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नियमित विरोध जो मैं श्रवण करता हूँ
अशिष्टता:
इन अनुरूप लेखों के प्रालेखों की समालोचना कुछ रीसा-सम्बन्धी विद्द्वानों द्वारा हुई है जिन्होंने इसे अशिष्ट एवं “नकारात्मक” बताया हैI तथापि, किसी भी व्यक्ति जिसने रीसा विद्द्वाओं के लांछन युक्त को देखा है, अपेक्षाकृत जो उनके विरुद्ध हैं और जिन्होंने ने साहस किया है उनकी समीक्षा करने का, वे शीघ्र ही उनके दुहरे नैतिक सिद्धांतों को दर्शा सकते हैंI [८३] घोषित किया गया अध्ययनशील मानदंड को अवश्य प्रमाणित करना चाहिए। किन्तु मुझे कई अन्य पक्ष समर्थन प्रस्तुत करना होगा इस चुनौती को देने के लिए I
उन हिन्दुओं को पाना स्वाभाविक है जो कटुवाक्य, हास्यानुकृति एवं व्यंग-चित्र बनाकर उन विद्द्वानों की आलोचना करते हैं जो कि ईश्वर-भाँति पद प्राप्ति की घोषणा करते हैंI निकोलस गियर की पुस्तक ने प्रयोग किया है “दानवपन” एक रूपकालंकार की भाँति, उन गुरुओं के वर्णन के लिए, जो जीवन से बृहत हैं, और जो निर्विवादित सत्ता अपना लेते हैंI भारतीय चित्त अनुसार, पश्चिम का दानवी विद्यमानता हैI मैं अर्पण करता हूँ कि, ऐसे दानव विद्द्वान हैं, जो इस क्षेत्र में प्रभुत्व बनाये हुए हैं, और जिन्होंने अपहरण किया है वैदिक सत्ता का, और स्वयं ही अंतिम प्रभुत्त्व पद धारण किये हुए हैं हिन्दू धर्म पर —- जैसे अंग्रेज़ों ने भारत पर अपना प्रभुत्त्व धारण कर लिया था I
वो विद्द्वान जो भली-भाँति समझते हैं हिन्दुओं की इस आकाश से ईश्वर-आह्वान रुधि को और उनपर व्यंग कोंचने की रीती से, संभवतः इतने क्रोधित नहीं होंगे उनपर, हमारी तीव्र आलोचनाओं सेI चूँकि हम नागरिकता से वंचित हो जाने के सामान अनुभव करते हैं, जैसा की जाती- बहिष्कृत होना अपने ही धर्म के शैक्षिक अध्यन में से, हमारा आश्रय है पारम्परिक प्रणाली से जिसका भगवन से भी अहंकार का लेन-देन हैI
अपहरण करना:
गेराल्ड लार्सन ने आरोप लगाया है प्रवासी पर, जो शिक्षा परिषद के सदस्यता से बाहर हैं, जो नियंत्रण के क्षेत्र से बाहर हैं, उन्होंने “अपहरण” किया है उनके व्यवसाय काI किन्तु इस प्रतिक्रिया के विपक्ष में ये तर्क प्रस्तुत किया गया है कि अपहरण एक प्रकार की चोरी है, और चूँकि श्रद्धालू समुदाय वास्तविक अधिकारी है परमपरा का, तो ये अन्यदेशीय विद्द्वान ही है जिसने अपहरण किया है I ये वाद-विवाद, दोनों ओर से उस वाद-विवाद के सामान है जो अँगरेज़-गाँधी में हुई थी स्वराज्य को लेकर I विद्द्वान की प्रवृत्ति, स्वयं-प्रशस्ति एवं अपेक्षाएं भारतीयों से दण्डवत प्रणाम की, और विशेष्तः हिन्दुओं से, मुझे स्मरण करवाता है कि किस प्रकार ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी वशीभूत भारतियों से स्वयं को “कंपनी सरकार” सम्बोधित करवाती थी I
सर्वज्ञांत है कि इंडोलोजी (भारतविद्या) ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा आरम्भ की गयी थी जो की उपनिवेशिता का ही अंश और गठरी था, रिसा ने भी उनका अनुसरण किया है और स्वयं को घोषित किया है एक नूतन सरकार के रूप में I दिलीप चक्रबोर्ती, कैंब्रिज महाविद्यालय के पुरातत्व विभाग के एक विशेषाधिकारी, ने अत्यंत ही सुस्पष्ट रूप से विवरण दिया है: [८४]
“….. एक अंतर्निहित धारणा है पश्चिमी इंडोलोजियों की स्वयं को श्रेष्ठ स्तर का अनुभव करने की भारत से, विशेषतः आधुनिक भारत और भारतियों की तुलना में I क्षेष्टता का ये अनुभव कई रूपों में व्यक्त किया जाता है I एक स्तर पर, बारम्बार प्रयत्न किये जाते हैं सभी भारतीय मूल सिद्धान्तों के परिवर्तन को एक में जोड़ देने का और इतिहास को एक पश्चिमी हस्तक्षेप के किसी रूप में सम्मिलित करने का I प्राचीन भारत की प्रतिमा थोपी गयी थी भारतियों पर, शासक ग्रंथों द्वारा, जो इंडोलॉजी के पश्चिमी विद्द्यालयों से उत्त्पन किये जाते थे, इनके चित्त अनुसार भारत की तत्वज्ञान, धार्मिक एवं साहित्यिक विद्या ढालवांपन की ओर थी और बिना बाहरी हस्तक्षेप के उसका रूपान्तर होना असंभव था, चाहे वो एलेग्जेंडर(सिकंदर) दी ग्रेट द्वारा हुआ हो, या रोम की जहाजें जो स्वर्ण ले जाती थीं उनके द्वारा हुआ हो, या अंग्रेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा हुआ हो I दूसरे स्तर पर, पश्चिमी श्रष्टता की अभिव्यक्ति और भी सीधी एवं सम्मिलित करती है विस्तृत रूप के परिसर को: संरक्षण करते हुए और/या भारतीय प्रकाशनों की घृणित समीक्षा करते हुए, व्यक्तिगत कष्टों की ओर संकेत करना जब भारत में कार्य कर रहे हों, भारतियों का आभार ना मानना एक “ज्ञान के अभिकर्ता” के रूप में उनको अस्वीकार करना या प्रबल घमंड जो किसी को भी अचरज में डाल दे यदि पश्चिमी शैक्षिक की सभ्य मान्यताओं ने अपनी इंडोलॉजी को अधिकाँश अछूता रखा है….. “
“अन्तः, पश्चिमी इंडोलॉजी एक आवश्यक उप-उत्पाद है उस प्रक्रिया का जो भारत पर पश्चिमी शासन के संस्थापन के सामान है I जातीयता —- इस सन्दर्भ में जातीय अनुभव, मूल निवासियों से श्रेष्ट, होने का अनुभव है —- नितान्त रूप से ठीक था, एक प्रमुख नया सैद्धांतिक आधार है इस प्रणाली का I ये अत्यंत ही स्वाभाविक है कि पश्चिमी इंडोलॉजी को इस प्रकार के श्रेष्ठ होने के भरपूर मनोविकारों को ढोना चाहिए …”
निधिबंधनों के स्रोत:
इन्फिनिटी फाउंडेशन पर नूतनकाल में आक्रमण किया गया था विद्द्वानों को, छात्रवृत्ति प्रदान करने के लिए (ऐसा कथित है कि, अनुसंधान पर प्रभाव डालने की विधि है)I किन्तु तब मैंने अत्यंत ही ऊँचे स्वर और स्पष्ट रूप से विरोध किया, और रिसा के कुछ सदस्यों द्वारा सहायता लिया और बतलाया, कि कई सहस्त्र गुना अधिक धनराशि भारतीय अध्यन पर, पश्चिम में, सरकार द्वारा, गिरिजाघरों द्वारा एवं कई पश्चिमी बहुराष्ट्रीय स्वार्थियों द्वारा दी जाती है I दृण पूर्वानुमान अनुसार कई रिसा के सदस्यों के कई अस्थिपंजर कोठरी में बंद हैं, और उनके धनराशि के आंकड़ों की सूची स्रोत अधिकाँश सार्वजनिक क्षेत्र में व्याप्त है, मेरे सुव्यवस्थित भंडाफोड़ के आह्वन को और मेरे सभी निधीकरण स्रोतों की छान-बीन को अवज्ञा एवं निस्तब्ध कर दिया गया I मेरा विचार ये है कि, भारतीय, जो निधि प्रदान कर रहे हैं मानविकी क्षेत्र को, वह इस सन्दर्भ को भी देखें की उस क्षेत्र को पश्चिमी स्वार्थयों द्वारा भी अत्यधिक धनराशि मिल रही है, साथ ही साथ उसको कई अन्य अल्प सांखिक संस्थाएं जो पश्चिमी नहीं हैं वे भी धन दे रही हैं जैसे जापान फाउंडेशन, कोरिया फाउंडेशन, दी चाइना इंस्टिट्यूट, और कई मात्रा में इस्लामी एवं अरबी स्रोत।
अंतरंगी/अगन्तुक एवं निष्पक्षता:
हिन्दू धर्म पर हिन्दुओं का अपना ही दृष्टिकोण, पक्षपातपूर्ण एवं अविश्वसनीय माना जाता है I किन्तु ये प्रथम ही स्पष्ट कर दिया गया है कि इंडिक परंपरा के अगन्तुक निष्पक्ष नहीं हैं, क्यूंकि वे किसी अन्य परंपरा के अन्तरंगी हैं, और वे भी इस व्यवसाय-अंश के युद्ध क्षेत्र में वास्तविक प्रतिस्पर्धी हैं I इसके अतिरिक्त, अध्यात्म-विद्या(आंतरिक विज्ञानं) के विश्लेषण के स्तर ही हैं जो ग्रंथों एवं परम्पराओं के प्रायः आह्वन हैं, और ये आधारित है व्यवसायी के अनुभवों पर I “आगंतुक” को प्रायः ही अनुरेख किया जा सकता है उस मनोवृत्ति का जो “एक पुस्तक” सभ्यता के नीचे छिपे हुए निष्पक्षता का मुखौटा पहने हुए है I
रीसा के क्रोध का मनोविश्लेषण
एकाधिपत्य को भय की अनुभूति:
रीसा के आंतरिक सत्ता ढांचे ने कई चौकीदारों को प्रोत्साहन दिया है प्रवेश पर नियंत्रण रखने का, और सिपाहियों को स्वतंत्रता दी है बाहर जाकर मार-और-दौड़ लक्ष्य के लिए—-लांछन युक्त के अभिप्राय में—-उनके विरुद्ध जो उनसे उनकी कार्यप्रणाली पर, या उनके सत्ता ढांचे पर या उनके निष्कर्षों पर प्रश्न करें I
जब, १९९५ में, भारत के विषय में, मैंने शैक्षिक क्षात्रवृद्धि का परीक्षण करना आरम्भ किया तब, मुझे कई बार ये कहा गया कि पहले मुझे इस संगठन के सत्ता धारी स्वामियों का सत्कार करना होगा. मेरा प्रारंभिक रीसा के स्वामियों से कृपा करते हुए विनीत ना करने का कारण था एक स्वतंत्र परिदृश्य पाने का, उसी की भाँति, जिस प्रकार संयुक्त प्रबंधकर्ता लता है एक स्वतंत्र परामर्शदाता, उनको ये बताने के लिए कि अन्तरंगियों ने उनसे क्या छिपाया है I मैं उन ध्वनियों और दृस्टिकोणों का श्रवण करना चाहता था जो सत्ता ढांचे के द्वारा अधिकारहीन कर दी गयी थीं, जैसा की प्रायः ही ऐसे अगम्यागमनात्मक और भ्रष्ट संस्थाओं में होता है I क्यों मुर्गी घर के प्रबंधन के लिए आगे भी लोमड़ी को सशक्त बनाएं?
किन्तु मुझे बारम्बार चेतावनी दी गयी कि यदि विधिसंगत होना है तो, मुझे अवश्य ही
स्वामियों को आमंत्रित करना होगा जो अगुवाई करेंगे मेरी हर उस गतिविधि की जो मैं करूँगा I यदपि वे निमंत्रण स्वीकार नहीं करेंगे, तब भी वो आमंत्रण हमें एक “संरक्षण” प्रदान करेगा I तथापि, मेरी पूर्ण संयुक्त-आजीविका, एक के पश्च्यात एक आरोपित आधिपत्य से युद्ध में लीं रही, और सत्ता के प्रवाह के साथ में क्रीड़ा की धारणा, मेरे लिए कदापि आकर्षक नहीं रही I मैं किसी व्यक्ति को तभी आमंत्रित करता हूँ जब कोई उचित अभिप्राय हो जो आधारित हो उसकी दृण उत्कृष्टता पर, और ना की जब वह उचित ही ना हो I पूर्णविराम I
१९७० विं में संगणक उद्योग में, मैंने उपेक्षित छोटे संगणक के लिए कार्य करने का आनंद उठाया और उसके उपरांत निजी संगणक आपूर्तिकरताओं के साथ कार्य करने का, उस समय जब प्रबल आई.बी.एम मेंनफ्रेम ने सर्वोच्च शासन किया थाI तदनंदर, दूरसंचार क्षेत्र में भी, मैंने पुनः आनंद उठाया कार्य करने का, आनेवाले नए आदर्शों के संग जिसने चुनौती दी पुरातन अखण्ड विशालकाय कोI प्रबन्धन परामर्शदाता के रूप में, मैंने, विशेषज्ञता प्राप्त की है उद्द्योग ढाँचों के अध्यन में, ये ज्ञात करने के लिए, कि कौन से बिंदु आघात योग्य हैं जहाँ पर नए उद्यमी खिलाड़ी प्रवेश कर सकते हैं और अंततः पुराने वालों (और अवश्यभावी अक्षम) को पराजित कर सकते हैं I परिवर्तन को सुगम बनाना मेरे लिए सर्वदा ही आकर्षक रहा है I मैं प्रायः उनको चुनना उचित समझता हूँ जो चुनौती देते हैं यथापूर्व स्थिति को और एकाधिकारप्राप्त प्रक्रिया को I
अतएव, मानविकी शैक्षिक क्षेत्र में ये कोई मेरा प्रथम भिड़ंत नहीं है इन आरोपित अधिकारीवर्गों से, पुराने लड़कों का (और लड़कियों का) संजाल, अपनी “अन्य” के विरुद्ध शत्रुता को लेकर,—-पहले तो असक्षम समझ कर अनदेखा कर दिया, और तत्पश्चात उनको एक भय के रूप में देखा गया, पदाधिकारी की सत्ता को लेकरI इस भारतीय अध्यन के नूतन-उपनिवेशी क्षेत्र को थरथराने के मूल्य में अपमान सहना भी सम्मिलित है I
मैं मानविकीय शास्त्रों एवं मनः विश्लेषणात्मक प्रणालियों का अध्यन करता रहा हूँ जो ये विद्द्वान उपयोग करते हैं, और वही स्वरुप प्रणाली मैंने इन विद्द्वानों के विषय में अध्यन करने के लिए भी प्रयोग किया है I ये चित्ताकर्षक है, इनको देखना एक असाधारण, विचित्र एवं अनूठे समुदाय के रूप में I उनके अकर्मण उनके आलोचकों के विरुद्ध और अधिक आँकड़े प्रदान करते हैं अनुसन्धान के लिए I इनके सम्राट एवं सम्राज्ञी प्रायः बौद्धिक रूप से नग्न होते हैं I
(To be continued…)
Translator: Vandana Mishra.
Original Article: RISA Lila – 1: Wendy’s Child Syndrome
URL: https://rajivmalhotra.com/library/articles/risa-lila-1-wendys-child-syndrome/