पारंपरिक ज्ञान प्रणाली – 1

भारतीय सभ्यता

Translation Credit: – Vandana Mishra.

ये अब मान्य हो रहा है कि, पश्चिमी मापदंड ही एक मात्र निर्देश चिह्न नहीं है जिनसे अन्य सांस्कृतिक ज्ञान का मूल्यांकन किया जाए I वैसे तो ‘परंपरिक’ शब्द कदाचित संकेतार्थ रूप से ‘आधुनकता-विरुद्ध’ होने का संकेत देता है, एक ‘अविकसित’ या ‘अप्रचलित’ प्रसंग, किन्तु कई पारम्परिक विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी वास्तव में, पश्चिमी मानदंड से भी परे आधुनिक स्तर की थीं और उत्तम रूप से क्षेत्रीय स्थिति और आवश्यकताओं के अनुकूल भी थीं आपने उत्तरकालीन ‘अधुनीक’ प्रतिनिधि की तुलना में I उन देशों में जहाँ पुरातन सांस्कृतिक सभ्यता व्याप्त थीं, वहां जनसाधारण एवं उत्कृष्ट विज्ञानं दोनों ही साथ में एक ही समान रुपी संगठित पैतृक सम्पत्ति के अंश थे, बिना किसी आधिपत्य वर्गीकरण के I

तथापि, आधुनिकता ने कई विभिन्न समाधानों को समान रूप कर दिया, और इस प्रकार के विभिन्न विचारों का नाश अनुरूप है जैव-विविधता के नाश से I उपनिवेशवादियों ने व्यवस्थित रूप से क्षेत्रीय जान समुदाय का पारम्परिक विज्ञानं, प्रौद्योगिकी एवं भूमि की शिल्प कला को अप्रतिष्ठित, पूर्णतया विनष्ट या दुर्बल बना दिया और साथ ही उन्हें लूटा भी, क्यूंकि वे उनका बौद्धिक अहंकार तोड़ना चाहते थे, और उनके आर्थिक उत्पादन के साधनों को और सामाजिक संस्थाओं के माध्यमों को नियंत्रित और संशोधित करना चाहते थे।

आधुनिक समाज ने आधिपत्य वर्गों का निर्माण किया जैसे विज्ञानं विरुद्ध माया, प्रोद्द्योगिकी विरुद्ध रूढ़िवाद इत्यादि., जो कि, अनियन्त्रित एवं अवास्तविक थे I किन्तु कई नृविज्ञानी जिन्होंने नूतनकलीन तथाकथित ‘अविकसीत’ लोगों के संग कार्य किया, उनको अत्यंत आश्चर्य हुआ जब उन्हें कई उच्च विकसित एवं परिष्कृत प्रौद्योगिकी का ज्ञान उन्हीं लोगों से प्राप्त हुआ I ‘पारंपरिक ज्ञान प्रणाली’ की शब्दावली इसी कारण निर्मित की गयी नृविज्ञानियों द्वारा एक वैज्ञानिक प्रणाली के रूप में जिसकी अपनी वैधता है, ‘अधुनीक’ विज्ञानं के विरोध में I

यूनाइटेड नेशन विश्वविद्यालय के प्रस्ताव व्याख्या करते हैं ‘पारंपरिक ज्ञान प्रणाली’ का निम्नलिखित रूप से:

“पारंपरिक ज्ञान” या “क्षेत्रीय ज्ञान” मानवजाती के उपलब्धियों का क्रम है जो समाविष्ट करता है जीवन की जटिलताओं को और उत्तर-जीवन की शैली को एक, अमित्रवत वातावरण में I पारंपरिक ज्ञान, जो प्रोद्योगिक, सामाजिक, संस्थात्मक या सांस्कृतिक हो सकता है वह प्राप्त किया गया है एक महान मानवजाती के उत्तरजीविता एवं विकास के अन्वेषणों द्वारा ।”

लौरा नादेर व्याख्या करती हैं पारम्परिक ज्ञान प्रणाली (ट्रेडिशनल नॉलेज सिस्टम, टी.के.एस) के अध्ययन के उद्देश्य को: “उदेश्य लोगों की मानसिकता को जागरूक करना है, अन्य प्रकार के दृष्टिकोणों द्वारा विचार करने के लिए और प्रश्न करने के लिए, ज्ञान के प्रति अपनी प्रवृत्ति को बदलने के लिए, विज्ञानं की संस्था का पुनः निर्माण करने के लिए— एक विचार की प्रणाली को निरूपित करना जो परम्परा के विषय में सार्वभौमिक हो।”

ऐतिहासिक पृष्टभूमि

आधुनिक विज्ञानं कदाचित् न्यूटन के काल से कालांकित किया जा सकता है I किन्तु पारम्परिक ज्ञान प्रणाली को २ मिलियन वर्षों पूर्व से कालांकित किया गया है, जब होमो हैबिलिस (अविकसित आदि मानव जाती) ने उपकरण का निर्माण आरम्भ किया और प्रकृति से संपर्क स्थापित करना आरम्भ किया I इतिहास के प्रभात से, विभिन्न लोगों ने विभिन्न शाखाओं में जैसे विज्ञानं और प्रौद्योगिकी में योगदान दिया है, प्रायः एक ऐसे प्रणाली द्वारा, जो कई सांस्कृतियों के सम्पर्कों द्वारा स्थापित हुई, विच्छिन्न स्थानों में और जो विस्तृत रूप से बृहत एवं दूरस्थ थीं I ये पारस्परिक संपर्क और भी स्पष्ट होता जा रहा है व्यवसाय की सार्वभौमिकता एवं सांस्कृतिक पलायन के कारण पूरे विश्व में बृहत दूरस्त स्थानों से जो अब शोधकारों द्वारा स्पष्ट रूप से पहचाना जाने लगा है I

इसके पश्चात् भी, प्रायः ऐसा पाया जाता है कि, अधिकांश विज्ञानं का इतिहास जैसा कि, सामान्य रूप से पढ़ाया जाता है, वह अधिकतर यूरो-केन्द्रिक ही होता है I ये औसतन दो चरणों में होता है: अन्य लोगों के ग्रीस पर पड़े प्रभावों, को नकारते हुए, ये ग्रीस से आरम्भ होता है I तत्पश्चात ये ‘तीव्र गति से प्रसारित’ होने लगता है कई शताब्दियों तक एक ज्ञानोदय काल तक लगभग १५००, इस घोषणा के द्वारा कि, आधुनिक विज्ञानं एकमात्र यूरोपियों की ही विजयोल्लास है, और अन्य लोगों के प्रभावों को नकारते हुए, विशेषतः भारत के प्रभावों को, यूरोपी नवचेतना एवं ज्ञानोदय के संदर्भ में। यूरोपी अन्धकार-युग(डार्क एजेस) को प्रकल्पित किया जाता है विष्वस्तर पर अन्धकार युग की भाँती, जबकि, विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में वृद्धि और नूतन अन्वेषणों द्वारा उन्नति और समृद्धि हो रही थी. यूरोपी तबतक परिधि पर थे, जबतक उन लोगों ने १४९२ में, अमरीका पर आक्रमण नहीं कर लिया था I

जोसफ नीधम के कार्य को विशेष रूप से धन्यवाद, जिन्होंने चीन के ज्ञान के योगदानों को विश्व में नूतन काल में कई विद्द्वानों के विस्तृत परिसर का परिचय दिया है I इसके अतिरिक्त और भी नूतन काल में, अरबी विद्द्वानों का भी बहुत धन्यवाद, जिन्होंने इस्लामिक साम्राज्य की प्रमुख भूमिका को अपने विचारों के आधार पर सम्पूर्ण यूरोप में प्रसारित करके प्रशंसा प्राप्त किया I तथापि, उत्तरवर्ती सन्दर्भ में, कई अन्वेषणों एवं शोधों को जो भारतीय मूल के थे, उन्हें अरबी अनुवादकों ने स्वयं ही मान्यता दी है और प्रायः यूरोपियों ने उन्हें अरबी स्रोतों का बताया है, जबकि वास्तव में, अरबियों ने यूरोपियों को भारत में सीखी हुई विद्या को ही पुनः प्रसारित किया था I

अतः, जो विस्तृत एवं महत्वपूर्ण योगदान भारतीय उप-महाद्वीप द्वारा दिया गया है, उसको विस्तृत रूप से अनदेखा कर दिया गया है I अंग्रेज उपनिवेशक कदापि इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि, भारतीय उनसे तीसरे सहस्राब्दी बीसी से ही अधिक सभ्य थे, जबकी अँगरेज़ तब भी जंगली एवं बर्बर चरण में थे I इस प्रकार के स्वीकृति संभवतः उनके यूरोपियों द्वारा संचालित सभ्यता प्रसारण आंदोलन का नाश कर सकती है जो के उनके बुद्धिजीवी परिसर का अंश था उपनिवेशीकरण के काल में I

अंग्रेजों ने भारत-विद्या का अध्ययन नहीं किया टी.के.एस, मात्र उसे गुप्त रूप से एक ऐसी प्रणाली की भाँती आलेख किया है, जो अपने आपसे स्पर्धा कर रही हो, और उनके प्रौद्योगिकी को अंग्रेज़ों के औद्योगिक क्रांति के लिए स्थानांतर करने के लिए सुसाध्य बनाया। जो कुछ भी बहुमूल्य पाया जाता था वह शीघ्र ही हथिया लिया जाता था (उदाहरण निमिनलिखत है), और उसके भारतीय उत्पादकों को बाध्य किया जाता था अपने व्यवसाय को त्यागने के लिए, और इस कार्य को कई उदाहरणों में उन्हें सभ्य बनाने के लिए न्यायसंगत सिद्ध किया जाता था I साथ ही, भारत का एक नूतन इतिहास भी रचा गया इस आश्वासन से कि, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियां जो मासिक रूप से उपनिवेशी लोगों की होंगी, वे इस अंदरूनी हीन भावना से ग्रस्त अपने पारम्परिक ज्ञान के विषय में और उपनिवेशकों की उत्कृष्ट ‘आधुनिकता’ ज्ञान में विश्वास करने लगेंगी I इसको मैकॉलिस्म कहते हैं, जो लार्ड मकौले के नाम पर रखा गया जिसने अंग्रेज़ों की इस कूटनीति को सफलतापूर्वक १८३० इसवीं में लागू किया I

क्यूंकि ये यूरोपियों के लिए असंभव हो गया था की वे उत्कृष्ट भारत के इतने बृहत भव्य वैज्ञानिक एवं प्रोद्योगिक पुरातात्त्विक प्रमाणों को मिटा सकें, उन्होंने इंडस सभ्यता को इजीप्ट एवं मेसोपोटामियन सभ्यता से स्थानांतरण होने के सिद्धंत स्थापित किये I ये निर्माण इतिहास लेखन में संचयी होने के झुकाओ को दर्शाते हैं पनर्निर्माण की अपेक्षा में, अर्थात, और भी पर्तों का निर्माण किया गया बिना पूर्वी परतों को भली भाँती परिक्षण किये हुए I दुर्भाग्यवश, स्वतंत्रता पश्चात् भी इन इतिहास में व्याप्त विकृतियों कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया, और इसने निरंतर नकारात्मक प्रभाव डाला टी.के.एस की ज्ञप्ति एवं प्रशंसाओं पर I कई भारतीय बुद्धिजीवी उत्कृष्ट वर्ग अभी भी उसी मंशा को प्रोत्साहन देते हैं कि, उपनिवेश-पूर्व भारत एक सामंतवादी, अविवेकपूर्ण एवं आशय अनुसार सर्वदा ही अपने ऊपर आक्रमण की आवश्यकता का अनुभव करता था स्वयं के भले के लिए I

इसने एक देशप्रकृति को जन्म दिया जिसमें टीकेएस के विरुद्ध आरोपित पूर्वाग्रह आज तक आधुनिक समाज में व्याप्त है I उदाहरण के लिए, टी.के.एस कार्यकर्त्ता मधु किश्वर के अनुसार, भारत की सरकार आज भी निरंतर टी.के.एस को अवैद्ध एवं असंभव अनुसरण बताती है I स्वतंत्रता के पश्चात् भी, कई अँगरेज़ नियमावली टी.के.एस के विरुद्ध निरंतर गतिमान रही, यद्द्पि उनकी वास्तविक मंशा भारत के बृहत आंतरिक उद्योग के विध्वंस की थी एवं विदेशी व्यापार के विध्वंस की थी और उनको अंग्रेजी प्रौद्योगिकी क्रांति से बदलने के थी I ये ध्यान देने के लिए महत्वपूर्ण है की वर्तमान में १० % से भी अल्प भारतीय कर्मचारी ‘ संगठित कार्यक्षेत्र’ में कार्यान्वित हैं, किसी संगठन के कर्मचारी के नाम से I शेष ९०% व्यक्तिगत स्वतंत्र पत्रकार, अनुबंध कर्मचारी, व्यक्तिगत उपक्रमी और अन्य इत्यादि इसी प्रकार, जिनमें से कई अभी भी अपनी पारम्परिक व्यवसाय को अनुसरण करते हैं I

तथापि, उपनिवेशियों के नियमावली के स्थायीकरण को ध्यान में रखते हुए जो अधिकांश कार्य का प्रतिपादन अवैध ढंग से करते हैं, वे ही प्रत्येक प्रकार के शोषण, भ्रष्टाचार एवं दुर्व्यवहार के, अत्यधिक आघात योग्य होते हैं I भारत के पारम्परिक ज्ञान कर्यकर्ता के उत्तराधिकारी, जिन्होंने विशाल नगर निर्माण किये थे, प्रौद्योगिक उन्नति की थी और विश्व व्यवसाय को कई शताब्दियों तक प्रबलता से संचालित किया था, वे ही वर्तमान में अपने स्वयं के देश में अपनी ही सरकार द्वारा अवैध माने, जाने लगे हैं I वर्तमान काल की कई जातियाँ, जैसे वस्त्र उद्योग, चिनाई, एवं  धात्विक कर्मचारी, किसी समय एक ऐसी श्रेणी में हुआ करते थे, जो सम्पूर्ण विश्व को कई विभिन्न प्रकार के उद्योगी सामग्रियाँ प्रदान करते थेI

ये ध्यान देने के लिए महत्वपूर्ण है कि, सर्वत्र पराजित एवं उपनिवेशी बनायी गयी पुरातन सभ्यताएं विश्व में से, भारत अदुतीय है निम्नलिखित कारणों से:  उसकी धन संपत्ति औद्योगिक थी और उसके कर्मचारियों के श्रम एवं मतिसूक्ष्मता से निर्माण की गयी थी I अन्य सभी उदाहरणों में, जैसे कि, मूल निवासी अमरीकियों के सन्दर्भ में, लूट की सामग्री अधिकांश भूमि, स्वर्ण एवं अन्य प्राकृतिक पदार्थ ही होते थे I किन्तु भारत के सन्दर्भ में, उपनिवेशकों को अप्रत्याशित लाभ प्राप्त हो गया था, एक असाधारण लाभ जिसकी सीमा भारत के व्यापार नियंत्रण, भारत की आर्थिक उत्पादन से कर लेना और क्रमशः प्रौद्योगिकी  एवं उत्पादन के ज्ञान को उपनिवेशियों को प्रदान करने में काम आयी. इसमें अत्यंत बृहत मात्रा में भारत से धन संपत्ति का स्थानांतरण विदेशों में सम्मिलित था I

विश्व के प्रमुख निर्याती आर्थिक देशों में से (चीन को सम्मिलित करके) एक होने के पश्चात, भारत मात्र सामग्रियों को आयात करने योग्य रह गया; अत्यंत आर्थिक राजधानी के स्रोत की पदवी से जिसने ब्रिटेन के प्रौद्योगिक क्रांति में पूँजी दी थी, वह स्वयं एक सर्वोच्च बृहत ऋणी देश में परिणित हो गया; अपने ईर्ष्यालू पदवी से जो उसकी एक समृद्ध देश के रूप में थी, वह मात्र एक भिक्षुकों की धरती के नाम से प्रसिद्द हो गया; और एक ऐसे देश से जहाँ उच्च शिक्षा के अनेकों प्रतिष्ठित केंद्र थे जिन्होंने उत्कृष्ट स्तर के विदेशी विद्द्वानों को यूरेशिया से अपनी ओर आकर्षित किया था, वही सर्वाधिक मात्रा में अनपढ़, अज्ञानियों की धरती बन गया I ये एक अनकही प्रमुख कथा है I भारत के टी.के.एस के शिक्षा प्रणाली का क्षय, इतिहास में एवं सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम में प्रमुख चरण है, भारत को रूढ़िबद्ध दर्शाने के लिए I यहाँ तक कि, यदि इन किंचित विषयों  को प्रकशित भी किया जाय, तो किंचित पश्चिमी और उत्कृष्ट भारतीय इनको स्वीकारने के लिए तत्पर हैं, एक पूर्वधारणा के रूप में, भारत के विषय में कि, वे नितांत आरोपित हैं I

वर्तमान काल में, वैश्वीकरण की समस्या

वर्तमान काल की आर्थिक वैश्वीकरण, पश्चिमी जीवन शैली के अपने सम्पर्क साधन द्वारा उनके महिमागान ने परिणाम स्वरुप, एकरूपीकरण कर दिया है सभी मानवजाति की ‘आवश्यकतओं’ को और एक अप्राप्य आकांक्षाओं को जन्म दिया है I इस विश्व से किये गए इन झूठी प्रतिज्ञायाओं द्वारा, अभिसामयिक पश्चिमी प्रोद्योगिकी स्वयं वितरण या पोषण नहीं कर सकेगी, कई कारणों से:

कई असंख्य निर्धन मानव समाज के लिए, पश्चिमी जीवन शैली अप्राप्य है, क्यूंकि जो मूलधन सामग्री उन इच्छाओं की पूर्ती के लिए चाहिए वह इस विश्व में व्याप्त ही नहीं है, और रिसाव का प्रभाव अत्यंत ही निष्क्रिय है जो कि, निम् श्रेणी तक पहुँच सके, जहाँ पर अधिकांश मानवता का निवास है I

पश्चिमी सभ्यता असमता पर आधारित है —– “कहीं ना कहीं” अल्पमूल्य में कर्मचारी उपलब्ध ही होंगे, और किसी अन्य स्थान से अल्पमूल्य में प्राकृतिक सामग्रियाँ भी क्रेय की जा सकेंगी, बिना बृहत विश्व के चित्र को देखते हुए या बिना विश्व परिस्थितिविज्ञान को जाने हुए I ये क्रियात्मक आवश्यकताएं जो वर्तमान काल में विश्वव्यापी हो गयी हैं वे पूँजीपति प्रणाली का विरोध करती हैं, वे राज्यों और लोगों के सिद्धांतों और प्रचार के समान अधिकारों का भी विरोध करती हैं I प्रत्येक प्रकार के कारण प्रस्तुत किये गए हैं इन प्रबलतीव्र प्रस्ताव के लिए, जैसे कि, सभी सीमाओं का खंडन और सभी उपलब्ध कर्मचारियों को इस स्पर्धा में आने की अनुमति देना, ‘स्वतंत्रता’ की पदवी के विपरीत होना, जो अभी तक इतिहास में प्रचलित थी I

पश्चिमी आर्थिक विकास हेतु प्रणालियाँ माँग करती हैं “वृद्धि” की, जो पोषण कर सके स्टॉक उद्द्योग के मूल्यांकन का, और विकास अनिश्चित कालीन नहीं हो सकता है I एक दृढ़ स्तर की अर्थव्यवस्था जिसमें शून्य विकास संतुलन हो, वो संभवतः पश्चिम की सम्पति का विनाश कर सकता है, क्यूंकि उनके वित्तीय ढाँचे विकास के आधार पर निर्धारक किये जाते हैं I

यदि, उपरोक्त कठिनाईयों का समाधान भी कर लें और विश्व के ६ बिलियन लोगों को पश्चिमी जीवन शैली प्राप्त भी हो जाए, किन्तु तब भी ये सम्पूर्ण विश्व के प्राकृतिक समपत्ति, सभी के लिए अप्राप्य ही सिद्ध होगा I

जब गाँधी जी से पूँछा गया था कि, क्या भारत के लिए भी वे अंग्रेज़ों की भाँती, जीवन शैली का चयन करेंगे, तो उनके उत्तर को निम्नलिखित रूप में संक्षिप्त व्याख्या द्वारा दर्शाया है: इस प्रकार की जीवन शैली को जीने के लिए अंग्रेज़ों को इस धरती को लूटना पड़ा है I यदि, भारत, जिसकी जनसंख्या अत्यंत बृहत है, इस समतुल्य जीवन शैली जीने के लिए उसे तो कई ग्रहों को लूटना पड़ेगा।

यदि आदर्शरूपी जीवन शैली अनुपलब्ध है सर्वत्र मानवता के लिए, तब किस आधार पर (आदर्श, बुद्धितः और क्रियात्मक प्रवर्तन के संबंध में) ये किंचित देशों आशा करते हैं, अपने आपको औरों की तुलना में श्रेष्ठ दर्शाने की और इस प्रकार की जीवन शैली को जीने के लिए आशावान रहते हैं? विषय ये है कि, टी.के.एस को लागू करना मानवता के लिए विस्तृत रूप से अनिवार्यता है, साथ ही वे सार्वभौमिक निर्भरता जो अधार्मिक एवं संसाधन अपवाह ‘उच्च श्रेणी के’ ज्ञान प्रणाली की है, उसको न्यूनतम करते हैं I हमें अध्ययन करना है, संचय करना है और पुनः जीवित करना है उस पारम्परिक ज्ञान प्रणाली को, इस विश्व के आर्थिक उद्धार के लिए एक सर्वांगीण प्रणाली द्वारा, क्यूंकि ये प्रोद्योग पर्यावरण-अनुकूल हैं और वातावरण को हानि पहुंचाए बिना ही विकास का पोषण करते हैं I भारत की वैज्ञानिक धरोहर को सम्पूर्ण विश्व के सामने उस शिक्षित विश्व में प्रकट करना है, जिससे कि, इस यूरो-केन्द्रिक इतिहास को जो विज्ञानं और प्रोद्योग के विषय में व्याप्त है, उसे हम स्थानांतर कर सकें एक सत्य और सार्वभौमिक विचारों के माध्यम से I इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कई पीढ़ियों के शोध लग जायेंगे इन क्षेत्रों में, विद्यमान आँकड़ों का संकलन करने में, और पुस्तकों के माध्यम से प्रकीर्णन, समारोह, वेबसाइट्स, लेख, चलचित्र, इत्यादि के संकलन में।

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