Translation Credit: Vandana Mishra.
“धर्म” शब्द के बहुभागी अर्थ हैं जो सन्दर्भों के आधार पर निर्भर होते हैं जिसमें उनका प्रयोग होता है I इनमें सम्मिलित हैं: आचरण, कर्तव्य, उचित, न्याय, धर्माचरण, नैतिकता, रिलिजन, धार्मिक गुण, उचित कार्य जो अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार निर्धारित होते हैं, इत्यादि I कई अन्य अर्थ भी सूचित किये गए हैं, जैसे कि, न्याय या “तोराह”(यहूदियों के सन्दर्भ में), “लोगोस” (ग्रीक के सन्दर्भ में), “वे” (ईसाई के सन्दर्भ में) और यहाँ तक कि “टाओ” (चीन के सन्दर्भ ) में I इनमें से कोई भी पूर्णतयः परिशुद्ध नहीं हैं और कोई भी पूर्ण दबाव के साथ संस्कृत में इस शब्द का अर्थ नहीं व्यक्त करने में सक्षम हैं I धर्म का कोई भी तुल्यार्थक शब्द नहीं है पश्चिमी कोष में I
धर्म शब्द का संस्कृत मूल “ध्रि” है, जिसका अर्थ है “वो जो पुष्टि करे” या “वो जिसके बिना कुछ भी स्थिर नहीं रह सकता” या “वो जो पूरे ब्रह्माण्ड के दृढ़ता एवं मधुर संबंध बनाने में संतुलन रखे I” धर्म सम्मिलित करता है प्राकृतिक, वस्तुओं के अंतर्जात व्यवहारों का, कर्तव्य, न्याय, आचारनीति, धर्माचरण इत्यादि I प्रत्येक तत्व इस ब्रह्माण्ड में अपने विशिष्ट धर्म के अनुसार व्याप्त है — ऋणावेश सूक्ष्माणु से, जिसका धर्म है एक विशेष पाकर से परिक्रमा करना, घन का धर्म, आकाशगंगा का धर्म, पौधों का धर्म, जंतुओं का धर्म, और निश्चित ही, मानव का धर्म I मानव जाती के निर्जीव वस्तुओं के ज्ञप्ति को ही हम सब भौतिकशास्त्र के नाम से जानते हैं I
अँगरेज़ उपनिवेशवादियों ने प्रयत्न किया भारतीय परम्पराओं को प्रतिचित्र करने हेतु अपने स्वयं के रिलिजन के विचारों में, जिससे कि, वे समाविष्ट कर सकें और राज्य कर सकें अपने अधीन जनता पर; इसके पश्चात भी धर्म का अभिप्राय भग्नावशेष दुशप्राप्य ही रहा है I जनसाधारण रूप से रिलिजन में अनुवाद करना भ्रामक है, क्यूंकि, अधिकतर पश्चिमियों को, एक विशुद्ध रिलिजन में अनिवार्य रूप से निम्ननांकित विशेषताएं व्याप्त होती हैं:
१) एकमात्र धर्मग्रंथ के अधिनियम पर आधारित होते हैं जो ईश्वर द्वारा दी गयी है, यथावत् परिभाषित ऐतिहासिक घटना के सन्दर्भ में;
२) इसमें सम्मिलित है उस ईश्वरीय शक्ति की उपासना जो पृथक है हमसे और इस ब्राह्मण से;
३) मानव प्राधिकारी द्वारा नियन्त्रित करनेवाले गिरिजाघर;
४) उनमें औपचारिक सदस्य हों;
५) जिसमें सभापतित्व के लिए विधिवत् पादरी बनाना अनिवार्य है; एवं
६) एक विधिपूर्ण समुच्चय मापदंड का प्रयोग हो।
किन्तु धर्म सिमित नहीं है किसी विशेष संप्रदाय या किस विशिष्ट आराधना पद्धति पर I पश्चिमियों के लिए, एक “नास्तिक वृत्ति का धर्म” एक अंतर्विरोध है इन परिभाषाओं के अनुसार, किन्तु बौद्ध, जैन और चार्वाक धर्म में, ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है जैसा की परंपरागत ढंग से उनकी परिभाषा की गयी है I किंचित हिन्दू प्रणालियों में ईश्वर की समुचित प्रतिष्ठा विवाद्य है I ना ही कोई एक मात्र मापदंड है किसी एक ईश्वर का, और कोई भी अपने निर्मित इष्ट-देवा की उपासना करने के लिए स्वतंत्र है, या कोई अन्य चायनीय ईश्वर।
धर्म प्रदान करता है मधुर संबंधों के सिद्धांत की पूर्ती जो जीवन के हर शैली में उपुक्त होती है, जैसे, धन एवं सत्ता का उपार्जन (अर्थ), इच्छाओं की पपोर्टी (काम) एवं मुक्ति (मोक्ष) I रिलिजन, इसी कारण, मात्र एक अंश है धर्म के कार्यक्षेत्र का I
इसी कारण रिलिजन मात्र मानव जाती पर ही लागू होता है ना की पूरे ब्रह्माण्ड को; ऋणावेश सूक्ष्माणु, बँदर, पौधे एवं आकाशगंगा का कोई रिलिजन नहीं होता है, जबकि इन सभी का अपना धर्म है चाहे वे उसका पालन मंशा से करें या ना करें।
मानवता की सुगंध दिव्यता में है, ये संभव है उनके लिए कि वे अपना धर्म जान सकें सीधे अनुभव से बना किसी बाहरी हस्तक्षेप के या इतिहास का कोई अवलंब। पश्चिमी रिलिजनों में, विश्व का केंद्रीय नियमावली और इसके लोग अद्वितीय और संघटित हैं, और ऊपर से प्रकाशित होते हैं एवं राज्य किये जाते हैं I
धार्मिक परम्पराओं के अनुसार, शब्द अ-धर्म उन मानव जाती पर लागू होता है जो न्यायसंगत रूप से क्रियान्वित करना नहीं चाहते; इसका अर्थ ये नहीं है कि, वे दिये गये समूचे कथन को जो श्रद्धा प्रणाली है, उसे समाविष्ट ना करें या अस्वीकार कर दें या अवज्ञा करें उन धर्मादेशों या अधिनियमों को I
धर्म को प्रायः “नियम” में रूपांतरित किया जाता है, किन्तु नियम बनने के लिए, किंचित नियमों के समूह का व्याप्त होना अनिवार्य होता है जिसमें: (१) घोषित किया जाये और आज्ञप्ति किया जाये किसी अधिकारी द्वारा जो आनंद उठा सकें राजनैतिक आधिपत्य का किसी निर्धारित दिए गए क्षेत्र का, (२) जो बाध्यकर हो, (३) जो न्यायालय द्वारा भाषांतरित, न्यायाधीश द्वारा लागू किया जा सके, एवं (४) जो दण्डनीय हो जब उसका उलंघन हो Iइस प्रकार का कोई भी वर्णन धर्म के विषय में नहीं पाया जाता है परम्परों में I
रोम के महाराजा कोंस्टनटिन ने आरम्भ किया “सिद्धान्तों के नियमों” की प्रणाली, जो निर्धारित एवं बाध्य किया जाता था गिरिजाघरों द्वारा I यहूदी के नियमों के अन्तिम स्रोत हैं इजराइल के ईश्वर। पश्चिमी धर्मों में यह सहमति है कि, ईश्वर के नियमों का पालन करना अति आवश्यक है, जैसे कि, ये धर्मादेश प्रभु द्वारा दिए गए हों I इसी कारण ये महत्वपूर्ण है कि, “मिथ्यावादी ईश्वार” की निंदा हो और उनको पराजित किया जाये, क्यूंकि क्या पता कहीं वे अनुचित नियमों का प्रयोग तो नहीं कर रहे हैं “सत्य नियमों” को क्षीण करने की आड़ में। यदि कई देवी-देवताओं के उपासना की आज्ञा दे दी, तो संभवतः कई संदेह उत्पान हो सकते हैं कि किसके नियमों सत्य हैं I
इसके वैषम्य में, कोई भी लिखित प्रमाण नहीं व्याप्त है किसी भी प्रभु द्वारा जिसमें में घोषणा की गयी हो विभिन धर्म-शास्त्रों (समाज के लिए रचे गए ग्रन्थ) में से किसी विशेष क्षेत्र या विशेष समाय के लिए, ना ही कोई ऐसी घोषणा जिसमें ईश्वर ने कुछ प्रकाशित किया हो जैसे “सामाजिक नियम,” या ये नियम किसी शासक द्वारा बाध्य किये जाएं। कोई भी रचयिता किसी भी सामाजिक धर्म के प्रसिद्द ग्रन्थ के, कदापि राजा नहीं थे, ना ही किसी नियम को बलपूर्वक पालन का दबाव डाला, ना ही कोई शासकीय क्षमता उनके पास थी किसी राज्य के यंत्रावली में I वे अधिकतर आधुनिक शैक्षिक सामाजिक सिद्धांतकार के सम्बन्धी थे ना कि धर्मशास्त्रज्ञ के I बहु प्रसिद्द याजन्वाल्क्य स्मृति का परिचय दिया गया है दूस्थ शरण स्थल पर संन्यासी के सन्दर्भ में I बहुचर्चित मनु स्मिरीति आरम्भ में ही स्पशत करती है अपनी व्याप्तता को अत्यंत ही अभिमानरहित रूप में मनु के आवास द्वारामनु, जिन्होंने समाधी(उच्य स्तर का चैतन्य) की अवस्था में सभी प्रश्नों का उत्तर दिया जो भी प्रश्न उनसे किये गये I मनु ऋषियों से कहते हैं कि, प्रत्येक विशिष्टकाल का अपना एक विशिष्ट सामाजिक एवं धार्मिक आचरण होता है I
इसी प्रकार, कोई भी वेद या उपनिषध, किसी भी राजा या न्यायलय या अधिकारी या कोई संस्था जिसका स्तर गिरिजाघर की भांति हो, उनके द्वारा नहीं प्रायोजित किये गए थे इस सन्दर्भ में, धर्म निकट है “नियम” के, जो हिब्रू ग्रंथों में व्याप्त है, जहाँ तोराह, जो की हिब्रू के समतुल्य है, एक प्रत्यक्षतः आध्यात्मिक अनुभव में I अंतर ये है कि, यहूदी तोराह पुरातनत इजराइल संस्था द्वारा अतिशीघ्र ही लागू कर दिए गए ।
धर्म-शास्त्र ने कोई भी नियमों या सिद्धांतों के बाध्य पालन प्रणाली पर दबाव नहीं दिया बल्कि व्याप्त प्रचलन को अभिलिखित किया। कई पारम्परिक स्मृतियों (विधिबद्ध सामाजिक धर्म) ने प्रलेख किया प्रचलित परिसीमित प्रथा किसी विशेष संप्रदाय का I महत्वपूर्ण सिद्धांत आत्म-शासन का था, संप्रदाय द्वारा अभ्यंतर से I स्मृतियों ने कदापि घोषणा नहीं की, निर्धारण करने की, किसी भी रूढ़िवादी विचार को पुरोहितासन से, और १९ वीं शताब्दी तक, अंग्रेजी सर्कार के शासनकाल में, स्मृतियों को “नियम” में परवर्तित करके लागू करवा दिया गया राज्य द्वारा I
धर्म का न्यूनीकरण रिलिजन एवं नियम के हानिकारक परिणामों की अवधारणा में कर दिया गया; ये धर्म के अध्ययन को पश्चिमी ढांचे में स्थापित किया गया, जिसमें इसे अपने ही अनुकरणीय आदर्शों के स्वामित्व से दूरस्थ कर दिया गया I इसके अतिरिक्त, ये एक भ्रमित आवृत्ति प्रस्तुत करता है कि, धर्म ईसाई के गिरजाघर संबंधी नियम-निर्माण के समतुल्य है एवं इससे सम्बन्धी सत्ता की प्राप्ति के संघर्ष के सामान है I
धर्म को रिलिजन के समतुल्य घोषित करना, भारत में एक सर्वनाशी परिणाम सिद्ध हुआ: धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, धर्म को सिमित कर दिया गया समान रूप से, जैसे इसाईओं का यूरोप में किया गया I एक बिना-रिलिजन का समाज फिर भी नीतिपरक हो सकता है बिना किसी ईश्वार में आस्था किये, किन्तु अधार्मिक समाज अपनी नीतिपरकता विस्तार को लुप्त कर देता है एवं भष्टाचार और पतनकाल में चला जाता हैI