चर्चा दक्षिण एशियाई में वहाबिस्म-तलिबानिस्म के विषय में करना चाहिए I विश्व के उत्कृष्ट विद्द्वानों की संस्था होने के उपरांत भी, जो तटस्थ भाव से दक्षिण एशियाई रिलीजनों का अध्ययन करते हैं, वे इस विषय को सम्मिलित करने में असफल रहे I इसके विपरीत उन्होंने के दल का निर्माण किया, जिसका मुख्य लक्ष्य ये था कि, कैसे हिंदुओं की पाठ्यपुस्तकों और उनकी वेबसाइट ने इस्लाम को सीमांकित किया है!
विद्द्वान और संचार माध्यम दोनों ही, भयभीत थे ये व्याख्या करने में कि, अफ़ग़ानिस्तान ऐतिहासिक रूप से पवित्र धरती है बौद्ध एवं हिन्दुओं के लिए उसी समान रूप से, जैसे जेरूसलम यहूदियों के लिए और काबा मुसलामानों के लिए है I वर्तमान काल के अप्रसिद्ध गुफाएं, एक समय में शास्त्रों बौद्ध महंतों एवं हिन्दू ऋषियों के निवास स्थान रहे हैं, जिन्होंने वहां पर साधना की और ज्ञानोदय प्राप्त किया I कैसे वो पवन भौगोलिक क्षेत्र दुष्टों के हाँथों सर्वनाश कर दिया गया, इसी विषय को मैं अभी तक स्वीकार नहीं कर पाया हूँ I
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