पारंपरिक ज्ञान प्रणाली – 3

भारतीय सभ्यता

Translation Credit: – Vandana Mishra

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ज्ञान प्रेषक की भाँती शास्रविधियाँ:

उत्तराँचल के दूरवर्ती क्षेत्रों के ग्रामीणवासी एक कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिसका नाम ‘जागर्स’ होता है, जिसमें जागरिए भेजते हैं डंगरिए को एक प्रकार के तन्मयावस्था में I डंगरिया तत्पश्चात आपकी सहायता करता है समस्या सुलझाने में, रोगों का उपचार बताता है, ग्राम के सामाजिक मतभेदों को सुलझाता है इत्यादि I इसे कोई भी एक ढोंग समझ कर अस्वीकार कर सकता है; किन्तु इसको भी अचेतन मन तक पहुँचने का, पारम्परिक प्रणाली माना जाता है I क्या जगरिया अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का प्रयोग करता है उस डंगरिया के अचेतन मन के मानसिक क्षेत्र तक पहुँचने की और उसे पड़ने की ? या, वक्लेव हवेल के द्वारा प्रतिपादित, क्या ये शास्रविधियाँ उन प्रयत्नों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसमें पुरातनकाल के मानवों को मेल-जोल करना पड़ता था उस अज्ञात से, अतर्कसंगत, और अस्तित्व के होने के अचैतन्य अँगों से? क्या ये साधन प्रयोज्य थे पुरातन अतीत के विस्मृत ध्यान को पुनः जागरूक करने के लिए?

अतः, हम जागर्स को कोई ढोंग-ढकोसला समझकर अस्वीकार नहीं करेंगे, बल्कि एक ऐसा दृग्विषय मानेंगे जिसको वैज्ञानिक परीक्षण की आवश्यकता है I यह एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक शोध होना चाहिए जो टी.के.एस से अंदरूनी विज्ञान में संपर्क स्थापित करता हो. विपरीततया, युंग के पश्चात, कई पश्चिमियों ने इस पारम्परिक ‘भीतरी विज्ञानं’ का अध्ययन किया और इसको अशुद्ध किया, भिन्न नामांकन द्वारा एवं, अन्य प्रकार से नूतन पोटली में डालकर उन्हें पुनः प्रस्तुत किया I साथ ही, वास्तविक शोधकर्ताओं एवं व्यवसायीयों को अस्वीकार किया एक अविकसित समाज के रूप में, जिसको पश्चिमियों के उपचार की आवश्यकता है, अपने रोगों को दूर करने के लिए I  

मिथ्या और पौराणिक कथा:

मिथ्या और पौराणिक कथाएं कदाचित हमारे पूर्वजों द्वारा प्रयत्नों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो वैज्ञानिक अवलोकन के माध्यम से, उन्होंने एक विश्व का निर्माण किया और भविष्य की आनेवाली पीढ़ियों को वो ज्ञान प्रसारित किया I वे भिन्न प्रकार के ढांचों का प्रयोग करते थे उन अवलोकन के निष्कर्षों के लिए, किन्तु अवलोकन अनुभवाश्रित थे I चलिए किंचित पुरातन पौराणिक कथाओं को आधुनिक विज्ञानिक अवलोकनों से तुलना करें, उनके भौगोलिक इतिहास के सन्दर्भ में, जो भारतीय महाद्वीप के विषय में है I हम तीन उदाहरणों को दर्शाएंगे, और प्रत्येक को एक कल्पित कथा या गूढ़ सत्य के रूप में देखा जा सकता है या कदाचित इन दोनों का मिश्रण भी:

१) कश्मीर (भारत) के भूविज्ञान के अध्ययन को अब तक १५० वर्ष हो गए I इन अध्ययनों के परिणाम स्वरुप, ये अब सर्व ज्ञात हो चूका है कि, पिर पंजल श्रेणी के उत्थान के कारण लगभग ४ मिलियन वर्षों पूर्व, एक बृहत सरोवर का निर्माण हुआ, जिसने निकास को हिमालय से प्रतिबंधित कर दिया। तदनंदर, झेलम नदी उत्पन्न हुई बारामुल्ला के दोषपूर्ण रूप में, जहाँ से जलनिकास हुआ उस सरोवर से ८५, ००० वर्षों पूर्व. ये कश्मीर घाटी की भूगौलिक इतिहास के रूप में स्वीकार किया गया है I

अब इसको पुरातन पौराणिक कथा से तुलना करें: कश्मीर में एक अत्यंत ही पुरातन परम्परा है जिसमें एक बृहत सरोवर की व्याख्या की गयी है, जिसको घाटी में पुरातन काल में, सतिसारा कहते थे I कल्हण, एक कवी इतिहासकार थे, जिन्होंने एक पुस्तक राजतरंगिणी, या ‘राजाओं की नदियाँ (द रिवर्स ऑफ़ किंग)’ लिखा ११५० ए डी में. इस पुस्तक में वे उल्लेख करते हैं पुरातन सरोवर (सतिसारा) के विषय में, एक प्रसंग द्वारा जो उससे भी अधिक पुरातन लेखों के माध्यम लिया गया है, अर्थात नीलमत पुराण I

औरेल स्टीन (१९६१), जिन्होंने राजतरंगिणी का अनुवाद किया, व्याख्या करते हैं सतिसारा के पौराणिक कथा का इन शब्दों में:  “ये पौराणिक कथा कल्हण द्वारा उद्धरण की गयी है, उनके वृत्तांत के परिचय भाग में और अत्यंत विस्तृत रूप में सम्बंधित है नीलमत पुराण से…. एक जलोद्भवा नमक असुर जो इस सरोवर में निवास करता था वह अदृश्य रूप में अपने अस्तित्व में व्याप्त रहता था और सरोवर के बाहर आने से मना करता था. विष्णु भगवान् तत्पश्चात अपने भ्रातः बलभद्र को उस सरोवर से सम्पूर्ण जल को निकास करने का आदेश दिया….I” यदि हम इस संघर्ष को जो ईश्वर और असुर के मध्य में हुआ था उस कथा को अनदेखा का दें तो भी, पौराणिक कथाएं इस की शाक्षी हैं कि, अतिप्राचीन सरवोर से जल का निकास अवश्य हुआ था I

२) हिमयुग में भारत के पश्चिमी तट पर समुन्द्र का स्तर, अन्य क्षेत्रों की तुलना में वर्तमान काल में, १०० मीटर निम्नतर था और १६,००० वर्षों के उपरांत वह स्तर बढ़ने लगा I ये एक मान्य सुस्थितिक तल का इतिहास है I

संबंधित पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब परशुराम ने अपनी सर्वत्र भूमि ब्राह्मणों को दान कर दिया था, तब परवर्तीयों ने उनसे प्रश्न किया कि, दान की हुई भूमि में वे अब कैसे निवास कर सकते हैं? परशुराम तत्पश्चत समुद्र-तट के भृगु पर चढ़ गए और वहां से उन्होंने अपना परसु (कुल्हाड़ी) को समुन्द्र में फेंका जिसके कारण समुद्र घटने लगा, और उससे जो भूमि प्रकट हुई, उसी पर वे निवास करने लगे I ये संभवतः एक उद्धरण है समुद्र के घटने का और नूतन भूमि के उत्पन्न होने का I

३) तृतीय उदाहरण है, सतलज नदी का, जो कि, इंडस की वर्तमान काल में एक उपनदी है I अपने नूतन चाल चलन के अन्वेषणों में, सरस्वती नदी कई जलग्रीवा की लटों में निकली। ये एक मान्य भूगर्भविद्या है I

प्रासंगिक पौराणिक कथा कहती है कि, पवित्र मुनि वशिष्ट आत्महत्या करना चाहते थे, सरस्वती नदी में कूद कर, किन्तु नदी की इच्छा नहीं थी ऐसे महान ऋषि को जल में डुबो कर मृत्यु दे देना, अतः वह कई सैकड़ों छिछले सरणियों में विस्तृत हो गयी, इसी कारण उसका पुरातन नाम शतद्रु भी है I जबतक की ऐसे पौराणिक कथा के लेखक ने नूतन कालीन सतलज का लट निर्माण कार्य नहीं देख लिया, वह कल्पना भी नहीं कर सकता था, इस प्रकार की पौराणिक कथा के व्यापक सत्य को I

मिथ्या की संभव भूमिका, को सिद्धांत रूप देने के विषय में स्कॉट कहते हैं: “इस यथाशब्द एवं आलंकारिक संपूरकता की सहायता से हमें ज्ञात हुआ कि, मिथ्या और विज्ञानं में जो अंतर् है वह संरचनात्मक नहीं है, बल्कि प्रक्रियात्मक है….. मिथ्या एक विस्तृत प्रतिमानात्मक बोध है, जो जड़ अन्योक्ति की घनीभूत की हुई अभिव्यक्तियां हैं और जो किसी विशेष प्रतिभावान प्रणाली की प्रतिबिम्ब हैं…… कई असंख्य अध्ययनों ने शोध किया और पाया कि, समानतावादी व्याध एवं उद्यान कृषिविद् के “मानवरूपी” आदर्श ना मात्र अभ्यासिक ज्ञान ही उत्पन्न करते हैं जो की तर्कयुक्त है वैज्ञानिक परिस्थिति-विज्ञान के अंतर्दृष्‍टि के संग, बल्कि साथ ही एक प्राकृतिक उत्तरदायित्व के सदाचार को भी उत्पन्न करते हैं जो पश्चिमी समाज के लिए मायावी सिद्ध हुआ है I”

अपनी पुरातन कथाओं एवं परम्पराओं की सहायता से, इस्राइली समुदाय अत्यंत सफल रहे अपने लुप्त प्रोद्योगिक प्रसंगों और संस्कृतियों को पुनः शोध करके उसको वर्तमानकाल के वातावरण के अनुकूल बनाने में I इसके माध्यम से, वे कई आर्थिक मूल्यांकन प्रणालियों के क्षेत्रों में मार्गदर्शक बन गए जिसका औपचारिक यूरोपी प्रोद्योग में अभाव है I

लक्ष्य

भारत की बौद्धिक सम्पत्तियाँ मात्र उसके “देशीय” संदेहात्मक उत्कृष्ट बुद्धिजीवियों तक ही सिमित (यदपि वे सिमित हैं) नहीं है I वर्तमान में, भारतीय अर्थशास्त्री, समाज के विकासकर्ता एवं विद्द्वान व्याप्त हैं जो घोर परिश्र्म कर रहे हैं अपने टी.के.एस को पुनः जीवित करने के लिए I भारतीय टी.के.एस के शिक्षण के लिए, शोध एवं अध्ययन के संसाधनों को निम्नलिखित कारणों से उपलब्ध करना चाहिए:

भारत के समीप कई सर्वोच्चय सन्दर्भ हैं टी.के.एस के सफलतापूर्वक पुनरुत्थान के लिए: इसके पास समृद्ध धरोहर है जो अभी भी खण्ड है इन क्षेत्रों में I इसके पास विशाल विस्तृत आलेख किये हुए पुरातन साहित्य के भण्डार हैं जो टीकेएस से प्रासंगिक हैं I इसके पास बौद्धिक संसाधन हैं इसकी प्रशंसा करने के लिए और इसके पुनरुत्थान के लिए, यदि मकौले बंद बुद्धि वाले संभवतः जागरूक हों, पुनः-शिक्षण से अपने ही उत्कृष्ट शासकों द्वारा। इसको भीषण आवश्यकता है निर्भर होने की सीमा से पार, विस्तृत होने की, मात्र नूतन रामबाण औषधि द्वारा, जो है सार्वभौमिकता एवं पश्चिमीकरण।

भारत की धरोहर, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक पौराणिक पैतृक संपत्ति के अतिरिक्त, इसको उचित रूप से बोध होने की आवश्यकता है I ये लक्ष्य कोई उग्रराष्ट्रीयता से प्रेरित नहीं है, बल्कि भारतीय सभ्यता को उचित रूप से समझने के लिए है. ये संभवतः भारत की क्षमता को वर्तमान स्थिति में उलट पलट कर मूल्यांकन करेगा I

विज्ञानं के इतिहास, विचारों के इतिहास,, विश्व इतिहास की मुख्यधारा, नृविज्ञान एवं संस्कृति इत्यादि के उचित चित्रण एवं संशोधन करने के लिए I ये प्रबलतापूर्वक अपरिहार्य करता है विद्द्वानों पर एवं शिक्षकों पर, टी.के.एस को अनिवार्य रूप से सम्मिलित करने के लिए, विशेषतः भारत की उपलब्धियाँ एवं योगदान इस विश्व को जो अत्यंत ही महत्वपूर्ण रही हैं, किन्तु वे क्षुद्र ही रहे। 

टी.के.एस को आर्थिक परियोजनाओं में सम्मिलित करना होगा, क्यूंकि वे पर्यावरण-अनुकूल, चिरस्थायी, श्रमिक तीव हैं अपेक्षाकृत मूलधन तीव होने के, और जनसमुदाय में सरलता से उपलब्ध हैं I ये टॉप-डाउन (ऊपर से नीचे की ओर) ‘आधुनिक’ वैज्ञानिक विकास कार्यक्रम के समातर संग होना चाहिए पश्चिमी ‘सार्वभौमिकता’ का प्रयोग करते हुए, क्यूंकि दोनों को सहवर्ती होना चाहिए और प्रत्येक को उसके गुणों के आधार पर प्रयोग करना चाहिए I

टीकेएस और आंतरिक विज्ञानं, इतिहास, और वर्तमान समाज

आंतरिक विज्ञानं:

भारत का आंतरिक विज्ञानं एक ओर से पश्चिमियों द्वारा हड़प लिया गया है, और दूसरी ओर इसको विकास, तर्क एवं पदार्थवाद पश्चिमियों से संघर्ष करते हुए दर्शाया जाता है I वास्तव में, आतंरिक एवं बाहरी दोनों प्रभुता को विपक्ष की भाँती देखा गया है, जो की अतिउत्तम ढंग से संतुलित हैं क्यूंकि दोनों एक दुसरे के विपरीत हैं I ये अनुमान लगाता है कि, आंतरिक विज्ञानं व्यक्ति और समाज को अल्प विकसित, अल्प सृजनशील एवं अल्प  प्रतिस्पर्धी बनता है बाहरी प्रभुता में I तथापि, भारत के टी.के.एस अनुभवाश्रित प्रमाण हैं आंतरिक विज्ञानं को दर्शाने और बाहरी विकास दोनों को समकालीन व्याप्त होने के लिए पारस्परिक सहजीवी सम्बन्ध में I भारत के टी.के.एस के उचित अध्ययन करने का, महत्वपूर्ण कारण यही है I

बिना इस आंतरिक एवं बाहरी चिंता को हटाए हुए, ये अत्यंत ही कठिन होगा, आधुनिक विश्व को गंभीर रूप से प्रोत्साहित करने के लिए, आतंरिक विज्ञानं में एक प्रधान प्रणाली से, उच्च स्तर तक जाने के लिए I आंतरिक विकास बिना बाहरी विकास के, संभवतः एक विश्व को निषेध करने के समान दृष्टिकोण होगा, जो भारत के टी.के.एस अभिलेख दर्शाते हैं कि, उत्कृष्ट भारत में ऐसा नहीं था I बाहरी विकास बिना आंतरिक जुताई के, एक ऐसे समाज का निर्माण करता है जो अत्यधिक पदार्थवादी होते हैं, अत्यंत ही स्वार्थी होते हैं जातिसंहार की सीमा तक और विध्वंस, पर्यावरण-अनुकूल के विरुद्ध और सामजिक तारतम्यता के लिए बल एवं नियंत्रण पर निर्भर रहते हैं I

इतिहास: 

१८०० विं तक, टीकेएस से बृहत विस्तृत स्तर की आर्थिक  उत्पादकता प्रदान की भारतियों के लिए I ये टी.के.एस पर आधारित उन्नतिशील भारतीय अर्थ व्यवस्था थी जिसने कई आक्रमणकारियों की श्रेणियों को आकर्षित किया, जिसका अंग्रेजी शासन में आकर समापन हुआ I परम्परागत रूप से भारत विश्व के सर्वोच्च संपन्न क्षेत्रों में से था, और अधिकांश भारतीय ना तो ‘पिछड़े’ हुए थे और ना ही ‘अशिक्षित या निर्धन’ थे I किंचित इतिहासकार वर्तमान काल में इस प्रकार की कथा के समर्थन में अग्रणी हुए हैं, ये दर्शाते हुए कि, भारत का बृहत आर्थिक निकास हुआ, दमन हुआ, सामाजिक पुनः अभियांत्रिकरण हुआ, और इसी प्रकार अन्य कई उपनिवेशियों के हाँथो, जिन्होंने कई अशंख्य मिलियन ‘नूतन निर्धन’ को जन्म दिए पिछली किंचित शतब्दियों की तुलना में I ये व्याख्यान एक विभिन्न अध्ययन को, उत्पन्न करता है मूलतः भारत के निर्धनता पर, वर्तमान में I भारतीय टी.के.एस प्रणाली का आभार व्यक्त करने के पश्चात्, इतिहास के वृत्तान्त को अस्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाता है जो उसकी निर्धनता को अनिवार्यता सिद्ध करते हैं और उनसे सम्बंधित सामाजिक कुरीतियाँ। टीकेएस की वास्तविकता पूर्वधारणा का विरोध करती है, जैसे:

भारत, पश्चिमियों की तुलना में अल्प तर्कसंगत एवं विज्ञानवेत्ता था I

भारत, विश्व-खंडन विचारधारा के दृष्टिकोणों में ग्रस्त था (जो कि, आतंरिक विज्ञानं के अनुचित अध्ययन का परिणाम है), अतः वह कदापि अपने आपको आंतरिक रूप से विकसित नहीं कर पाया।

भारतीय समस्याओं के अतिरिक्त जैसे कास्ट, जो उसका अपना ‘तत्व’ है, शेष भारतीय सभ्यता अधिकांश रूप से आक्रमणकारियों द्वारा आयातित है I

भारतीय समाज अत्यंत ही पिछड़ा था (इतने निम्न वर्गीय स्तर तक का था कि, नैतिकता का भी अभाव व्याप्त था); अतः वह अपने आधुनिकता और वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए पश्चिमियों पर निर्भर रहता है I

वर्तमान समाज:

क्या भारत एक ‘विकासशील समाज’ है या ये ‘पुनः-विकासशील समाज’ है? बिना लोगों के टी.के.एस की प्रशंसा किये, केसे किसी समाज के वर्तमान स्थिति का नृविज्ञानी एवं समाजशास्त्री निष्कर्ष निकाल सकते हैं? क्या वे सर्वदा ही निर्धन थे, और दूषित दोषपूर्ण समाज में समस्यात्मक स्थितियों में घिरे रहते थे जैसे वर्तमान में हैं, किस स्थिति में इन समस्याओं का मूलतत्त्व देखा जाता हैया वर्तमान स्थिति के पीछे अतीत का इतिहास उत्तरदाई है? इस इतिहास को, तथापि, बहाना नहीं बनाना चाहिए अपनी असफलता का, जो ५० वर्षों के स्वतंत्रता पश्चत भी इन समस्याओं से उचित रूप से आर्थिक एवं सामाजिक समाधान नहीं कर पाए और जो अभी भी व्याप्त हैं I

अग्रणी रूप में, टीकेएस अत्यंत ही पर्यावरण-अनुकूल है, पर्यावरण से सहजीवी है, और अतः सहायता कर सकता है एक दीर्घकालिक जीवनशैली प्रदान करने में I चूँकि बृहत उद्द्योग के लाभ निर्धन रेखा के नीचले वर्ग के लोगों तक नहीं पहुँच पाते हैं या तथा कथित विकासशील देशों तक नहीं पहुँच पाते हैं, पारम्परिक प्रौद्योगिकी एवं शिल्पकारी के पुनरुत्थान को अनिवार्य रूप से अनुपूरण होना होगा आधुनिक ‘वीकासशील’ परियोजनाओं के, जो निर्धनता का उन्मूलन कर सके I इस सन्दर्भ में, उत्कृष्ट एवं जनसाधारण विज्ञानं के मध्य कोई विभिन्नता व्याप्त नहीं थी पुरातन काल में: भारत के अग्रवर्ती धातु विज्ञान एवं सिविल अभियांत्रिकी के शोध और अभ्यास शिल्पकार मंडली द्वारा किये जाते थे I

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